ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 97 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदित्ति सव्वगयं । (97)
उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं ॥107॥
अर्थ:
[धर्मं] धर्म का [खलु] वास्तव में [उपदिशता] उपदेश करते हुये [जिनवरवृषभेण] जिनवर-वृषभ ने [इह] इस विश्व में [विविधलक्षणानां] विविध लक्षणवाले (भिन्न भिन्न स्वरूपास्तित्व वाले सर्व) द्रव्यों का [सत् इति] 'सत्' ऐसा [सर्वगतं] सर्वगत [लक्षणं] लक्षण (सादृश्यास्तित्व) [एकं] एक [प्रज्ञप्तम्] कहा है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
इदं तु सादृश्यास्तित्वाभिधानमस्तीति कथयति -
इह किल प्रपञ्चितवैचित्र्येण द्रव्यान्तरेभ्यो व्यावृत्त्य वृत्तेन प्रतिद्रव्यं सीमानमासूत्रयता विशेषलक्षणभूतेन च स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि सर्वद्रव्याणामस्तमितवैचित्र्यप्रपञ्चं प्रवृत्त्य वृत्तं प्रतिद्रव्यमासूत्रितं सीमानं भिन्दत्सदिति सर्वगतं सामान्यलक्षणभूतं सादृश्यास्तित्व-मेकं खल्ववबोधव्यम् । एवं सदित्यभिधानं सदिति परिच्छेदनं च सर्वार्थपरामर्शि स्यात् । यदि पुनरिदमेव न स्यात्तदा किंचित्सदिति किंचिदसदिति किंचित्सच्चासच्चेति किंचिद-वाच्यमिति च स्यात् । तत्तु विप्रतिषिद्धमेव प्रसाध्यं चैतदनोकहवत् ।
यथा हि बहूनां बहुविधानामनोकहानामात्मीयस्यात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपा-स्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वं, सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिनानोकहत्वेनोत्थापित-मेकत्वं तिरियते । तथा बहूनां बहुविधानां द्रव्याणामात्मीयात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्व- रूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वं सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिना सदित्यस्य भावेनो-त्थापितमेकत्वं तिरियति ।
यथा च तेषामनोकहानां सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिनानोकहत्वेनोत्थापितेनैकत्वेन तिरोहितमपि विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वावष्टम्भेनोत्तिष्ठान्नानात्वमुच्चवाकास्ति, तथा सर्वद्रव्याणामपि सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिना सदित्यस्य भावेनोत्थापितेनैकत्वेन तिरोहितमपि विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तिवस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वमुच्चकास्ति ॥९७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
इस विश्व में,
- विचित्रता को विस्तारित करते हुए (विविधता-अनेकता को दिखाते हुए),
- अन्य द्रव्यों से १व्यावृत्त रहकर प्रवर्तमान, और
- प्रत्येक द्रव्य की सीमा को बाँधते हुए
- विचित्रता के विस्तार को अस्त करता हुआ,
- सर्व द्रव्यों में प्रवृत्त होकर रहने वाला, और
- प्रत्येक द्रव्य की बँधी हुई सीमा की अवगणना करता हुआ
जैसे
- बहुत से, अनेक प्रकार के वृक्षों को अपने अपने विशेष-लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले अनेकत्व को, सामान्य लक्षणभूत ४सादृश्य-दर्शक वृक्षत्व से उत्पन्न होने वाला एकत्व ५तिरोहित (अदृश्य) कर देता है, इसी प्रकार बहुत से, अनेक प्रकार के द्रव्यों को अपने-अपने विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले अनेकत्व को, सामान्य-लक्षणभूत सादृश्य-दर्शक सत्पने से ('सत्' ऐसे भाव से, अस्तित्व से, 'है' पने से) उत्पन्न होने वाला एकत्व तिरोहित कर देता है । और
- जैसे उन वृक्षों के विषय में सामान्य-लक्षणभूत सादृश्य-दर्शक वृक्षत्व से उत्पन्न होने वाले एकत्व से तिरोहित होने पर भी (अपने-अपने) विशेष-लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाला अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है, (बना रहता है, नष्ट नहीं होता); उसी प्रकार सर्व द्रव्यों के विषय में भी सामान्य-लक्षणभूत सादृश्य-दर्शक सत्-पने से उत्पन्न होने वाले एकत्व से तिरोहित होने पर भी (अपने-अपने) विशेष-लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाला अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है ।
(इस प्रकार सादृश्य अस्तित्व का निरूपण हुआ) ॥९७॥
१व्यावृत = पृथक्; अलग; भिन्न ।
२सर्वगत = सर्व में व्यापनेवाला ।
३परामर्श = स्पर्श; विचार; लक्ष; स्मरण ।
४सादृश्य = समानत्व ।
५तिरोहित = तिरोभूत; आच्छादित; अदृश्य ।