ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 11
From जैनकोष
173. उक्तस्य पञ्चविधस्य ज्ञानस्य प्रमाणद्व्यान्त:पातित्वे प्रतिपादिते प्रत्यक्षानुमानादिप्रमाणद्वय-कल्पनानिवृत्त्यर्थमाह –
173. पहले कहे गये पाँच प्रकारके ज्ञान दो प्रमाणोंमें आ जाते हैं इस प्रकार सुनिश्चित हो जाने पर भी वे दो प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान आदिक भी हो सकते हें अत: इस कल्पनाको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
आद्ये परोक्षम्।।11।।
प्रथम दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं।।11।।
174. आदिशब्द: प्राथम्यवचन:। आदौ भवमाद्यम्। कथं द्वयो: प्रथमत्वम् ? मुख्योपचारकल्पनया। मतिज्ञानं तावन्मुख्यकल्पनया प्रथमम्। श्रुतमपि तस्य प्रत्यासत्त्या प्रथममित्युपचर्यते। द्विवचननिर्देशसामर्थ्याद् गौणस्यापि ग्रहणम्। आद्यं च आद्यं च आद्ये मतिश्रुते इत्यर्थ:। तदुभयमपि परोक्षं प्रमाणमित्यभिसंबध्यते। कुतोऽस्य परोक्षत्वम् । परायत्तत्वात् ‘‘मतिज्ञानं इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्’’ इति वक्ष्यते ‘’श्रुतमनिन्द्रियस्य’’ इति च। अत: पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्यनिमित्तं प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो मतिश्रुतं उत्पद्यमानं परोक्षमित्याख्यायते। अत उपमानागमा-दीनामत्रैवान्तर्भाव:।
174. आदि शब्द प्राथम्यवाची है। जो आदिमें हो वह आद्य कहलाता है। शंका – दो प्रथम कैसे हो सकते हैं ? समाधान – पहला मुख्यकल्पनासे प्रथम है और दूसरा उपचार कल्पनासे प्रथम है। मतिज्ञान तो मुख्यकल्पनासे प्रथम है और श्रुतज्ञान भी उसके समीपका होनेसे प्रथम है ऐसा उपचार किया जाता है। सूत्रमें ‘आद्ये’ इस प्रकार द्विवचनका निर्देश किया है अत: उसकी सामर्थ्यसे गौणका भी ग्रहण हो जाता है। ‘आद्ये’ पदका समास ‘आद्यं च आद्यं च आद्ये’ है। इससे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों लिये गये हैं। ये दोनों ज्ञान मिलकर परोक्ष प्रमाण हैं ऐसा यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए। शंका – ये दोनों ज्ञान परोक्ष क्यों हैं? समाधान – क्योंकि ये दोनों ज्ञान पराधीन हैं। ‘मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है, यह आगे कहेंगे ओर ‘अनिन्द्रियका विषय श्रुत है’ यह भी आगे कहेंगे। अत: ‘पर’ से यहाँ इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेश आदि बाह्य निमित्त लेने चाहिए। तात्पर्य यह है कि मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माके इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेशादिक बाह्य निमित्तोंकी अपेक्षा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं अत: ये परोक्ष कहलाते हैं। उपमान और आगमादिक भी ऐसे ही हैं अत: इनका भी इन्हींमें अन्तर्भाव हो जाता है।
विशेषार्थ – पिछले सूत्रमें दो प्रकारके प्रमाणोंका उल्लेख कर आये हैं। वे दो प्रमाण कौन हैं और उनमें पाँच ज्ञानोंका कैसे विभाग होता है यह बतलाना शेष है, अत: ग्यारहवें और बारहवें सूत्रों द्वारा यही बतलाया गया है। उसमें भी ग्यारहवें सूत्र द्वारा प्रमाणके पहले भेदकी परोक्ष संज्ञा बतलाकर उसमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका अन्तर्भाव किया गया है। दूसरे लोग जो इन्द्रियोंका अविषय है उसे परोक्ष कहते हैं। किन्तु जैन परम्परामें परोक्षता और प्रत्यक्षता यह ज्ञानका धर्म मानकर उस प्रकारसे उनकी व्याख्या की गयी है। जैन परम्पराके अनुसार, परकी सहायतासे जो अक्ष अर्थात् आत्माके ज्ञान होता है वह परोक्ष ज्ञान कहलाता है परोक्ष शब्दका यह अर्थ लिया गया है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञान ऐसे हैं जो यथासम्भव इन्द्रिय, मन तथा प्रकाश और उपदेश आदिके बिना नहीं हो सकते, अत: ये दोनों परोक्ष माने गये हैं। दार्शनिक ग्रन्थोंमें इन्द्रिय ज्ञानका सांव्यवहारिक प्रत्यक्षरूपसे उल्लेख देखनेको मिलता है। सो यह कथन औपचारिक जानना चाहिए। दूसरे लोगोंने अक्षका अर्थ इन्द्रिय करके इन्द्रियज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है। वहाँ इसी अपेक्षासे इन्द्रिय ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष लिखा गया है ऐसा यहाँ जानना चाहिए। वस्तुत: आत्माके सिवा अन्य निमित्तसे जितना भी ज्ञान होता है वह सब परोक्ष ही है। उपमान, आगम आदि और जितने ज्ञान हैं वे भी अन्यकी अपेक्षाके बिना नहीं होते अत: उनका इन्हीं ज्ञानोंमें अन्तर्भाव हो जानेसे मुख्यत: परोक्ष ज्ञान दो ही ठहरते हैं एक मतिज्ञान और दूसरा श्रुतज्ञान। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि ये ज्ञान केवल बाह्य निमित्तसे नहीं होते हैं। मुख्यतया इनकी उत्पत्तिमें मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम आवश्यक है। आत्माकी ऐसी योग्यता हुए बिना ये ज्ञान नहीं होते। ऐसी योग्यताके होने पर बाह्यनिमित्त सापेक्ष इनकी प्रवृत्ति होती है यह उक्त कथनका सार है।