ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 99 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो । (99)
अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो ॥109॥
अर्थ:
स्व भाव में स्थित द्रव्य सत् है, वास्तव में द्रव्य का जो उत्पाद-व्यय-धौव्य सहित परिणाम है-वह पदार्थों का स्वभाव है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वेऽपि सद्द्रव्यं भवतीति विभावयति -
इह हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति द्रव्यम् । स्वभावस्तु द्रव्यस्य ध्रौव्योत्पादो-च्छेदैक्यात्मकपरिणाम: ।
यथैव हि द्रव्यवास्तुन: सामस्त्येनैकस्यापि विष्कम्भक्रमप्रवृत्तिवर्तिन: सूक्ष्मांशा: प्रदेशा:, तथैव हि द्रव्यवृत्ते: सामस्त्येनैकस्यापि प्रवाहक्रमप्रवृत्तिवर्त्तिन: सूक्ष्मांशा: परिणामा: ।
यथा च प्रदेशानां परस्परव्यतिरेकनिबन्धनो विष्कम्भक्रम:, तथा परिणामानां परस्पर-व्यतिरेकनिबन्धन: प्रवाहक्रम: ।
यथैव च ते प्रदेशा: स्वस्थाने स्वरूपपूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छन्नवात्सर्वत्र परस्परानुस्यूति- सूत्रितैकवास्तुतयानुत्पन्नप्रलीनत्वाच्चसंभूतिसंहारध्रौव्यात्मकमात्मान धारयन्ति; तथैव ते परिणामा: स्वावसरे स्वरूपपूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छन्नत्वात्सर्वत्र परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकप्रवाह-तयानुत्पन्नप्रलीनत्वाच्च संभूतिसंहारध्रौव्यात्मकमात्मानं धारयन्ति ।
यथैव च य एव हि पूर्वप्रदेशोच्छेदनात्मको वास्तुसीमान्त:, स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मक:, स एव च परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकवास्तुतयातदुभयात्मक इति; तथैव य एव हि पूर्व-परिणामोच्छेदात्मक: प्रवाहसीमान्त:, स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मक:, स एव च परस्परा-नुस्यूतिसूत्रितैकप्रवाहतयातदुभयात्मक इति एवमस्य स्वभावत एव त्रिलक्षणायां परिणामपद्धतौ दुर्ललितस्य स्वभावानतिक्रमात्त्रिलक्षणमेव सत्त्वमनुमोदनीयम्, मुक्ताफलदामवत् ।
यथैव हि परिगृहीतद्राघाम्न्नि प्रलम्बमाने मुक्ताफलदामनि समस्तेष्वपि स्वधामसूच्चका- सत्सु मुक्ताफलेषूत्तरोत्तरेषु धामसूत्तरोत्तरमुक्ताफलानामुदयनात्पूर्वमुक्ताफलानामनुदयनात् सर्व-त्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य सूत्रकस्यावस्थानात्त्रैलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति; तथैव हि परि- गृहीतनित्यवृत्तिनिवर्तमाने द्रव्ये समस्तेष्वपि स्वावसरेषूच्चकासत्सु परिणामेषूत्तरोत्तरेष्ववसरेषू- त्तरोत्तरपरिणामानामुदयनात्पूर्वपूर्वपरिणामानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य प्रवाहस्यावस्थानात्त्रैलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति ॥९९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
यहाँ (विश्व में) स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से द्रव्य 'सत्' है । स्वभाव द्रव्य का ध्रौव्य-उत्पाद-विनाश की एकतास्वरूप परिणाम है ।
- जैसे १द्रव्य का वास्तु समग्रपने द्वारा (अखण्डता से) एक होने पर भी, विस्तार-क्रम में प्रवर्तमान उसके जो सूक्ष्म-अंश हैं वे प्रदेश हैं,
- इसी प्रकार द्रव्य की २वृत्ति समग्रपने द्वारा एक होने पर भी, प्रवाह-क्रम में प्रवर्तमान उसके जो सूक्ष्म-अंश हैं वे परिणाम है ।
- जैसे वे प्रदेश अपने स्थान में स्व-रूप से उत्पन्न और पूर्व-रूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर ४अनुस्यूति से रचित एक-वास्तुपने द्वारा अनुत्पन्न-अविनष्ट होने से उत्पत्ति-संहार-ध्रौव्यात्मक हैं,
- उसी प्रकार वे परिणाम अपने अवसर में स्वरूप से उत्पन्न और पूर्वरूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एक प्रवाहपने द्वारा अनुत्पन्न-अविनष्ट होने से उत्पत्ति-संहार-ध्रौव्यात्मक हैं ।
- जैसे वास्तु का जो छोटे से छोटा अंश पूर्वप्रदेश के विनाश स्वरूप है वही (अंश) उसके बाद के प्रदेश का उत्पाद स्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एक वास्तुपने द्वारा अनुभय स्वरूप है (अर्थात् दो में से एक भी स्वरूप नहीं है),
- इसी प्रकार प्रवाह का जो छोटे से छोटा अंश पूर्व परिणाम के विनाश स्वरूप है वही उसके बाद के परिणाम के उत्पाद स्वरूप है, तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एकप्रवाहपने द्वारा अनुभयस्वरूप है ।
जैसे — जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐसे लटकते हुये मोतियों के हार में, अपने-अपने स्थानों में प्रकाशित होते हुये समस्त मोतियों में, पीछे-पीछे के स्थानों में पीछे-पीछे के मोती प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले-पहले के मोती प्रगट नहीं होते इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति का रचयिता सूत्र अवस्थित होने से त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धि को प्राप्त होता है । इसी प्रकार जिसने ९नित्यवृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिणमित) द्रव्य में अपने अपने अवसरों में प्रकाशित (प्रगट) होते हुये समस्त परिणामों में पीछे-पीछे के अवसरों पर पीछे पीछे के परिणाम प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले-पहले के परिणाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचने वाला प्रवाह अवस्थित होने से त्रिलक्षणपना प्रसिद्धि को प्राप्त होता है ॥९९॥
१द्रव्य का वास्तु = द्रव्य का स्व-विस्तार, द्रव्य का स्व-क्षेत्र, द्रव्य का स्व-आकार, द्रव्य का स्व-दल । (वास्तु = घर, निवास-स्थान, आश्रय, भूमि) ।
२वृत्ति = वर्तना वह; होना वह; अस्तित्व ।
३व्यतिरेक = भेद; (एक का दूसरे में) अभाव, (एक परिणाम दूसरे परिणाम-रूप नहीं है, इसलिये द्रव्य के प्रवाह में क्रम है) ।
४अनुस्यूति = अन्वय-पूर्वक जुडान । (सर्व परिणाम परस्पर अन्वय-पूर्वक (सादृश्य सहित) गुंथित (जुड़े) होने से, वे सब परिणाम एक प्रवाह-रूप से हैं, इसलिये वे उत्पन्न या विनष्ट नहीं हैं ।
५अतिक्रम = उल्लंघन; त्याग ।
६सत्त्व = सत्पना; (अभेद-नय से) द्रव्य ।
७त्रिलक्षण = उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों लक्षणवाला; त्रिस्वरूप; त्रयात्मक ।
८अनुमोदना = आनंद में सम्मत करना ।
९नित्यवृत्ति = नित्यस्थायित्व; नित्य अस्तित्व; सदा वर्तना ।