9. तत्रादावुद्दिष्टस्य सम्यग्दर्शनस्य लक्षणनिर्देशार्थमिदमुच्यते –
9. अब आदिमें कहे गये सम्यग्दर्शनके लक्षणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।।2।।
अपने अपने स्वरूपके अनुसार पदार्थोंका जो श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन है।।2।।
10. तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची। कथम् ? तदिति सर्वनामपदम्। सर्वनाम च सामान्ये वर्तते। तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्य कस्य ? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थ:। अर्यत इत्यर्थो निश्चीयत इति यावत्। तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थ:। अथवा भावेन भाववतोऽभिधानम्, तदव्यतिरेकात्। तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थ:। तत्त्वार्थस्य श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं प्रत्येतव्यम्। तत्त्वार्थश्च वक्षमाणो जीवादि:।
10. तत्त्व शब्द भाव सामान्यका वाचक है, क्योंकि ‘तत्’ यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थमें रहता है अत: उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहाँ ‘तत्’ पदसे कोई भी पदार्थ लिया गया है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसका उस रूप होना यही तत्त्व शब्दका अर्थ है। अर्थ शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है... अर्यते निश्चीयते इत्यर्थ: - जो निश्चय किया जाता है। यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्दोंके संयोगसे तत्त्वार्थ शब्द बना है जो ‘तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थ:’ ऐसा समास करने पर प्राप्त होता है। अथवा भाव-द्वारा भाववाले पदार्थ का कथन किया जाता है, क्योंकि भाव भाववाले से अलग नहीं पाया जाता। ऐसी हालतमें इसका समास होगा ‘तत्त्वमेव अर्थ: तत्त्वार्थ:’। तत्त्वार्थका श्रद्धान तत्त्वार्थश्रद्धान कहलाता है। उसे ही सम्यग्दर्शन जानना चाहिए। तत्त्वार्थ आगे कहे जाने वाले जीवादि हैं ।
11. दृशेरालोकार्थत्वात् श्रद्धानार्थगतिर्नोपपद्यते ? धातूनामनेकार्थत्वाददोष:। प्रसिद्धार्थत्याग: कुत इति चेत् ? मोक्षमार्गप्रकरणात्। तत्त्वार्थश्रद्धानं ह्यात्मपरिणामो मोक्षसाधनं युज्यते, भव्यजीवविषयत्वात्। आलोकस्तु चक्षुरादिनिमित्त: सर्वसंसारिजीवसाधारणत्वान्न मोक्षमार्गो युक्त:।
11. शंका- दर्शन शब्द ‘दृशि’ धातुसे बना है जिसका अर्थ आलोक है, अत: इससे श्रद्धानरूप अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है ? समाधान – धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं, अत: ‘दृशि’ धातुका श्रद्धानरूप अर्थ करनेमें कोई दोष नहीं है। शंका – यहाँ ‘दृशि’ धातुका प्रसिद्ध अर्थ क्यों छोड़ दिया है ? समाधान – मोक्षमार्गका प्रकरण होनेसे। तत्त्वार्थोंका श्रद्धान आत्माका परिणाम है वह मोक्षका साधन बन जाता है, क्योंकि वह भव्योंके ही पाया जाता है, किन्तु आलोक चक्षु आदिके निमित्तसे होता है जो साधारण रूपसे सब संसारी जीवोंके पाया जाता है, अत: उसे मोक्षमार्ग मानना युक्त नहीं है।
12. अर्थश्रद्धानमिति चेत् ? सर्वार्थप्रसंग:। तत्त्वश्रद्धानमिति चेत् ? भावमात्रप्रसंग:। ‘सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादि तत्त्वम्’ इति कैश्चित्कल्प्यत इति। तत्त्वमेकत्वमिति वा सर्वैक्यग्रहणप्रसंग:। ‘पुरुष एवेदं सर्वम्’ इत्यादि कैश्चित्कल्प्यत इति। एवं सति दृष्टेष्टविरोध:। तस्मादव्यभिचारार्थमुभयोरुपादानम्। तद् द्विविधं, सरागवीतरागविषयभेदात् प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम्। आत्मविशुद्धिमात्रमितरत्।
12. शंका – सूत्रमें ‘तत्त्वार्थश्रद्धानम्’ के स्थानमें ‘अर्थश्रद्धानम्’ इतना कहना पर्याप्त है ? समाधान – इससे अर्थ शब्दके धन, प्रयोजन और अभिधेय आदि जितने भी अर्थ हैं उन सबके ग्रहणका प्रसंग आता है जो युक्त नहीं है, अत: ‘अर्थश्रद्धानम्’ केवल इतना नहीं कहा है। शंका – तब ‘तत्त्वश्रद्धानम्’ इतना ही ग्रहण करना चाहिए ? समाधान – इससे केवल भाव मात्र के ग्रहण का प्रसंग प्राप्त होता है। कितने ही लोग (वैशेषिक) तत्त्व पदसे सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व इत्यादि का ग्रहण करते हैं। अब यदि सूत्रमें ‘तत्त्वश्रद्धानम्’ इतना ही रहने दिया जाता है तो इससे इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है जो युक्त नहीं है। अथवा तत्त्व शब्द एकत्ववाची है, इसलिये सूत्रमें केवल तत्त्व पदके रखने से ‘सब सर्वथा एक हैं’ इस प्रकार स्वीकार करनेका प्रसंग प्राप्त होता है। ‘यह सब दृश्य व अदृश्य जग पुरुषस्वरूप ही है’ ऐसा किन्हींने माना भी है। किन्तु ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष और अनुमानसे विरोध आता है, अत: इन सब दोषोंके दूर करने के लिए सूत्रमें ‘तत्त्व’ और ‘अर्थ’ इन दोनों पदोंका ग्रहण किया है। सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है – सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति लक्षणवाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्माकी विशुद्धिमात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है।
विशेषार्थ – इस सूत्रमें सम्यग्दर्शनके लक्षणका निर्देश करते हुए बतलाया है कि जीवादि पदार्थोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए टीकामें मुख्यतया चार बातोंको स्पष्ट किया गया है। वे चार बातें ये हैं – 1. तत्त्व और अर्थ शब्दके निरुक्त्यर्थका निर्देश करके तत्त्वार्थ शब्द कैसे निष्पन्न हुआ है ? 2. ‘दृशि’ धातुका अर्थ श्रद्धान करना क्यों लिया गया है ? 3. तत्त्व और अर्थ इन दोनों पदोंको स्वीकार करनेसे क्या लाभ है ? 4. सम्यग्दर्शनके कितने भेद हैं और उनका क्या स्वरूप है? प्रकृतमें यद्यपि ‘तत्’ सर्वनाम पद है और ‘त्व’ प्रत्यय भाव अर्थमें आया है, अत: ‘तत्त्व’ शब्द भाव सामान्यका वाचक है और अर्थपद द्रव्यवाची है। तथापि अर्थ शब्दके धन, प्रयोजन, अभिधेय, निवृत्ति, विषय, प्रकार और वस्तु आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं, अत: इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन न कहलावे, इसलिए तो सूत्रकारने सूत्रमें केवल अर्थपद नहीं रखा है। इसी प्रकार विभिन्न मतोंमें तत्त्व शब्दके भी अनेक अर्थ प्रसिद्ध हैं। वैशेषिक लोग ‘तत्त्व‘ पदसे सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्वका ग्रहण करते हैं। उनके यहाँ सामान्य और विशेष ये दोनों स्वतन्त्र पदार्थ माने गये हैं। अब यदि सूत्रमें केवल ‘तत्त्व’ पद रखा जाता है तो सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व इनका श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन समझा जा सकता है जो युक्त नहीं है, इसलिए सूत्रकारने सूत्रमें केवल तत्त्वपद नहीं रखा है। इसी प्रकार परमब्रह्मवादियोंने नाना तत्त्वोंको न मानकर ब्रह्मनामका एक ही तत्त्व माना है। उनके मतसे यह जग एक पुरुषरूप ही है, इसलिए इस हिसाबसे विचार करनेपर ‘तत्त्व’ पद ब्रह्मका वाची प्राप्त होता है जो युक्त नहीं है, इसलिए भी सूत्रकारने सूत्रमें केवल तत्त्वपद नहीं रखा है। यहाँ तत्त्वार्थसे जीवादिक वे सब पदार्थ लिये गये हैं जिनका आगे चौथे सूत्रमें वर्णन किया है। परमार्थरूप का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है यह इस सूत्रका तात्पर्य है।
सम्यग्दर्शनमें दर्शन शब्द आया है। उसका एक अर्थ आलोक होता है तथापि यहाँ इसका श्रद्धान अर्थ लिया गया है, क्योंकि दर्शनका आलोक अर्थ लेनेपर चक्षु आदिके निमित्तसे होनेके कारण वह चक्षुरिन्द्रिय आदि सब संसारी जीवोंके प्राप्त होता है, अत: प्रकृतमें वह उपयोगी नहीं ठहरता। किन्तु तत्त्वार्थ विषयक श्रद्धान भव्योंमें भी किसी-किसी आसन्नभव्यके ही पाया जाता है जो प्रकृतमें उपयोगी है, अत: यहाँ दर्शनका अर्थ आलोक न करके श्रद्धान किया है। आशय यह है कि जीवादि नौ पदार्थोंमें भूतार्थरूपसे एक त्रिकाली अखण्ड आत्मा ही प्रद्योतित हो रहा है, अत: ऐसे निजात्माकी अनुभूति ही सम्यग्दर्शन है। प्रत्येक आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है, अत: ज्ञानानुभूति ही आत्मानुभूति है और वही सम्यग्दर्शन है यह इसका भाव है।
प्रकृतमें सम्यग्दर्शनके जो दो भेद किये गये हैं – एक सराग सम्यग्दर्शन और दूसरा वीतराग सम्यग्दर्शन सो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये चार ऐसे चिह्न हैं जो आत्मविशुद्धिरूप परमार्थ सम्यग्दर्शनके ज्ञापक हैं। इसलिए इस अपेक्षा व्यवहार से इन्हें भी सम्यग्दर्शन कहा गया है। किन्तु इसे जो परमार्थस्वरूप जानते हैं यह उनकी भूल है। नियम यह है कि जितनी सम्यग्दर्शनादि स्वभावपर्याय होती है, वे मात्र स्वत: सिद्ध, अनादि-अनन्त, कर्म से अनावृत होनेके कारण नित्य उद्योतस्वरूप और विशद ज्योतिज्ञापक आत्माका अपने उपयोगका अवलम्बन लेनेसे ही उत्पन्न होती हैं। इसीलिए मूलमें सम्यग्दर्शनरूप स्वभावपर्यायको आत्मविशुद्धिमात्र कहा है, क्योंकि यह मिथ्यात्व आदि कर्मोंके उदयमें न होकर उनके उपशम, क्षय और क्षयोपशमके होने पर ही होता है। इतना अवश्य है कि यह सम्यग्दर्शन चौथे आदि गुणस्थानोंमें भी पाया जाता है, अत: इसके सद्भावमें जो पराश्रित प्रशमादि भाव होते हैं, वे इसके ज्ञापक या सूचक होनेसे निमित्तपनेकी अपेक्षा कारणमें कार्यका उपचार करके इन्हें व्यवहारसे सराग सम्यग्दर्शन कहा गया है। रागादिकी तीव्रताका न होना प्रशमभाव है। संसारसे भीतरूप परिणामका होना संवेगभाव है। सब जीवों में दयाभाव रख कर प्रवृत्ति करना अनुकम्पा है और जीवादिपदार्थ सत्स्वरूप हैं, लोक अनादि अनिधन है, इसका कर्ता कोई नहीं है तथा निमित्त–नैमित्तिक भावके रहते हुए भी अपने परिणामस्वभावके कारण सबका परिणमन स्वयं होता है, आगम और सद्गुरुके उपदेशानुसार ऐसी प्रांजल बुद्धिका होना आस्तिक्यभाव है।