ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 10
From जैनकोष
165. ‘’प्रमाणनयैरधिगम:’’ इत्युक्तम्। प्रमाणं च केषांचित् ज्ञानमभिमतम्। केषांचित् संनिकर्ष: केषांचिदिन्द्रियमिति। अतोऽधिकृतानामेव मत्यादीनां प्रमाणत्वख्यापनार्थमाह –
165. प्रमाण और नयसे ज्ञान होता है यह पहले कह आये हैं। किन्हींने ज्ञानको प्रमाण माना है, किन्हींने सन्निकर्षको और किन्हींने इन्द्रियको। अत: अधिकार प्राप्त मत्यादिकही प्रमाण हैं इस बातको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
तत्प्रमाणे।।10।।
वह पाँचों प्रकारका ज्ञान दो प्रमाणरूप है। ।।10।।
166. तद्वचनं किमर्थम्। प्रमाणान्तरपरिकल्पनानिवृत्त्यर्थम्। संनि कर्ष: प्रमाणमिन्द्रियं प्रमाणमिति केचित्कल्पयन्ति तन्निवृत्त्यर्थं तदित्युच्यते। तदेव मत्यादि प्रमाणं नान्यदिति।
166. शंका – सूत्रमें ‘तत्’ पद किसलिए दिया है ? समाधान – जो दूसरे लोग सन्निकर्ष आदिको प्रमाण मानते हैं उनकी इस कल्पनाके निराकरण करनेके लिए सूत्रमें ‘तत्’ पद दिया है। सन्निकर्ष प्रमाण है, इन्द्रिय प्रमाण है ऐसा कितने ही लोग मानते हैं इसलिए इनका निराकरण करनेके लिए सूत्रमें ‘तत्’ पद दिया है जिससे यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि वे मत्यादि ही प्रमाण हैं, अन्य नहीं।
167. अथ संनिकर्षे प्रमाणे सति इन्द्रिये वा को दोष: ? यदि सन्निकर्ष: प्रमाणम्, सूक्ष्मव्यवहितप्रविप्रकृष्टानामर्थानामग्रहणप्रसङ्ग:। न हि ते इन्द्रियै: सन्निकृष्यन्ते। अत: सर्वज्ञत्वाभाव: स्यात्। इन्द्रियमपि यदि प्रमाणं स एव दोष:; अल्पविषयत्वात् चक्षुरादीनां ज्ञेयस्य चापरिमाणत्वात्।
167. शंका – सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण माननेमें क्या दोष है ? समाधान – यदि सन्निकर्षको प्रमाण माना जाता है तो सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंके अग्रहणका प्रसंग प्राप्त होता है; क्योंकि इनका इन्द्रियोंसे सम्बन्ध नहीं होता। इसलिए सर्वज्ञताका अभाव हो जाता है। यदि इन्द्रियको प्रमाण जाता है तो वही दोष आता है, क्योंकि चक्षु आदिका विषय अल्प है और ज्ञेय अपरिमित हैं।
168. सर्वेन्द्रियसंनिकर्षाभावश्च; चक्षुर्मनसो: प्राप्यकारित्वाभावात्। अप्राप्यकारित्वं च उत्तरत्र वक्ष्यते।
168. दूसरे सब इन्द्रियोंका सन्निकर्ष भी नहीं बनता, क्योंकि चक्षु और मन प्राप्यकारी नहीं हैं, इसलिए भी सन्निकर्षको प्रमाण नहीं मान सकते । चक्षु और मनके अप्राप्यकारित्वका कथन आगे कहेंगे।
169. यदि ज्ञानं प्रमाणं फलाभाव:। अधिगमो हि फलमिष्टं न भावान्तरम्। स चेत्प्रमाणं, न तस्यान्यत्फलं भवितुमर्हति। फलवता च प्रमाणेन भवितव्यम्। संनिकर्षे इन्द्रिये वा प्रमाणे सति अधिगम: फलमर्थान्तरभूतं युज्यते इति। तदयुक्तम्। यदि संनिकर्ष: प्रमाणं अर्थाधिगम: फलं, तस्य द्विष्ठत्वा-त्तत्फलेनाधिगमेनापि द्विष्ठेन भवितव्यमिति अर्थादीनामप्यधिगम: प्राप्नोति। आत्मनश्चेतनत्वात्तत्रैव समवाय इति चेत्। न; ज्ञस्वभावाभावे सर्वेषामचेतनत्वात्। ज्ञस्वभावाभ्युपगमे वा आत्मन: स्वमतविरोध: स्यात्।
169. शंका – यदि ज्ञानको प्रमाण मानते हैं तो फलका अभाव होता है। प्रकृतमें ज्ञानको ही फल मानना इष्ट है अन्य पदार्थ को फल मानना इष्ट नहीं। पर यदि उसे प्रमाण मान लिया जाता है तो उसका कोई दूसरा फल नहीं प्राप्त हो सकता । किन्तु प्रमाणको फलवाला होना चाहिए। पर सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण मानने पर उससे भिन्न ज्ञानरूप फल बन जाता है ? समाधान – यह कहना युक्त नहीं, क्योंकि यदि सन्निकर्षको प्रमाण और अर्थके ज्ञानको फल मानते हैं तो सन्निकर्ष दोमें रहनेवाला होनेसे उसके फलस्वरूप ज्ञानको भी दोमें रहनेवाला होना चाहिए इसलिए घट-पटादि पदार्थोंके भी ज्ञानकी प्राप्ति होती है। शंका - आत्मा चेतन है, अत: उसीमें ज्ञानका समवाय है ? समाधान – नहीं, क्योंकि आत्माको ज्ञस्वभाव नहीं मानने पर सभी पदार्थ अचेतन प्राप्त होते हैं। यदि आत्माको ज्ञस्वभाव माना जाता है, तो स्वमतका विरोध होता है।
170. ननु चोक्तं ज्ञाने प्रमाणे सति फलाभाव इति। नैष दोष:; अर्थाधिगमे प्रीतिदर्शनात्। ज्ञस्वभावस्यात्मन: कर्ममलीमसस्य करणालम्बनादर्थनिश्चये प्रीतिरुपजायते। सा फलमित्युच्यते। उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम्। रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा। अन्धकारकल्पा ज्ञाननाशो वा फलमित्युच्यते।
170. पहले पूर्वपक्षीने जो यह कहा है कि ज्ञानको प्रमाण मानने पर फलका अभाव होता है सो यह कोई दोष नहीं; क्योंकि पदार्थके ज्ञान होने पर प्रीति देखी जाती है। यद्यपि आतमा ज्ञस्वभाव है तो भी वह कर्मोंसे मलीन है अत: इन्द्रियों के आलम्बनसे पदार्थका निश्चय होने पर उसके जो प्रीति उत्पन्न होती है वही प्रमाणका फल कहा जाता है। अथवा उपेक्षा या अज्ञानका नाश प्रमाणका फल है। राग-द्वेषरूप परिणामोंका नहीं होना उपेक्षा है और अन्धकारके समान अज्ञानका दूर हो जाना अज्ञाननाश है। सो ये भी प्रमाण के फल हैं।
171. प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्र वा प्रमाणम्। किमनेन प्रमीयते। जीवादिरर्थ:। यदि जीवादेरधिगमे प्रमाणं प्रमाणाधि गमे च अन्यत्प्रमाणं परिकल्पयितव्यम्। तथा सत्यनवस्था। नानवस्था प्रदीपवत्। यथा घटादीनां प्रकाशने प्रदीपो हेतु: स्वस्वरूपप्रकाशनेऽपि स एव, न प्रकाशान्तरं मृग्यं तथा प्रमाणमपीति अवश्यं चैतदभ्युपगन्तव्यम्। प्रमेयवत्प्रमाणस्य प्रमाणान्तरपरिकल्पनायां स्वाधिगमाभावात् स्मृत्यभाव:। तदभावाद् व्यवहारलोप: स्यात्।
171. प्रमाण शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्रमिणोति, प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् =जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमितिमात्र प्रमाण है। शंका – प्रमाणके द्वारा क्या जाना जाता है ? समाधान – जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं। शंका – यदि जीवादि पदार्थोंके ज्ञानमें प्रमाण कारण है तो प्रमाणके ज्ञानके अन्य प्रमाणको कारण मानना चाहिए। और ऐसा माननेपर अनवस्था दोष प्राप्त होता है ? समाधान – जीवादि पदार्थोंके ज्ञानमें प्रमाणको कारण मानने पर अनवस्था दोष नहीं आता, जैसे दीपक। जिस प्रकार घटादि पदार्थोंके प्रकाश करनेंमें दीपक हेतु है और अपने स्वरूपके प्रकाश करनेमें भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशान्तर नहीं ढूँढना पड़ता। उसी प्रकार प्रमाण भी है यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए। अब यदि प्रमेयके समान प्रमाणके लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्वका ज्ञान नहीं होनेसे स्मृतिका अभाव हो जाता है और स्मृति का अभाव हो जानेसे व्यवहार का लोप हो जाता है।
172. वक्ष्यमाणभेदापेक्षया द्विवचननिर्देश:। वक्ष्यते हि ‘’आद्ये परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यद्’’ इति स च द्विवचननिर्देश: प्रमाणान्तरसंख्यानिवृत्त्यर्थ:।
172. सूत्रमें आगे कहे जानेवाले भेदोंकी अपेक्षा द्विवचनका निर्देश किया है। आगे कहेंगे ‘आद्ये परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यत्।‘ यह द्विवचनका निर्देश प्रमाणकी अन्य संख्या के निराकरण करनेके लिए किया है।
विशेषार्थ – पिछले सूत्रमें पाँच सम्यग्ज्ञानोंकी चर्चा करके इस सूत्रमें उनकी प्रमाणता बतलायी गयी है। यों तो सम्यग्ज्ञान कहनेसे उनकी प्रमाणता सुतरां सिद्ध है, किन्तु दर्शनान्तरोंमें ज्ञानको मुख्यतया प्रमाण न मान कर सन्निकर्ष या इन्द्रिय आदिको प्रमाण माना गया है, इसलिए यहाँपर सन्निकर्ष आदि प्रमाण नहीं हैं, किन्तु ज्ञान ही प्रमाण है यह बतलाया गया है। सर्वार्थसिद्धि टीकामें मुख्यतया दो मतोंका उल्लेख करके उनकी आलोचना की गयी है। ये दोनों मत नैयायिक सम्मत हैं। नैयायिकोंने प्रत्यक्ष ज्ञानकी उत्पत्तिमें सन्निकर्ष और इन्द्रिय दोनोंको प्रमाण माना है। सन्निकर्ष प्रमाण है इस मत का उल्लेख न्यायभाष्यमें और इन्द्रिय प्रमाण है इस मतका उल्लेख उद्योतकरके न्यायवार्तिकमें पाया जाता है। परन्तु सर्वार्थसिद्धिकारने जब इस दूसरे मतका उल्लेख किया है, तो यह भी प्रथम मतके समान प्राचीन प्रतीत होता है। बहुत सम्भव है कि इस द्वारा सर्वार्थसिद्धिकारने सांख्यके ‘इन्द्रियवृत्ति प्रमाण है’ इस मतका उल्लेख किया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। नैयायिक लोग प्रत्यक्षज्ञानकी उत्पत्तिमें सन्निकर्षको असाधारण कारण मानकर उसे प्रमाण मानते हैं। किन्तु आगे चलकर करणके ‘असाधारण कारणको करण कहते हैं’ इस लक्षणके स्थानमें ‘व्यापारवाले कारणको करण कहते हैं’ यह लक्षण भी प्रचलित हो गया जिससे सन्निकर्षके साथ उनके यहाँ इन्द्रियाँ भी प्रमाण मानी जाने लगीं। वे जब सन्निकर्षको प्रमाण मानते हैं तब ज्ञान उसका फल मान लिया जाता है और जब इन्द्रियों को प्रमाण मानते हैं तब भी सन्निकर्षको इन्द्रियोंका व्यापार मानकर ज्ञान उनका फल मान लिया जाता है। इसका यह अर्थ नहीं कि वे ज्ञानको प्रमाण ही नहीं मानते। उनके यहाँ ज्ञानको भी प्रमाण माना गया है। जब वे ज्ञानको प्रमाण मानते हैं तब हानबुद्धि और उपादानबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि उसका फल माना जाता है किन्तु नैयायिकोंकी सन्निकर्ष और इन्द्रियको प्रमाण माननेकी बात समीचीन नहीं है यही निर्णय इस सूत्रकी टीकामें किया गया है। सन्निकर्षको प्रमाण माननेमें जो दोष प्राप्त होते हैं वे इस प्रकार हैं – 1. सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए सवर्ज्ञताका अभाव होता है। 2. चक्षु और मनसे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ये अप्राप्यकारी हैं। 3. प्रत्येक इन्द्रियका अलग-अलग विषय मानना उचित नहीं, क्योंकि चक्षु का रूपके साथ सन्निकर्ष पाया जानेसे जैसे वह रूपज्ञानका जनक है उसी प्रकार उसका रसके साथ भी सन्निकर्ष पाया जाता है अत: उससे रसका भी ज्ञान होना चाहिए। 4. सन्निकर्ष एकका न होकर इन्द्रिय और अर्थ इन दो या दोसे अधिकका होता है अत: सन्निकर्षका फल जो ज्ञान है वह भी दोनोंमें होना चाहिए। इन्द्रियको प्रमाण माननेमें ये दोष आते हैं – 1. सर्वज्ञताका अभाव होता है, क्योंकि इन्द्रियाँ सब पदार्थोंको एक साथ जानने में असमर्थ हैं। 2. इन्द्रियोंसे सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंका ज्ञान सम्भव न होनेसे भी सर्वज्ञताका अभाव होता है। 3. अनुमान आदि ज्ञानोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि इन ज्ञानोकी उत्पत्ति इन्द्रियोंसे नहीं होती। सन्निकर्ष और इन्द्रियको प्रमाण मानने पर इसी प्रकार और भी दोष आते हैं। सन्निकर्ष और इन्द्रियको प्रमाण मानने वाले लोग ज्ञानको प्रमाण माननेपर एक बड़ी भारी आपत्ति यह देते हैं कि यदि ज्ञानको प्रमाण माना जाता है तो प्रमाण निष्फल हो जाता है। किन्तु उनकी यह आपत्ति भी समीचीन नहीं है, क्योंकि ज्ञानको प्रमाण माननेपर प्रीति, अज्ञाननाश, त्यागबुद्धि, ग्रहणबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि आदि अनेक फल बन जाते हैं। उन्होंने भी जब ज्ञानको प्रमाण माना है तब ये ही फल माने हैं। न्यायभाष्यमें लिखा है कि ‘जब ज्ञान प्रमाण होता है तब हानबुद्धि, उपादानबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि उसके फल प्राप्त होते हैं। इसलिए ज्ञानको ही सर्वत्र प्रमाण मानना चाहिए यही निष्कर्ष निकलता है। इससे पूर्वोक्त सभी दोषोंका निराकरण हो जाता है। इसके अतिरिक्त इस सूत्रकी टीकामें इन बातोंपर और प्रकाश डाला गया है – 1. प्रमाणकी निरुक्ति। 2. जीवादि पदार्थोंके जाननेके लिए जैसे प्रमाण माना गया है वैसे प्रमाणके जानने के लिए अन्य प्रमाण अपेक्षित नहीं, इसका खुलासा। 3. सूत्रमें ‘प्रमाणे’ इस प्रकार द्विवचन रखनेका कारण। ये विषय सुगम हैं।