ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 112
From जैनकोष
एक सौ बारहवां पर्व
अथानंतर पारस्परिक महास्नेह से बँधे राम लक्ष्मण का, उष्ण वर्षा और शीत के भेद से तीन प्रकार का काल धीरे-धीरे व्यतीत हो रहा था ॥1॥ परम ऐश्वर्य के समूहरूपी कमलवन में विद्यमान रहने वाले वे दोनों पुरुषोत्तम चंदन से लिप्त हुए के समान सुशोभित हो रहे थे ।।2।। जिस समय नदियाँ सूख जाती हैं, वन दावानल से व्याप्त हो जाते हैं और प्रतिमायोग को धारण करने वाले मुनि सूर्य के सम्मुख खड़े रहते हैं उस समय राम-लक्ष्मण, जल के फव्वारों से युक्त सुंदर महलों में तथा समस्त प्रिय उपकरणों से सुशोभित उद्यानों में क्रीड़ा करते थे ॥3-4॥ चंदनमिश्रित जल के महासुगंधित शीतल कणों को बरसाने वाले चमरों तथा उत्तमोत्तम पलों से वहाँ उन्हें हवा की जाती थी। वहाँ वे स्फटिक के स्वच्छ पटियों पर बैठते थे, चंदन के द्रव से उनके शरीर चर्चित रहते थे, जल से भीगे कमल पुष्पों की कलियों के समूह से बने बिस्तरों पर शयन करते थे । इलायची लौंग कपूर के चूर्ण के संसर्ग से शीतल निर्मल स्वादिष्ट और मनोहर जल का सेवन करते थे, और नाना प्रकार की कथाओं में दक्ष स्त्रियाँ उनकी सेवा करती थीं। इस प्रकार ऐसा जान पड़ता था मानो वे ग्रीष्म काल में भी शीतकाल को पकड़कर बलात् धारण कर रहे थे।।-8॥
जिनका शरीर जल की धाराओं से धुल गया है ऐसे मुनिराज जिस समय वृक्षों के मूल में बैठकर अपने अशुभ कर्मों का क्षय करते हैं ॥9॥ जहाँ कहीं कौंधती हुई बिजली के द्वारा प्रकाश फैल जाता है तो कहीं मेघों के द्वारा अंधकार फैला हुआ है, जहाँ जल के प्रवाह विशाल घर-घर शब्द करते हुए बहते हैं और जहाँ किनारों को ढहाकर बहा ले जाने वाली नदियाँ बहती हैं, उस वर्षाकाल में वे मेरु के शिखर के समान उन्नत महलों में विद्यमान रहते थे, उत्तम वस्त्र धारण करते थे, कुंकुम केशर के द्रव से उनके शरीर लिप्त रहते थे, अपरिमित अगुरुचंदन का वे उपयोग करते थे। महाविलासिनी स्त्रियों के नेत्र रूप भ्रमर समूह के लिए वे कमलवन के समान सुखकारी थे और सुंदरी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हुए यक्षेंद्र के समान सुख से विद्यमान रहते थे ॥10-12॥
जिस काल में रात्रि के समय धर्मध्यान में लीन, एवं वन के खुले चबूतरों पर बैठे मुनिराज बर्फरूपी वस्त्र से आवृत हो स्थित रहते हैं, जहाँ अत्यंत शीत वायु से वृक्ष नष्ट हो जाते हैं, कमलों के वन सूख जाते हैं और जहाँ लोग सूर्योदय को अत्यंत पसंद करते हैं ऐसे शीतकाल में वे महलों के गर्भगृह में इच्छानुसार रहते थे, उनके वक्षःस्थल तरुण स्त्रियों के स्तनों की क्रीड़ा के आधार थे, वीणा, मृदंग, बाँसुरी आदि से उत्पन्न, कानों के लिए उत्तम रसायन स्वरूप मधुर स्वर को वे अपनी इच्छानुसार करते थे, जिन्होंने अपनी वाणी से वीणा को जीत लिया था ऐसी अनुकूल स्त्रियाँ बड़े आदर से उनकी सेवा करती थीं और इसीलिए वे देवियों के द्वारा सेवित देवों के समान जान पड़ते थे । इस प्रकार वे पुण्यकर्म के प्रभाव से रात-दिन अत्यधिक भोगसंपदा से युक्त रहते हुए सुख से समय व्यतीत करते थे ।।13-18॥
गौतमस्वामी कहते हैं कि इस तरह वे दोनों लोकोत्तम पुरुष सुख से विद्यमान थे। हे राजन् ! अब वीर हनूमान का वृत्तांत सुन ॥19॥ पूर्व पुण्य के प्रभाव से हनूमान् कर्णकुंडल नगर में देव के समान परम ऐश्वर्य का उपभोग कर रहा था ।।20।। विद्याधरों के माहात्म्य से सहित तथा उत्तमोत्तम क्रियाओं से युक्त हनूमान् हजारों स्त्रियों का परिवार लिये इच्छानुसार पृथ्वी में भ्रमण करता था ।।21।। उत्तम विमान पर आरूढ तथा उत्तम विभूति से युक्त श्रीमान् हनूमान् उत्तम वन आदि प्रदेशों में देव के समान क्रीड़ा करता था ॥22॥
अथानंतर किसी समय जगत् के उन्माद का कारण, फूलों से सुशोभित एवं प्रिय सुगंधित वायु के संचार से युक्त वसंतऋतु आई ।।23।। सो उस समय जिनेंद्र भक्ति से जिसका चित्त व्याप्त था ऐसा हर्ष से भरा हनूमान् अंतःपुर के साथ मेरुपर्वत की ओर चला ॥24॥ वह बीच में नाना प्रकार के फूलों से मनोहर और देवों के द्वारा सेवित कुलाचलों के शिखरों पर ठहरता जाता था ॥25॥ जिनमें मदोन्मत्त भ्रमर और कोयलों के समूह शब्द कर रहे थे, तथा जो मनोहर सरोवरों से दर्शनीय थे ऐसे अनेकों वन, पत्र, पुष्प और फलों के कारण जो स्त्री-पुरुषों के युगल से सेवनीय थे ऐसे विचित्र वन, रत्नों से जगमगाते हुए पर्वत, जिनमें निर्मल टापू थे तथा अत्यंत स्वच्छ पानी भरा था ऐसी नदियाँ, जिनमें उत्तम सीढ़ियाँ लगी थी तथा जिनके तटों पर ऊँचे ऊँचे वृक्ष खड़े थे ऐसी वापिकाएँ, नाना प्रकार के कमलों की केशर से जिनका पानी चित्र-विचित्र हो रहा था तथा जो मधुर शब्द करने वाले पक्षियों से सेवित थे ऐसे सरोवर, जो बड़ी-बड़ी तरंगों के साथ उठी हुई फेन पंक्ति से मानो अट्टहास कर रही थीं तथा जो बड़े-बड़े जल-जंतुओं से व्याप्त थी ऐसी अनेक आश्चर्यों से भरी महानदियाँ, सुशोभित वन-पंक्तियों एवं उत्तमोत्तम उपवनों से युक्त तथा मन को हरण करने में निपुण नाना प्रकार के भवन, और नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, पाप नष्ट करने में समर्थ तथा योग्य प्रमाण से युक्त अनेकों जिनकूट इत्यादि वस्तुओं को देखता तथा स्त्रियों के द्वारा सेवित होता हुआ परम अभ्युदय का धारक हनूमान् धीरे-धीरे चला जा रहा था ।।26-33।।
जो आकाश में बहुत ऊँचे चढ़कर विमान के शिखर पर स्थित था तथा जिसके रोमांच निकल रहे थे ऐसा वह हनूमान् स्त्री के लिए तत् तत् वस्तुएँ दिखाता हुआ जा रहा था ॥34॥ वह कहता जाता था कि हे प्रिये ! देखो देखो, सुमेरु पर्वत पर शिखर के समीप वे कितने सुंदर स्थान हैं वहीं जिनेंद्र भगवान् के अभिषेक हुआ करते हैं ॥35॥ ये नाना रत्नों से निर्मित; सूर्य तुल्य, मनोहर, ऊँची और बड़े-बड़े शिखर देखो ॥36॥ इन मनोहर द्वारों से युक्त तथा रत्नों से आलोकित गंभीर गुफाओं और परस्पर एक दूसरे से मिली, दूर-दूर तक फैलने वाली किरणों को देखो ॥37॥ यह पृथिवीतल पर मनोहर भद्रशाल वन है, यह मेखला पर स्थित जगत् प्रसिद्ध नंदन वन है, यह उपरितन प्रदेश के वक्षःस्थल स्वरूप, कल्पवृक्ष और कल्पबेलों से तन्मय एवं नाना रत्नमयी शिलाओं से सुशोभित सौमनस वन है, और यह उसके शिखर पर हजारों जिन मंदिरों से युक्त देवों की क्रीड़ा के योग्य पांडुक नाम का अत्यंत मनोहर वन है ॥38-40।। यह सुमेरु के स्वाभाविक सुरम्य शिखर पर परम आश्चर्यों से भरा हुआ वह जिनमंदिर दिखाई देता है कि जिसमें उत्सवों की परंपरा कभी टूटती हो नहीं है, जो अहमिंद्र लोक के समान है, यक्ष किन्नर और गंधर्वों के संगीत से शब्दायमान है, देवकन्याओं से व्याप्त है, अप्सराओं के समूह से आकीर्ण है, नाना प्रकार के गुणों से परिपूर्ण है और दिव्य पुष्पों से सहित है ।।41-43।। जो जलती हुई अग्नि के समान लाल-लाल संध्या से युक्त मेघ समूह के समान प्रभा से युक्त है, स्वर्णमय है, सूर्यकूट के समान है, उन्नत है, सब प्रकार के उत्तम रत्नों के समूह से भूषित है, उत्तम आकृति वाला है, हजारों मोतियों की मालाओं से सहित है, छोटे-छोटे गोले और दर्पणों से सुशोभित है, छोटी छोटी घंटियों, रेशमी वस्त्र, फन्नूस और चमरों से अलंकृत है, उत्तमोत्तम प्राकार, तोरण, और ऊँचे गोपुरों से युक्त है, जिस पर नाना रंग की पताकाएँ फहरा रही हैं, जो सुवर्णमय खंभों से सुशोभित है, गंभीर है, सुंदर छज्जों से युक्त है, जिसका संपूर्ण वर्णन करना अशक्य है, जो पचास योजन लंबा है और छत्तीस योजन चौड़ा है । हे कांते ! ऐसा यह जिन-मंदिर सुमेरु पर्वत के मुकुट के समान जान पड़ता है ॥44-48॥
इस प्रकार महादेवी के लिए मंदिर की प्रशंसा करता हुआ हनूमान जब मंदिर के समीप पहुँचा तब विमान के अग्रभाग से उतरकर हर्षित होते हुए उसने सर्वप्रथम प्रदक्षिणा दी ॥49॥ तदनंतर अन्य सबको छोड़ उसने अंतःपुर के साथ हाथ जोड़ मस्तक से लगा जिनेंद्र भगवान् की उस प्रतिमा को नमस्कार किया कि जो महान् ऐश्वर्य से सहित थी, नक्षत्र ग्रह और ताराओं के बीच में स्थित चंद्रमा के समान सुशोभित थी, सिंहासन के अग्रभाग पर स्थित थी, जिसका अपना विशाल तेज देदीप्यमान था, जो सफेद मेघ के शिखर के अग्रभाग पर स्थित शरत्कालीन सूर्य के समान थी, तथा सब लक्षणों से सहित थी ॥50-52॥ जिनेंद्र-दर्शन से जिन्हें महाहर्ष रूप संपत्ति की उद्भूति हुई थी ऐसी विद्याधरराज की स्त्रियों को दर्शन कर बड़ा संतोष उत्पन्न हुआ ॥53।। तदनंतर जिनके सघन रोमांच निकल आये थे, जिनके लंबे नेत्र हर्षातिरेक से और भी अधिक लंबे दिखने लगे थे, जो उत्कृष्ट भक्ति से युक्त थीं, सब प्रकार के उपकरणों से सहित थीं, महाकुल में उत्पन्न थीं, तथा परचेष्टा को धारण करने वाली थीं ऐसी उन विद्याधरियों ने देवांगनाओं के समान जिनेंद्र भगवान की पूजा की ॥54-55॥ सुवर्णमय, पद्मराग मणिमय तथा चंद्र कांतमणिमय कमल, तथा अन्य स्वाभाविक पुष्प, सुगंधि से दिङ्मंडल को व्याप्त करने वाली परम उज्ज्वल गंध जिसकी धूमशिखा बहुत ऊँची उठ रही थी ऐसे पवित्र द्रव्य से उत्पन्न धूप, भक्ति से समीप में लाकर रक्खे हुए बड़ी-बड़ी शिखाओं वाले दीपक, और नाना प्रकार के नैवेद्य से हनूमान् ने जिनेंद्रदेव की पूजा की ॥56-58॥
तदनंतर जिसका शरीर चंदन से व्याप्त था, जो केशर के तिलकों से युक्त था, जिसका शरीर वस्त्र से आच्छादित था, जिसके पाप छट गये थे, जिसका मुकुट वानर चिह्न से चिह्नित एवं स्फुरायमान किरणों के समूह से युक्त था और हर्ष के कारण अत्यधिक विस्तृत नेत्रों की किरणों से जिसका मुख व्याप्त था ऐसे हनुमान ने जिनेंद्र भगवान का ध्यान कर, तथा पाप को नष्ट करने वाले स्तोत्रों से सुरासुरों के गुरु श्री जिनेंद्रदेव की प्रतिमा की बार-बार उत्तम स्तुति की ॥59-61॥ तदनंतर विलास-विभ्रम के साथ बैठी हुई अप्सराएँ जिसे देख रही थी ऐसे हनूमान् ने वीणा गोद में रख संगीत रूपी अमृत प्रकट किया ॥62॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जिन्होंने अपने नेत्र जिनेंद्र भगवान् की पूजा में लगा रक्खे हैं तथा जिनकी आत्मा नियम पालन में सावधान है ऐसे मनुष्य कल्याण को सदा अपने हाथ में रखते हैं ॥63॥ जो जिनेंद्र भगवान् की पूजा में लीन हैं तथा उनके मंगलमय दर्शन करते हैं ऐसे निर्मल चित्त के धारक मनुष्यों के लिए कोई भी कल्याण दुर्लभ नहीं है ॥64॥ श्रावक के कुल में जन्म होना, जिनेंद्र भगवान में सुदृढ़ भक्ति होना, और समाधिपूर्वक मरण होना, यही मनुष्य जन्म का पूर्ण फल है ॥65॥ इस तरह चिरकाल तक वीणा बजाकर, बार-बार स्तुति और पूजा कर, वंदना कर तथा नयी-नयी भक्तिकर आत्मज्ञ जिनेंद्र भगवान के लिए पीठ नहीं देता हुआ हनूमान् नहीं चाहते हुए की तरह विश्रब्ध हो जिन-मंदिर से बाहर निकला ॥66-67।। तदनंतर हजारों स्त्रियों के साथ विमान पर चढ़कर उसने उत्तम ज्योतिषी देव के समान मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा दी ॥68॥ उस समय सुंदर क्रियाओं को धारण करने वाला हनूमान एक दूसरे गिरिराज के समान प्रेमवश, मानो सुमेरु से जाने की अंतिम आज्ञा हो ले रहा हो ॥69॥ तदनंतर सब जिन मंदिरों पर उत्तम फूल बरसाकर भरतक्षेत्र की ओर धीरे-धीरे आकाश में चला ॥70॥
अथानंतर परमराग (अत्यधिक लालिमा पक्ष में उत्कट प्रेम) से युक्त संध्या सूर्य का आलिंगन कर खेद दूर करने की इच्छा से ही मानो अस्ताचल के ऊपर निवास को प्राप्त हुई ।।71।। वह समय कृष्ण पक्ष का था, अतः तारारूपी बंधुओं से आवृत और चंद्रमारूपी पति से रहित रात्रि अत्यधिक सुशोभित नहीं हो रही थी इसलिए उसने आकाश से उतर सुरदुंदुभि नामक परम मनोहर प्रत्यंत पर्वत पर धीरे से अपनी सेना ठहरा दी ॥72-73।। जहाँ कमलों और नील कमलों की सुगंधि को धारण करने वाली वायु धीरे-धीरे बह रही थी ऐसे उस प्रत्यंत पर्वत पर जिनेंद्रभगवान की कथा में लीन सैनिक यथायोग्य सुख से ठहर गये ॥74॥
अथानंतर हनूमान् कैलास पर्वत के ऊपरी मैदान के समान विमान की चंद्रशाला संबंधी शिखर के समीप सुख से बैठा था कि उसने बहुत ऊँचे आकाश से गिरते हुए तथा क्षण एक में अंधकार रूप हो जाने वाले देदीप्यमान कांति के धारक ज्योतिर्बिंब को देखा ॥75-76॥ देखते ही वह विचार करने लगा कि हाय-हाय बड़े दुःख की बात है कि इस संसार में वह स्थान नहीं है जहाँ देवसमूह के बीच भी मृत्यु इच्छानुसार क्रीड़ा नहीं करती हो ॥77॥ जहाँ देवों का भी जन्म सब ओर से बिजली, उल्का और तरंग के समान अत्यंत भंगुर है वहाँ अन्य प्राणियों की तो कथा ही क्या है ? ॥78॥ इस प्राणी ने संसार में अनंतबार जिस सुख-दुःख का अनुभव नहीं किया है वह तीन लोक में भी नहीं है ॥79॥ अहो ! यह मोह की बड़ी प्रबल महिमा है कि यह जीव इतने समय तक दुःख से भटकता रहा है ॥80॥ हजारों उत्सर्पिणियों और अपसर्पिणियों में कष्ट सहित भ्रमण करने के बाद मनुष्य पर्याय प्राप्त होती है सो खेद है कि वह उस प्रकार नष्ट हो गई कि जिस प्रकार मानो प्राप्त ही न हुई हो ॥81॥ विनाशी सुखों में आसक्त प्राणी कभी तृप्ति को प्राप्त नहीं होते और उसी अतृप्त दशा में संताप से परिपूर्ण अंतिम अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं ॥52॥ चंचल, कुमार्ग में प्रवृत्ति करने वाली और अत्यंत दुःखदायी इंद्रियाँ जिन-मार्ग का आश्रय लिए बिना शांत नहीं होतीं ॥3॥ जिस प्रकार दीन मृग और पक्षी जाल से बद्ध हो जाते हैं उसी प्रकार ये मोही प्राणी विषय-जाल से बद्ध होते हैं ।।84॥ जो मनुष्य सर्प के समान विषयों के साथ क्रीड़ा करता है वह मूर्ख फल के समय दुःख रूपी अग्नि से जलता है ॥85॥ जैसे कोई मनुष्य वर्षभर कष्ट भोगकर एक दिन के राज्य की अभिलाषा करे वैसे ही विषय-सुख का उपभोग करने वाला यह मूर्ख प्राणी, चिरकाल तक कष्ट भोगकर थोड़े समय के लिए सुख की आकांक्षा करता है ॥86।। यद्यपि यह प्राणी जानता हुआ भी मोहरूपी चोर के द्वारा ठगाया जाता है तथापि कभी आत्मकल्याण नहीं करता इससे अधिक कष्ट और क्या होगा ? ।।87॥ यह प्राणी मनुष्यभव में संचित धर्म का स्वर्ग में उपभोग कर पश्चात् लुटे हुए मनुष्य के समान दीन और दुःखी हो जाता है ।।88।। यह जीव देवों संबंधी भोग भोगकर भी पुण्य के क्षीण होनेपर अवशिष्ट कर्मों की सहायता से जहाँ कहीं चला जाता है ।।89।। पूज्यवर त्रिलोकीनाथ ने यही कहा है कि इस प्राणी का बंधु अथवा शत्रु अपना कर्म ही है ॥90। इसलिए जिनके साथ अवश्य ही वियोग होता है ऐसे उन निंदित तथा अत्यंत कठोर भोगों से पूरा पड़े-उनकी हमें आवश्यकता नहीं है ।।91।। यदि मैं इन प्रियजनों का त्यागकर तप नहीं करता हूँ तो सुभूम चक्रवर्ती के समान अतृप्त दशा में मरूँगा ।।92।। 'जो हरिणियों के समान नेत्रों वाली हैं, स्त्रियों के गुणों से सहित हैं, अत्यंत कठिनाई से छोड़ने योग्य हैं, भोली हैं और मुझ पर जिनके मनोरथ लगे हुए हैं ऐसी इन श्रीमती स्त्रियों को कैसे छोडूँ’ - ऐसा विचारकर यद्यपि वह क्षणभर के लिए बेचैन हुआ तथापि वह तत्काल ही प्रबुद्धबुद्धि हो हृदय के लिए इस प्रकार उलाहना देने लगा ।।93-94॥ कि हे हृदय ! जिसने दीर्घकाल तक स्वर्ग में उत्तम विभूति की धारक गुणवती स्त्रियों के साथ रमण किया तथा मनुष्य-लोक में भी जो अत्यधिक हर्ष से भरी सुंदर स्त्रियों से लालित हुआ ऐसा कौन मनुष्य नदियों से समुद्र के समान नाना प्रकार के विषय-सुख संबंधी प्रीति से संतुष्ट हुआ है ? अर्थात् कोई नहीं । इसलिए हे नाना जन्मों में भटकने वाले श्रांत हृदय ! शांति को प्राप्त हो, व्यर्थ ही आकुलित क्यों हो रहा है ? ॥95-96॥ हे हृदय ! क्या नरक के भयंकर विरोध से दुःखदायी एवं तीक्ष्ण असिपत्र वन से संकटपूर्ण दुर्गम मार्ग, तूने सुने नहीं हैं कि जिससे रागोत्पत्ति से उत्पन्न समस्त सघन कर्म रूपी पंक को तू तप के द्वारा नष्ट करने की इच्छा नहीं कर रहा है ॥17॥ धिक्कार है कि दीर्घ तथा निंदनीय दुःखरूपी सागर में डूबे हुए मेरा अतीतकाल सर्वथा निरर्थक हो गया। अब आज मुझे शुभ मार्ग और शुभ बुद्धि का प्रकाश प्राप्त हुआ है इसलिए संसार रूपी पिंजड़े के भीतर रुके आत्मा को मुक्त करता हूँ-भव-बंधन से छुड़ाता हूँ ।।98॥ इस प्रकार जिसने हृदय में दृढ़ निश्चय किया है तथा जीव लोक का जिसने यथार्थ विवेक देख लिया है ऐसा मैं मेघ के संसर्ग से रहित सूर्य के समान तेजस्वी होता हुआ सन्मार्ग पर गमन करने के लिए उद्यत हुआ हूँ ॥99॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य विरचित पद्मपुराण में हनूमान् के वैराग्य का वर्णन करने वाला एक सौ बारहवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥112॥