ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 98 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा । (98)
सिद्धं तध आगमदो णेच्छदि जो सो ही परसमओ ॥108॥
अर्थ:
द्रव्य स्वभाव से सिद्ध और सत् है- ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने तत्त्वरूप से- वास्तविक कहा है और वह आगम से सिद्ध है-जो ऐसा स्वीकार नहीं करता, वह वास्तव में परसमय है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ द्रव्यैर्द्रव्यान्तरस्यारम्भं द्रव्यादर्थान्तरत्वं च सत्तया: प्रतिहन्ति -
न खलु द्रव्यैर्द्रव्यान्तराणामारम्भ:, सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते । गुणपर्यायात्मानमात्मन: स्वभावमेव मूलसाधनमुपादाय स्वयमेव सिद्धसिद्धिमद्भूतं वर्तते ।
यत्तु द्रव्यैरारभ्यते न तद्द्रव्यान्तरं कादाचित्कत्वात् स पर्याय:; द्वयणुकादिवन्मनुष्यादिवच्च । द्रव्यं पुनरनवधि त्रिसमयावस्थायि न तथा स्यात् । अथैवं यथा सिद्धं स्वभावत एव द्रव्यं तथा सदित्यपि तत्स्वभावत एव सिद्धमित्य-वधार्यताम् । सत्तत्मनात्मन: स्वभावेन निष्पन्ननिष्पत्तिमद्भावयुक्तत्वात् । न च द्रव्यादर्थान्तरभूता सत्तेपपत्तिमभिप्रपद्यते, यतस्तत्समवायात्तत्सदिति स्यात् ।
सत: सत्तयाश्च न तावद्युतसिद्धत्वेनार्थान्तरत्वं, तयोर्दण्डदण्डिवद्युतसिद्धस्यादर्शनात् अयुतसिद्धत्वेनापि न तदुपपद्यते ।
इहेदमितिप्रतीतेरुत्पद्यत इति चेत् किंनिबन्धना हीदमिति प्रतीति: ।भेदनिबन्धनेति चेत् को नाम भेद: । प्रादेशिक अताद्भाविको वा । न तावत्प्रादेशिक:, पूर्वमेव युतसिद्धत्वस्यापसारणात् । अताद्भाविकश्चत उपपन्न एव यद्द्रव्यं तन्न गुण इति वचनात् । अयं तु न खल्वेकान्तेनेहेदमितिप्रतीतेर्निबन्धनं, स्वयमेवोन्मग्ननिमग्नत्वात् ।
तथाहि - यदैव पर्यायेणार्प्यते द्रव्यं तदैव गुणवदिदं द्रव्यमयमस्य गुण:, शुभ्रमिदमुत्तरीय- मयमस्य शुभ्रो गुण इत्यादिवदताद्भाविको भेद उन्मज्जति । यदा तु द्रव्येणार्प्यते द्रव्यं तदास्तमितसमस्तगुणवासनोन्मेषस्य तथाविधं द्रव्यमेव शुभ्रमुत्तरीयमित्यादिवत्प्रपश्यत: समूल एवा-ताद्भाविको भेदो निमज्जति । एवं हि भेदे निमज्जति तत्प्रत्यया प्रतीतिर्निमज्जति । तस्यां निमज्जत्यामयुतसिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वं निमज्जति । तत: समस्तमपि द्रव्यमेवैकं भूत्वावतिष्ठते । यदा तु भेद उन्मज्जति, तस्मिन्नुन्मज्जति तत्प्रत्यया प्रतीतिरुन्मज्जति । तस्यामुन्मज्जत्यामयुतसिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वमुन्मज्जति । तदापि तत्पर्यायत्वेनोन्मज्जज्जलराशेर्जलकल्लोल इव द्रव्यान्न व्यतिरिक्तं स्यात् ।
एवं सति स्वयमेव सद्द्रव्यं भवति । यस्त्वेवं नेच्छति स खलु परसमय एव द्रष्टव्य: ॥९८॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
वास्तव में द्रव्यों से द्रव्यान्तरों की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वभावसिद्ध हैं । (उनकी) स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादिनिधनता से है; क्योंकि १अनादिनिधन साधनान्तर की अपेक्षा नहीं रखता । वह गुण-पर्यायात्मक ऐसे अपने स्वभाव को ही -- जो कि मूल साधन है उसे धारण करके स्वयमेव सिद्ध हुआ वर्तता है ।
जो द्रव्यों से उत्पन्न होता है वह तो द्रव्यान्तर नहीं है, २कादाचित्कपने के कारण पर्याय है; जैसे -- द्विअणुक इत्यादि तथा मनुष्य इत्यादि । द्रव्य तो अनवधि (मर्यादा रहित) त्रिसमय—अवस्थायी (त्रिकालस्थायी) होने से उत्पन्न नहीं होता ।
अब इस प्रकार—जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है उसी प्रकार (वह) 'सत् है' ऐसा भी उसके स्वभाव से ही सिद्ध है, ऐसा निर्णय हो; क्योंकि सत्तात्मक ऐसे अपने स्वभाव से निष्पन्न हुए भाव वाला है (द्रव्य का ‘सत् है’ ऐसा भाव द्रव्य के सत्तास्वरूप स्वभाव का ही बना हुआ है) ।
द्रव्य से अर्थान्तरभूत सत्ता उत्पन्न नहीं है (नहीं बन सकती, योग्य नहीं है) कि जिसके समवाय से वह (द्रव्य) ‘सत्’ हो । (इसी को स्पष्ट समझाते हैं):—
प्रथम तो ३सत् से ४सत्ता की ५युतसिद्धता से अर्थान्तरत्व नहीं है, क्योंकि दण्ड और दण्डी की भांति उनके सम्बन्ध में युतसिद्धता दिखाई नहीं देती । (दूसरे) अयुतसिद्धता से भी वह (अर्थान्तरत्व) नहीं बनता । 'इसमें यह है (अर्थात् द्रव्य में सत्ता है)' ऐसी प्रतीति होती है इसलिये वह बन सकता है,—ऐसा कहा जाये तो (पूछते हैं कि) 'इसमें यह है' ऐसी प्रतीति किसके आश्रय (कारण) से होती है यदि ऐसा कहा जाये कि भेद के आश्रय से (अर्थात् द्रव्य और सत्ता में भेद होने से) होती है तो, वह कौनसा भेद है ? प्रादेशिक या अताद्भाविक ? ६प्रादेशिक तो है नहीं, क्योंकि युतसिद्धत्व पहले ही रद्द (नष्ट, निरर्थक) कर दिया गया है, और यदि ७अताद्भाविक कहा जाये तो वह उपपन्न ही (ठीक ही) है, क्योंकि ऐसा (शास्त्र का) वचन है कि 'जो द्रव्य है वह गुण नहीं है ।' परन्तु (यहाँ भी यह ध्यान में रखना कि) यह अताद्भाविक भेद 'एकान्त से इसमें यह है' ऐसी प्रतीति का आश्रय (कारण) नहीं है, क्योंकि वह (अताद्भाविक भेद) स्वयमेव ८उन्मग्न और ९निमग्न होता है । वह इस प्रकार है :-
- जब द्रव्य को पर्याय प्राप्त कराई जाये (अर्थात् जब द्रव्य को पर्याय प्राप्त करती है -- पहुँचती है इस प्रकार पर्यायार्थिकनय से देखा जाये) तब ही - 'शुक्ल यह वस्त्र है, यह इसका शुक्लत्व गुण है' इत्यादि की भाँति - 'गुण वाला यह द्रव्य है, यह इसका गुण है' इस प्रकार अताद्भाविक भेद उन्मग्न होता है; परन्तु
- जब द्रव्य को द्रव्य प्राप्त कराया जाये (अर्थात् द्रव्य को द्रव्य प्राप्त करता है;—पहुँचता है इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय से देखा जाये), तब जिसके समस्त १०गुणवासना के उन्मेष अस्त हो गये हैं ऐसे उस जीव को - 'शुक्ल वस्त्र ही है' इत्यादि की भाँति - 'ऐसा द्रव्य ही है' इस प्रकार देखने पर समूल ही अताद्भाविक भेद निमग्न होता है । इस प्रकार भेद के निमग्न होने पर
- उसके आश्रय से (कारण से) होती हुई प्रतीति निमग्न होती है ।
- उसके निमग्न होने पर अयुतसिद्धत्व-जनित अर्थान्तरपना निमग्न होता है
- जब भेद उन्मग्न होता है, वह उन्मग्न होने पर
- उसके आश्रय (कारण) से होती हुई प्रतीति उन्मग्न होती है,
- उसके उन्मग्न होने पर अयुतसिद्धत्व-जनित अर्थान्तरपना उन्मग्न होता है,
१अनादिनिधन = आदि और अन्त से रहित । (जो अनादि-अनन्त हो उसकी सिद्धि के लिये अन्य साधन की आवश्यकता नहीं है) ।
२कादाचित्क = कदाचित्-किसीसमय हो ऐसा; अनित्य ।
३सत् = अस्तित्ववान - अर्थात् द्रव्य ।
४सत्ता = अस्तित्व (गुण) ।
५युतसिद्ध = जुड़कर सिद्ध हुआ; समवाय से-संयोग से सिद्ध हुआ । (जैसे लाठी और मनुष्य के भिन्न होने पर भी लाठी के योग से मनुष्य 'लाठीवाला' होता है, इसीप्रकार सत्ता और द्रव्य के अलग होने पर भी सत्ता के योग से द्रव्य 'सत्तावाला' (सत्) हुआ है ऐसा नहीं है । लाठी और मनुष्य की भाँति सत्ता और द्रव्य अलग दिखाई ही नहीं देते । इसप्रकार 'लाठी' और 'लाठीवाले' की भाँति 'सत्ता' और 'सत्' के सम्बन्ध में युतसिद्धता नहीं है ।
६द्रव्य और सत्ता में प्रदेश-भेद नहीं है; क्योंकि प्रदेश-भेद हो तो युतसिद्धत्व आये, जिसको पहले ही रद्द करके बताया है ।
७द्रव्य वह गुण नहीं है और गुण वह द्रव्य नहीं है, - ऐसे द्रव्य-गुण के भेद को (गुण-गुणी- भेद को) अताद्भाविक (तद्रूप न होनेरूप) भेद कहते हैं । यदि द्रव्य और सत्ता में ऐसा भेद कहा जाय तो वह योग्य ही है ।
८उन्मग्न होना = ऊपर आना; तैर आना; प्रकट होना (मुख्य होना) ।
९निमग्न होना = डूब जाना (गौण होना) ।
१०गुण-वासना के उन्मेष = द्रव्य में अनेक गुण होने के अभिप्राय की प्रगटता; गुण-भेद होने-रूप मनो-वृत्ति के (अभिप्राय के) अंकुर ।