ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 118
From जैनकोष
एक सौ अठारहवां पर्व
अथानंतर सुग्रीव आदि राजाओं ने कहा कि हे देव ! हम लोग चिता बनाते हैं सो उस पर राजा लक्ष्मीधर के शरीर को संस्कार प्राप्त कराइए ॥1।। इसके उत्तर में कुपित होकर रामने कहा कि चिता पर माताओं, पिताओं और पितामहों के साथ आप लोग ही जलें ॥2॥ अथवा पाप पूर्ण विचार रखने वाले आप लोगों का जो भी कोई इष्ट बंधु हो उसके साथ आप लोग ही शीघ्र मृत्यु को प्राप्त हों ॥3॥ इस प्रकार अन्य सब राजाओं को उत्तर देकर वे लक्ष्मण के प्रति बोले कि भाई लक्ष्मण ! उठो, उठो, चलो दूसरे स्थान पर चलें। जहाँ दुष्टों के ऐसे वचन नहीं सुनने पड़ें ॥4॥ इतना कहकर वे शीघ्र ही भाई का शरीर उठाने लगे तब घबड़ाये हुए राजाओं ने उन्हें पीठ तथा कंधा आदिका सहारा दिया ॥5॥ राम, उन सबका विश्वास नहीं रखते थे इसलिए स्वयं अकेले ही लक्ष्मण को लेकर उस तरह दूसरे स्थानपर चले गये जिस तरह कि बालक विषफल को लेकर चला जाता है ॥6॥ वहाँ वे नेत्रों में आँसू भरकर कहे कि भाई ! इतनी देर क्यों सोते हो ? उठो, समय हो गया, स्नान-भूमि में चलो ।।7।। इतना कहकर उन्होंने मृत लक्ष्मण को आश्रयसहित (टिकने के उपकरण से सहित) स्नान की चौकी पर बैठा दिया और स्वयं महामोह से युक्त हो सुवर्ण कलश में रक्खे जलसे चिरकाल उसका अभिषेक करते रहे ॥8॥ तदनंतर मुकुट आदि समस्त आभूषणों से अलंकृत कर, भोजन-गृह के अधिकारियों को शीघ्र ही आज्ञा दिलाई कि नाना रत्नमय एवं स्वर्णमय पात्र इकट्ठे कर उनमें उत्तम भोजन लाया जाय ।।9-10॥ उत्तम एवं स्वच्छ मदिरा लाई जाय तथा रस से भरे हुए नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन उपस्थित किये जावें। इस प्रकार आज्ञा पाकर स्वामी की इच्छानुसार काम करने वाले सेवकों ने आदरपूर्वक सब सामग्री लाकर रख दी ॥11-12॥
तदनंतर राम ने लक्ष्मण के मुख के भीतर भोजन का ग्रास रक्खा। पर वह उस तरह भीतर प्रविष्ट नहीं हो सका, जिस तरह कि जिनेंद्र भगवान का वचन अभव्य के कान में प्रविष्ट नहीं होता है ॥13॥ तत्पश्चात् राम ने कहा कि हे देव ! तुम्हारा मुझ पर क्रोध है तो यहाँ अमृत के समान स्वादिष्ट इस भोजन ने क्या बिगाड़ा? इसे तो ग्रहण करो ॥14॥ हेलदमोधर! तुम्हें यह उत्तम मदिरा निरंतर प्रिय रहती थी सो खिले हुए नील कमल से सुशोभित पान पात्र में रखी हुई इस मदिरा को पिओ ॥15॥ ऐसा कहकर उन्होंने बड़े आदर के साथ वह मदिरा उनके मुख में रख दी पर वह सुंदर मदिरा निश्चेतन मुख में कैसे प्रवेश करती ॥16॥ इस प्रकार जिनकी आत्मा स्नेह से मूढ़ थी तथा जो वैराग्य से रहित थे ऐसे रामने जीवित दशा के समान लक्ष्मण के विषय में व्यर्थ ही समस्त क्रियाएँ कीं ॥17॥ यद्यपि लक्ष्मण निष्प्राण हो चुके थे तथापि राम ने उनके आगे वीणा बाँसुरी आदि के शब्दों से सहित सुंदर संगीत कराया ॥18॥ तदनंतर जिसका शरीर चंदन से चर्चित था ऐसे लक्ष्मण को बड़ी इच्छा के साथ दोनों भुजाओं से उठाकर राम ने अपनी गोद में रख लिया और उनके मस्तक कपोल तथा हाथ का बार-बार चुंबन किया ॥19॥ वे उनसे कहते कि हे लक्ष्मण, तुझे यह ऐसा हो क्या गया जिससे तू नींद नहीं छोड़ता, एक बार तो बता ॥20॥ इस प्रकार महामोह से संबद्ध कर्म का उदय आने पर स्नेह रूपी पिशाच से आक्रांत राम जब तक यहाँ यह चेष्टा करते हैं तब तक वहाँ यह वृत्तांत जान शत्रु उस तरह क्षोभ को प्राप्त हो गये जिस तरह कि परम तेज अर्थात् सूर्य को आच्छादित करने के लिए गरजते हुए काले मेघ ।।21-22।। जिनके अभिप्राय में बहुत दूर तक विरोध समाया हुआ था तथा जो अत्यधिक क्रोध से सहित थे ऐसे शत्रु, शंबूक के भाई सुंद के पुत्र चारुरत्न के पास गये और चारुरत्न उन सबको साथ ले इंद्रजित के पुत्र वनमाली के पास गया ॥23॥ उसे उत्तेजित करता हुआ चारुरत्न बोला कि लक्ष्मण ने हमारे काका और बाबा दोनों को मारकर पाताल लंका के राज्य पर विराधित को स्थापित किया ॥24॥ तदनंतर वानर वंशियों की सेना को हर्षित करने के लिए चंद्रमा स्वरूप एवं भाई के समान हितकारी सुग्रीव को पाकर विरह से पीड़ित रामने अपनी स्त्री सीता का समाचार प्राप्त किया ॥25॥ तत्पश्चात् लंका को जीतने के लिए युद्ध करने के इच्छुक राम ने विद्याधरों के साथ विमानों द्वारा समुद्र को लाँघकर अनेक द्वीप नष्ट किये ॥26॥ राम-लक्ष्मण को सिंहवाहिनी एवं गरुडवाहिनी नामक विद्याएँ प्राप्त हुई। उनके प्रभाव से उन्होंने इंद्रजित आदि को बंदी बनाया ॥27॥ तथा जिस लक्ष्मण ने चक्र रत्न पाकर रावण को मारा था इस समय वही लक्ष्मण काल के चक्र से मारा गया है ॥28॥ उसकी भुजाओं की छाया पाकर वानरवंशी उन्मत्त हो रहे थे पर इस समय वे पक्ष कट जाने से अत्यंत आक्रमण के योग्य अवस्था को प्राप्त हुए हैं। शोक को प्राप्त हुए राम को आज बारहवाँ पक्ष है वे लक्ष्मण के मृतक शरीर को लिये फिरते हैं अतः कोई विचित्र प्रकार का मोह― पागलपन उन पर सवार है ॥29-30॥ यद्यपि हल-मूसल आदि शस्त्रों को धारण करने वाले राम अपनी सानी नहीं रखते तथापि इस समय शोकरूपी पंक में फंसे होने के कारण उन पर आक्रमण करना शक्य है ॥31॥ यदि हम लोग डरते हैं तो एक उन्हीं से डरते हैं और किसी से नहीं जिनके कि छोटे भाई लक्ष्मण ने हमारे वश को सब संगति नष्ट कर दी ।।32।।
अथानंतर इंद्रजित का पुत्र वनमाली अपने विशाल वंश पर उत्पन्न पूर्व संकट को सुनकर क्षुभित हो उठा और प्रसिद्ध मार्ग से प्रज्वलित होने लगा अर्थात् क्षत्रिय कुल प्रसिद्ध तेज से दमकने लगा ॥33॥ वह मंत्रियों को आज्ञा दे तथा भेरी के द्वारा सब लोगों को युद्ध में इकट्ठा कर सुंद पुत्र चारुरत्न के साथ अयोध्या की ओर चला ॥34।। जो सेना रूपी समुद्र से सुरक्षित थे तथा सुग्रीव के प्रति जिनका क्रोध उमड़ रहा था ऐसे वे दोनों― वज्रमाली और चारुरत्न, राम को कुपित करने के लिए उद्यत हो उनकी ओर चले ॥35॥ चारुरत्न के साथ वनमाली को आया सुन सब विद्याधर राजा रामचंद्र के पास आये ॥36॥ उस समय अयोध्या किंकर्तव्यमूढ़ता को प्राप्त हो सब ओर से क्षुभित हो उठी तथा जिस प्रकार लवणांकुश के आने पर भय से काँपने लगी थी उसी प्रकार भय से काँपने लगी ॥37॥ अनुपम पराक्रम को धारण करने वाले राम ने जब शत्रुसेना को निकट देखा तब वे मृत लक्ष्मण को गोद में रख बाणों के साथ लाये हुए उस वज्रावर्त नामक महाधनुष की ओर देखने लगे कि जो अपने स्वभाव में स्थित था तथा यमराज को भ्रकुटि रूपी लता के समान कुटिल था ॥ 38-39॥
इसी समय स्वर्ग में कृतांतवक्त्र सेनापति तथा जटायु पक्षी के जीव जो देव हुए थे उनके आसन कंपायमान हुए ॥40॥ जिस विमान में जटायु का जीव उत्तम देव हुआ था उसी विमान में कृतांतवक्त्र भी उसी के समान वैभव का धारी देव हुआ था ॥41॥ कृतांतवक्त्र के जीव ने जटायु के जीव से कहा कि हे देवराज ! आज इस क्रोध को क्यों प्राप्त हुए हो? इसके उत्तर में अवधिज्ञान को जोड़ने वाले जटायु के जीव ने कहा कि जब मैं गृध्र पर्याय में था तब, जिसने प्रिय पुत्र के समान मेरा लालन-पालन किया था आज उसके संमुख शत्रु की बड़ी भारी सेना आ रही है और वह स्वयं भाई के मरण से शोक-संतप्त है ।।42-43।। तदनंतर कृतांतवक्त्र के जीव ने भी अवधिज्ञान रूपी लोचन का प्रयोग कर नीचे होने वाले अत्यधिक दुःख से दुःखी तथा क्रोध से देदीप्यमान होते हुए कहा कि मित्र, सच है वह हमारा भी स्नेही स्वामी रहा है । इसके प्रसाद से मैंने पृथिवीतल पर अनेक दुर्दांत चेष्टाएँ की थीं ॥44-45॥ इसने मुझसे कहा भी था कि संकट से मुझे छुड़ाना । आज वह संकट इसे प्राप्त हुआ है इसलिए आओ शीघ्र ही इसके पास चलें ॥46॥
इतना कहकर जिनके काले-काले केश तथा कुंतलों का समूह हिल रहा था, जिनके मुकुटों का कांति चक्र देदीप्यमान हो रहा था, जिनके मणिमय कुंडल सुशोभित थे, जो परम उद्योगी थे तथा शत्रुका पक्ष नष्ट करने में निपुण थे ऐसे वे दोनों श्रीमान् देव, माहेंद्र स्वर्ग से अयोध्या की ओर चले ॥47-48॥ कृतांतवक्त्र के जीवने जटायु के जीव से कहा कि तुम तो जाकर शत्रु सेना को मोहित करो― उसकी बुद्धि भ्रष्ट करो और मैं राम की रक्षा करने के लिए जाता हूँ ॥49॥ तदनंतर इच्छानुसार रूप परिवर्तित करने वाले बुद्धिमान जटायु के जीवने शत्रु को उस बड़ी भारी सेना को मोहयुक्त कर दिया― भ्रम में डाल दिया ॥50॥ 'यह अयोध्या दिख रही है। ऐसा सोचकर जो शत्रु उसके समीप आ रहे थे उस देव ने माया से उनके आगे और पीछे बड़े-बड़े पर्वत दिखलाये । तदनंतर अयोध्या के निकट खड़े होकर उसने शत्रु विद्याधरों की समस्त सेना का निराकरण किया और पृथिवी तथा आकाश दोनों को अयोध्या नगरियों से अविरल व्याप्त करना शुरू किया ॥51-52॥ जिससे 'यह अयोध्या है, यह विनीता है, यह कोशलापुरी है, इस तरह वहाँ की समस्त भूमि और आकाश अयोध्या नगरियों से तन्मय हो गया ॥53।। इस प्रकार पृथिवी और आकाश दोनों को अयोध्याओं से व्याप्त देखकर शत्रुओं की वह सेना अभिमान से रहित हो आपत्ति में पड़ गई ॥54॥ सेना के लोग परस्पर कहने लगे कि जहाँ यह राम नाम का कोई अद्भुत देव विद्यमान है वहाँ अब हम अपने प्राण किस तरह धारण करें― जीवित कैसे रहे ? ॥55॥ विद्याधरों की ऋद्धियों में ऐसी विक्रिया शक्ति कहाँ से आई ? बिना विचारे काम करने वाले हम लोगों ने यह क्या किया ? ॥56।। जिसकी हजार किरणों से व्याप्त हुआ जगत् सब ओर से देदीप्यमान हो रहा है, बहुत से जुगनूँ विरुद्ध होकर भी उस सूर्य का क्या कर सकते हैं ? ॥57।। जबकि यह भयंकर सेना समस्त जगत् में व्याप्त हो रही है तब हे सखे ! हम भागना भी चाहें तो भी भागने के लिए मार्ग नहीं है ।।58।। मरने में कोई बड़ा लाभ नहीं है क्योंकि जीवित रहने वाला मनुष्य कदाचित् अपने कर्मों के उदयवश कल्याण को प्राप्त हो जाता है ॥59॥ यदि हम इन सैनिक रूपी तरंगों के द्वारा बबूलों के समान नाश को भी प्राप्त हो गये तो उससे क्या मिल जायगा ? ॥60॥ इस प्रकार जो परस्पर वार्तालाप कर रही थी तथा जिसे अत्यधिक कँपकँपी छूट रही थी ऐसी वह विद्याधरों की समस्त सेना अत्यंत विह्वल हो गई ॥61॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! तदनंतर जटायु के जीव ने इस तरह विक्रिया द्वारा क्रीड़ा कर दयापूर्वक उन विद्याधर शत्रुओं को दक्षिण दिशा की ओर भागने का मार्ग दे दिया ॥62॥ इस प्रकार जिनके चित्त चंचल थे तथा जिनके शरीर काँप रहे थे ऐसे वे सब विद्याधर बाज से डरे पक्षियों के समान बड़े वेग से भागे ॥63॥
अब आगे विभीषण के लिए क्या उत्तर देंगे ? इस समय जिनकी आत्मा एक दम दीन हो रही है ऐसे हम लोगों की क्या शोभा है ? ॥64॥ हम अपने ही लोगों को क्या कांति लेकर मुख दिखावेंगे? हम लोगों को धैर्य कहाँ हो सकता है ? अथवा जीवित रहने की इच्छा ही हम लोगों को कहाँ हो सकती है ? ॥65॥ ऐसा निश्चय कर उनमें जो इंद्रजित का पुत्र ब्रजमाली था वह लज्जा से युक्त हो गया। यतश्च वह देवों का प्रभाव देख चुका था अतः उसे अपने ऐश्वर्य में वैराग्य उत्पन्न हो गया। फल स्वरूप वह सुंद के पुत्र चारुरत्न तथा अन्य स्नेही जनों के साथ, क्रोध छोड़ रतिवेग नामक मुनि के पास साधु हो गया ॥66-67। भयभीत करने के लिए जटायु का जीव देव, विद्युत्प्रकाश नामक शस्त्र लेकर उन सबको दक्षिण को ओर खदेड़ रहा था सो उन सब राजाओं को नग्न तथा क्रोधरहित देख उसने अपना विद्युत्प्रहार नामक शस्त्र संकुचित कर लिया ॥68।। उद्विग्न चित्त का धारी वह देव अवधिज्ञान का प्रयोग कर विचार करने लगा कि अहो ! ये सब तो प्रतिबोध को प्राप्त हो परम ऋषि हो गये हैं ॥69।। उस समय (राजा दंडक की पर्याय में ) मैंने निर्दोष आत्मा के धारी साधुओं को दोष दिया था ― घानी में पिलवाया था सो उसके फल स्वरूप तिर्यंचों और नरकों में मैंने बहुत भारी दुःख उठाया है। तथा अब भी उसी दुष्ट शत्रु का संस्कार भोग रहा हूँ परंतु वह संस्कार इतना थोड़ा रह गया है कि उसके निमित्त से पुनः दीर्घ संसार में भ्रमण नहीं करना पड़ेगा ।।70-71॥ ऐसा विचार कर उस बुद्धिमान् ने शांत हो अपने आपका परिचय दिया और भक्तिपूर्वक प्रणाम कर उन मुनियों से क्षमा माँगी ।।72॥
तदनंतर इतना सब कर, वह अयोध्या में वहाँ पहुँचा जहाँ भाई के शोक से मोहित हो राम बालक के समान चेष्टा कर रहे थे ॥73॥ वहाँ उसने बड़े आदर से देखा कि कृतांतवक्त्र का जीव राम को समझाने के लिए वेष बदलकर एक सूखे वृक्ष को सींच रहा है ।।74।। यह देख जटायु का जीव भी दो मृतक बैलों के शरीर पर हल रखकर परेना हाथ में लिये शिलातल पर बीज बोने का उद्यम करने लगा ॥75।। कुछ समय बाद कृतांतवक्त्र का जीव राम के आगे जल से भरी मटकी को मथने लगा और जटायु का जीव घानी में बालू डाल पेलने लगा ।।76।। इस प्रकार इन्हें आदि लेकर और भी दूसरे-दूसरे निरर्थक कार्य इन दोनों देवों ने राम के आगे किये। तदनंतर राम ने यथाक्रम से उनके पास जाकर पूछा कि अरे मूर्ख ! इस मृत वृक्ष को क्यों सींच रहा है कलेवर पर हल क्यों रक्खे हुए हैं ?, पत्थर पर बीज क्यों बरबाद करता है ? पानी के मथने में मक्खन की प्राप्ति कैसे होगी ? और रे बालक ! बालू के पेलने से क्या कहीं तेल उत्पन्न होता है ? इन सब कार्यों में केवल परिश्रम ही हाथ रहता है इच्छित फल तो परमाणु बराबर भी नहीं मिलता फिर यह व्यर्थ की चेष्टा क्यों प्रारंभ कर रक्खी है ॥77-80॥
तदनंतर क्रम से उन दोनों देवों ने कहा कि हम भी एक यथार्थ बात आपसे पूछते हैं कि आप इस जीवरहित शरीर को व्यर्थ ही क्यों धारण कर रहे हैं ? ॥81।। तब जिनका मन कलुषित हो रहा था ऐसे श्री रामदेव ने उत्तम लक्षणों के धारक लक्ष्मण के शरीर का भुजाओं से आलिंगन कर कहा कि अरे अरे ! तुम पुरुषोत्तम लक्ष्मण की बुराई क्यों करते हो ? ऐसे अमांगलिक शब्द के कहने में क्या तुम्हें दोष नहीं लगता ? ॥82-83॥ इस प्रकार जब तक राम का कृतांतवक्त्र के जीव के साथ उक्त विवाद चल रहा था तब तक जटायु का जीव एक मृतक मनुष्य का शरीर लिये हुए वहाँ आ पहुँचा ।।84।। उसे सामने खड़ा देख रामने उससे पूछा कि तु मोह युक्त हुआ इस मृत शरीर को कंधे पर क्यों रक्खे हुए है ? ॥85॥ इसके उत्तर में जटायु के जीव ने कहा कि तुम विद्वान् होकर भी हमसे पूछते हो पर स्वयं अपने आपसे क्यों नहीं पूछते जो श्वासोच्छास तथा नेत्रों की टिमकार आदि से रहित शरीर को धारण कर रहे हो ॥86॥ दूसरे के तो बाल के अग्रभाग बराबर सूक्ष्म दोष को जल्दी से देख लेते हो पर अपने मेरु के शिखर बराबर बड़े-बड़े दोषों को भी नहीं देखते हो ? ।।87।। आपको देखकर हम लोगों को बड़ा प्रेम उत्पन्न हुआ क्यों कि यह सूक्ति भी है कि सदृश प्राणी अपने ही सदृश प्राणी में अनुराग करते हैं ॥88॥ इच्छानुसार कार्य करने वाले हम सब पिशाचों के आप सर्वप्रथम मनोनीत राजा हैं ॥89॥ हम उन्मत्तों के राजा की ध्वजा लेकर समस्त पृथिवी में घूमते फिरते हैं और उन्मत्त तथा प्रतिकूल खड़ी समस्त पृथिवी को अपने अनुकूल करने जाते हैं ।।90॥ इस प्रकार देवों के वचनों का आलंबन पाकर राम का मोह शिथिल हो गया और वे गुरुओं के वचनों का स्मरण कर अपनी मूर्खता पर लज्जित हो उठे ।।91।। उस समय जिनका मोहरूपी मेघ-समूह का आवरण दूर हो गया था ऐसे राजा रामचंद्र रूपी चंद्रमा प्रतिबोधरूपी किरणों से अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥92॥ उस समय धैर्य गुण से सहित राम का मन मेघ-रूपी कीचड़ से रहित शरद् ऋतु के आकाश के समान निर्मल हो गया था ।।93।। स्मरण में आये तथा अमृत से निर्मित की तरह मधुर गुरुओं के वचनों से जिनका शोक हर लिया गया था ऐसे राम उस समय उस तरह अत्यधिक सुशोभित हुए थे जिस तरह कि पहले पुत्रों के मिलाप-संबंधी सुख को धारण करते हुए सुशोभित हुए थे ॥94।। उस समय उन्हीं गुरुओं के वचनों से जिन्होंने धैर्य धारण किया था ऐसे पुरुषोत्तम राम, जिनेंद्र भगवान् के जन्माभिषेक के जल से मेघ के समान कांति को प्राप्त हुए थे ॥95॥ जिनकी आत्मा विशुद्ध थी तथा अभिप्राय कलुषता से रहित था ऐसे राम उस समय तुषार की वायु से रहित कमल वन के समान आह्लाद से युक्त थे ।।96।। उस समय उन्हें ऐसा हर्ष हो रहा था मानो महान् गाढ़ अंधकार में भूला व्यक्ति सूर्य के उदय को प्राप्त हो गया हो, अथवा तीव्र क्षुधा से पीड़ित व्यक्ति इच्छानुकूल उत्तम भोजन को प्राप्त हुआ हो ॥97॥ अथवा तीव्र प्यास से ग्रस्त मनुष्य किसी महासरोवर को प्राप्त हुआ हो अथवा अत्यधिक रोग से पीड़ित मनुष्य महौषधि को प्राप्त हो गया हो ॥98॥ अथवा महासागर को पार करने के लिए इच्छुक मनुष्य को जहाज मिल गई हो अथवा कुमार्ग में पड़ा नागरिक सुमार्ग में आ गया हो ॥99॥ अथवा अपने देश को जाने के लिए इच्छुक मनुष्य व्यापारियों के किसी महासंघ में आ मिला हो अथवा कारागृह से निकलने के लिए इच्छुक मनुष्य का मजबूत अर्गल टूट गया हो ॥100।। जिन मार्ग का स्मरण पाकर राम हर्ष से खिल उठे और फूले हुए कमल के समान नेत्रों को धारण करते हुए परम कांति को धारण करने लगे ॥101॥ उन्होंने मनमें ऐसा विचार किया कि जैसे मैं अंधकूप के मध्य से निकल कर बाहर आया हूँ अथवा दूसरे ही भव को प्राप्त हुआ हूँ ।।102।। वे विचार करने लगे कि अहो, तृण के अग्रभाग पर स्थित जल की बूंदों के समान चंचल यह मनुष्य का जीवन क्षणभर में नष्ट हो जाता है ॥103।। चतुर्गति रूप संसार के बीच भ्रमण करते हुए मैंने बड़ी कठिनाई से मनुष्य-शरीर पाया है फिर व्यर्थ ही क्यों मूर्ख बन रहा हूँ ? ।।104॥ ये इष्ट स्त्रियाँ किसकी हैं ? ये धन, वैभव किसके हैं ? और ये भाई-बांधव किसके हैं ? संसार में ये सब सुलभ हैं परंतु एक बोधि ही अत्यंत दुर्लभ है ।।105॥
इस प्रकार श्री राम को प्रबुद्ध जान कर उक्त दोनों देवों ने अपनी माया समेट ली तथा लोगों को आश्चर्य में डालने वाली देवों की विभूति प्रकट की ॥106॥ सुखकर स्पर्श से सहित तथा सुगंधि से भरी हुई अपूर्व वायु बहने लगी और आकाश अत्यंत सुंदर वाहनों और विमानों से व्याप्त हो गया ॥107॥ देवांगनाओं द्वारा वीणा के मधुर शब्द के साथ गाया हुआ अपना क्रम पूर्ण चरित श्री रामने सुना ॥108।। इसी बीच में कृतांतवक्त्र के जीव ने जटायु के जीव के साथ मिलकर श्री राम से पूछा कि हे नाथ ! क्या ये दिन सुख से व्यतीत हुए ? देवों के ऐसा पूछने पर राजा रामचंद्र ने उत्तर दिया कि मेरा सुख क्या पूछते हो ? समस्त सुख तो उन्हीं को प्राप्त है जो मुनि पद को प्राप्त हो चुके हैं ॥109-110।। मैं आपसे पूछता हूँ कि सौम्य दर्शन वाले आप दोनों कौन हैं ? और किस कारण आप लोगों ने ऐसी चेष्टा की ? ॥111॥ तदनंतर जटायु के जीव देव ने कहा कि हे राजन् ! जानते हैं आप, जब मैं वन में गीध था और मुनिराज के दर्शन से शांति को प्राप्त हुआ था ।।112॥ वहाँ आपने भाई लक्ष्मण और देवी-सीता के साथ मेरा लालन-पालन किया था । सीता हरी गई थी और उसमें मैं रुकावट डालने वाला था अतः रावण के द्वारा मारा गया था ॥113॥ हे प्रभो ! उस समय शोक से विह्वल होकर आपने मेरे कान में पंच परमेष्ठियों से संबंध रखने वाला पंच नमस्कार मंत्र का जाप दिलाया था ॥114॥ मैं वही जटायु, आपके प्रसाद से उस प्रकार के तिर्यंच गति संबंधी दुःख का परित्याग कर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ था ॥115॥ हे गुरो ! देवों के अत्यंत उदार महासुखों से मोहित होकर मुझ अज्ञानी ने नहीं जाना कि आप पर इतनी विपत्ति आई है ॥116॥ हे देव ! जब आपकी विपत्ति का अंत आया तब आपके कर्मोदय ने मुझे इस ओर ध्यान दिलाया और कुछ प्रतीकार करने के लिए आया हूँ ॥117॥
तदनंतर कृतांतवक्त्र का जीव भी कुछ अच्छा-सा वेष धारणकर बोला कि हे नाथ ! मैं आपका कृतांतवक्त्र सेनापति था ॥118।। आपने कहा था कि 'कष्ट के समय मेरा स्मरण रखना' सो हे स्वामिन् ! आपका वही आदेश बुद्धिगत कर आपके समीप आया हूँ ॥119॥ उस समय देवों की उस ऋद्धि को देख भोगी मनुष्य परम आश्चर्य को प्राप्त होते हुए निर्मलचित्त हो गये ॥120।। तदनंतर रामने कृतांतवक्त्र सेनापति तथा देवों के अधिपति जटायु के जीवों से कहा कि अहो भद्र पुरुषो ! तुम दोनों विपत्तिग्रस्त जीवों का उद्धार करने वाले हो ॥121।। देखो, महाप्रभाव से संपन्न एवं अत्यंत शुद्ध हृदय के धारक तुम दोनों देव मुझे प्रबुद्ध करने के लिए स्वर्ग से यहाँ आये ॥122।। इस प्रकार उन दोनों से वार्तालाप कर शोकरूपी संकट से पार हुए रामने सरयू नदी के तट पर लक्ष्मण का दाह संस्कार किया ॥123॥
तदनंतर वैराग्यपूर्ण हृदय के धारक विषादरहित रामने धर्म-मर्यादा की रक्षा करने वाले निम्नांकित वचन शत्रुघ्न से कहे ॥124॥ उन्होंने कहा कि हे शत्रुघ्न ! तुम मनुष्यलोक का राज्य करो। सब प्रकार की इच्छाओं से जिसका मन और आत्मा दूर हो गई है ऐसा मैं मुक्ति पद की आराधना करने के लिए तपोवन में प्रवेश करता हूँ ॥125।। इसके उत्तर में शत्रुघ्न ने कहा कि देव ! मैं राग के कारण भोगों में लुब्ध नहीं हूँ। मेरा मन निर्ग्रंथ समाधिरूपी राज्य में लग रहा है इसलिए मैं आपके साथ उसी निर्ग्रंथ समाधि रूप राज्य को प्राप्त करूँगा। इसके अतिरिक्त मेरी दूसरी गति नहीं है ॥126।। हे नरसूर्य ! इस संसार में मन को हरण करने वाले कामोपभोगों में, मित्रों में, संबंधियों में, भाई-बांधवों में, अभीष्ट वस्तुओं में तथा स्वयं अपने आपके जीवन में किसे तृप्ति हुई है ? ॥127॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराण में लक्ष्मण के संस्कार का वर्णन करने वाला एक सौ अठारहवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥118॥