ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 95 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अपरिच्चत्त-सहावेणुप्पा-दव्वयधुवत्त-संबद्धं । (95)
गुणवं च सपज्जयं जं तं दव्वं ति वुच्चंति ॥105॥
अर्थ:
जो स्वभाव को छोड़े बिना उत्पाद-व्यय-धौव्य संयुक्त तथा गुणयुक्त और पर्याय सहित है, वह द्रव्य है -- ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ द्रव्यलक्षणमुपलक्षयति -
इह खलु यदनारब्धस्वभावभेदमुत्पादव्ययध्रौव्यत्रयेण गुणपर्यायद्वयेन च यल्लक्ष्यते तद्-द्रव्यम् । तत्र हि द्रव्यस्य स्वभावोऽस्तित्वसामान्यान्वय: । अस्तित्वं हि वक्ष्यति द्विविधं - स्वरूपास्तित्वं सादृश्यास्तत्त्वं चेति । तत्रोत्पाद: प्रादुर्भाव:, व्यय: प्रच्यवनं, ध्रौव्यमवस्थिति: । गुणा विस्तारविशेषा:, ते द्विविधा: सामान्यविशेषात्मकत्वात् । तत्रास्तित्वं नास्तिमेकत्वमन्यत्वं द्रव्यत्वं पर्यायत्वं सर्वगतत्वमसर्वगतत्वं सप्रदेशत्वमत्वमप्रदेशत्वं मूर्तत्वमूर्तत्वं सक्रियत्वमक्रियत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं कर्तृत्वमकर्तृत्वं भोक्तृत्वमभोक्तृत्वमगुरुलघुत्वं चेत्यादय: सामान्यगुणा: । अवगाहहेतुत्वं गतिनिमित्तता स्थितिकारणत्वं वर्तनायतनत्वं रूपादिमत्त चेतनत्व-मित्यादयो विशेषगुणा: । पर्याया आयतविशेषा: । ते पूर्वमेवोक्ताश्चतुर्विधा: ।
न च तैरुत्पादादिभिर्गुणपर्यायैर्वा सह द्रव्यं लक्ष्यलक्षणभेदेऽपि स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव द्रव्यस्य तथाविधत्वादुत्तरीयवत् ।
यथा खलूत्तरीयमुपात्तमलिनावस्थं प्रक्षालितममलावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । तथा द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरङ्गसाधनसन्निधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूप-कर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनांतरङ्गसाधनतामुपागतेनानुग्रहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते; न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथा च तदेवोत्तरीयममलावस्थयोत्पद्यमानं मलिनावस्थया व्ययमानं तेन व्ययेन लक्ष्यते; न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । तथा तदेव द्रव्यमप्युत्तरावस्थयोत्पद्यमानं प्राक्तनावस्थया व्ययमानतेन व्ययेन लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूप-भेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथैव च तदेवोत्तरीयमेककालमलावस्थयोत्पद्यमानं मलिनावस्थया व्ययमानमवस्थायिन्योत्तरीयत्वावस्थया ध्रौव्यमालम्बनमानं ध्रौव्येण लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमलम्बते, तथैव तदेव द्रव्यमप्येककालमुत्तराववस्थयोत्पद्यमानं प्राक्तनावस्थया व्ययमानमवस्थायिन्या द्रव्यत्वावस्थया ध्रौव्यमालम्बमानं ध्रौव्येण लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते ।
यथैव च तदेवोत्तरीयं विस्तारविशेषात्मकैर्गुणैर्लक्ष्यते; न च तै: सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते; तथैव तदेव द्रव्यमपि विस्तारविशेषात्मकैर्गुणैर्लक्ष्यते; न च तै: सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूप एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथैव च तदेवोत्तरीयमायतविशेषात्मकै: पर्यायवर्तिभिस्तन्तुभिर्लक्ष्यते; न च तै: सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते; तथैव तदेव द्रव्यमप्यायतविशेषात्मकै: पर्यायैर्लक्ष्यते । न च तै: सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते ॥९५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
यहाँ ( इस विश्व में) जो, स्वभावभेद किये बिना, १उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-त्रय से और २गुण-पर्याय-द्वय से ३लक्षित होता है, वह द्रव्य है । इनमें से (स्वभाव, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, गुण और पर्याय में से) द्रव्य का स्वभाव वह ४अस्तित्व-सामान्य-रूप अन्वय है; अस्तित्व दो प्रकार का कहेंगे:—१ -स्वरूप-अस्तित्व । २-सादृश्य-अस्तित्व ।
- उत्पाद वह प्रादुर्भाव (प्रगट होना—उत्पन्न होना) है;
- व्यय वह प्रच्युति (भ्रष्ट,-नष्ट होना) है;
- ध्रौव्य वह अवस्थिति (ठिकाना) है;
- अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, अगुरुलघुत्व, इत्यादि सामान्यगुण हैं;
- अवगाहहेतुत्व, गतिनिमित्तता, स्थितिकारणत्व, वर्तनायतनत्व, रूपादिमत्त्व, चेतनत्व इत्यादि विशेष गुण हैं ।
द्रव्य का उन उत्पादादि के साथ अथवा गुणपर्यायों के साथ लक्ष्य-लक्षण भेद होने पर भी स्वरूपभेद नहीं है । स्वरूप से ही द्रव्य वैसा (उत्पादादि अथवा गुणपर्याय वाला) है वस्त्र के समान । जैसे
- मलिन अवस्था को प्राप्त वस्त्र, धोने पर निर्मल अवस्था से (निर्मल अवस्थारूप, निर्मल अवस्था की अपेक्षा से) उत्पन्न होता हुआ उस उत्पाद से लक्षित होता है; किन्तु उसका उस उत्पाद के साथ स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है (अर्थात् स्वयं उत्पादरूप से ही परिणत है);
- उसी प्रकार जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य (निकटता; हाजरी) के सद्भाव में अनेक प्रकार की बहुतसी अवस्थायें करता है वह— ५अन्तरंग साधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण के सामर्थ्यरूप स्वभाव से अनुगृहीत होने पर, उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ वह उत्पाद से लक्षित होता है; किन्तु उसका उस उत्पाद के साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है । और
- जैसे वही वस्त्र निर्मल अवस्था से उत्पन्न होता हुआ और मलिन अवस्था से व्यय को प्राप्त होता हुआ उस व्यय से लक्षित होता है, परन्तु उसका उस व्यय के साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है;
- उसी प्रकार वही द्रव्य भी उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ और पूर्व अवस्था से व्यय को प्राप्त होता हुआ उस व्यय से लक्षित होता है; परन्तु उसका उस व्यय के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है । और
- जैसे वही वस्त्र एक ही समय में निर्मल अवस्था से उत्पन्न होता हुआ, मलिन अवस्था से व्यय को प्राप्त होता हुआ और टिकने वाली ऐसी वस्त्रत्व-अवस्था से ध्रुव रहता हुआ ध्रौव्य से लक्षित होता है; परन्तु उसका उस ध्रौव्य के साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है;
- इसी प्रकार वही द्रव्य भी एक ही समय उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ, पूर्व अवस्था से व्यय होता हुआ, और टिकने वाली ऐसी द्रव्यत्व अवस्था से ध्रुव रहता हुआ ध्रौव्य से लक्षित होता है । किन्तु उसका उस ध्रौव्य के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है । और
- जैसे वही वस्त्र विस्तार-विशेष-स्वरूप (शुक्लत्वादि) गुणों से लक्षित होता है; किन्तु उसका उन गुणों के साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूप से ही वह वैसा है;
- इसी प्रकार वही द्रव्य भी विस्तार-विशेष-स्वरूप गुणों से लक्षित होता है; किन्तु उसका उन गुणों के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है । और
- जैसे वही वस्त्र आयत-विशेष-स्वरूप पर्यायवर्ती (पर्याय स्थानीय) तंतुओं से लक्षित होता है; किन्तु उसका उन तंतुओं के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है ।
- उसी प्रकार वही द्रव्य भी आयत-विशेष-स्वरूप पर्यायों से लक्षित होता है, परन्तु उसका उन पर्यायों के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है ॥
१उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यत्रय = उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - यह त्रिपुटी (तीनों का समूह) ।
२गुणपर्यायद्वय = गुण और पर्याय - यह युगल (दोनों का समूह)
३लक्षित होता है = लक्ष्यरूप होता है, पहिचाना जाता है । (१) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तथा (२) गुणपर्याय वे लक्षण हैं और द्रव्य वह लक्ष्य है ।
४अस्तित्व-सामान्य-रूप अन्वय = 'है, है, है' ऐसा एकरूप भाव द्रव्य का स्वभाव है । (अन्वय = एकरूपता सदृशभाव) ।
५द्रव्य में निज में ही स्वरूप-कर्ता और स्वरूप-करण होने की सामर्थ्य है । यह सामर्थ्य-स्वरूप स्वभाव ही अपने परिणमन में (अवस्थांतर करने में) अन्तरंग साधन है ।