ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 20
From जैनकोष
205. आह निर्दिष्टं मतिज्ञानं लक्षणतो विकल्पतश्च; तदनन्तरमुद्दिष्टं यत् श्रुतं तस्येदानीं लक्षणं विकल्पश्च वक्तव्य इत्यत आह--
205. लक्षण और भेदोंकी अपेक्षा मतिज्ञानका कथन किया। अब उसके बाद क्रम प्राप्त श्रुतज्ञानके लक्षण और भेद कहने चाहिए; इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं –
श्रुतं मतिपूर्वं द्व्यनेकद्वादशभेदम्।।20।।
श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। वह दो प्रकारका; अनेकप्रकारका और बारह प्रकारका है।।20।।
206. श्रुतशब्दोऽयं श्रवणमुपादाय व्युत्पादितोऽपि रूढिवशात् कस्मिंश्चिज्ज्ञानविशेषे वर्तते। यथा कुशलवनकर्म प्रतीत्य व्युत्पादितोऽपि कुशलशब्दो रूढिवशात्पर्यवदाते वर्तते। क: पुनरसौ ज्ञानविशेष इति ? अत आह ‘श्रुतं मतिपूर्वम्’ इति। श्रुतस्य प्रमाणत्वं पूरयतीति पूर्व निमित्तं कारणमित्यनर्थान्तरम्। मतिर्निर्दिष्टा। मति: पूर्वमस्य मतिपूर्वं मतिकारणमित्यर्थ:। यदि मतिपूर्वं श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति ‘कारणसदृशं हि लोके कार्यं दृष्टम्’ इति। नैतदैकान्तिकम्। दण्डादिकारणोऽयं घटो न दण्डाद्यात्मक:। अपि च सति तस्मिंस्तदभावात्। सत्यपि मतिज्ञाने बाह्यश्रुतज्ञाननिमित्तसंनिधानेऽपि प्रबलश्रुतावरणोदयस्य श्रुताभाव:। श्रुतावरणक्षयोपशमप्रकर्षे तु सति श्रुतज्ञानमुत्पद्यत इति मतिज्ञानं निमित्तमात्रं ज्ञेयम्।
206. यह ‘श्रुत’ शब्द सुननेरूप अर्थकी मुख्यतासे निष्पादित है तो भी रूढ़िसे भी उसका वाच्य कोई ज्ञानविशेष है। जैसे ‘कुशल’ शब्दका व्युत्पत्ति अर्थ कुशाका छेदना है तो भी रूढ़िसे उसका अर्थ पर्यवदात अर्थात् विमल या मनोज्ञ लिया जाता है। वह ज्ञानविशेष क्या है इस बात को ध्यानमें रखकर ‘श्रुतं मतिपूर्वम्’ यह कहा है। जो श्रुतकी प्रमाणताको पूरता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार पूर्व, निमित्त और कारण ये एकार्थवाची हैं। मतिका व्याख्यान पहले कर आये हैं। वह मति जिसका पूर्व अर्थात् निमित्त है वह मतिपूर्व कहलाता है जिसका अर्थ मतिकारणक होता है। तात्पर्य यह है कि जो मतिज्ञानके निमित्तसे होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। शंका – यदि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तो श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोकमें कारणके समान ही कार्य देखा जाता है ? समाधान – यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारणके समान कार्य होता है। यद्यपि घटकी उत्पत्ति दण्डादिकसे होती है तो भी वह दण्डाद्यात्मक नहीं होता। दूसरे, मतिज्ञानके रहते हुए भी श्रुतज्ञान नहीं होता। यद्यपि मतिज्ञान रहा आता है और श्रुतज्ञानके बाह्य निमित्त भी रहे आते हैं तो भी जिसके श्रुतज्ञानावरणका प्रबल उदय पाया जाता है उसके श्रुतज्ञान नहीं होता। किन्तु श्रुतज्ञानावरण कर्मका प्रकर्ष क्षयोपशम होनेपर ही श्रुतज्ञान होता है इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्तमात्र जानना चाहिए।
207. आह, श्रुतमनादिनिधनमिष्यते। तस्य मतिपूर्वकत्वे तदभाव:; आदिमतोऽन्तवत्त्वात्। ततश्च पुरुषकृतित्वादप्रामाण्यमिति ? नैष दोष:; द्रव्यादिसामान्यार्पणात् श्रुतमनादिनिधनमिष्यते। न हि केनचित्पुरुषेण क्वचित्कदाचित्कथंचिदुत्प्रेक्षितमिति। तेषामेव विशेषापेक्षया आदिरन्तश्च संभवतीति ‘मतिपूर्वम्’ इत्युच्यते। यथाङ्कुरो बीजपूर्वक: स च संतानापेक्षया अनादिनिधन इति। न चापौरुषेयत्वं प्रामाण्यकारणम्; चौर्याद्युपदेशस्यास्मर्यमाणकर्तृकस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात्। अनित्यस्य च प्रत्यक्षादे: प्रामाण्ये को विरोध:।
207. शंका – श्रुतज्ञानको अनादिनिधन कहा है। ऐसी अवस्थामें उसे मतिज्ञानपूर्वक मान लेने पर उसकी अनादिनिधनता नहीं बनती, क्योंकि जिसका आदि होता है उसका अन्त अवश्य होता है। और इसलिए वह पुरुषका कार्य होनेसे उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता। समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्य आदि सामान्य नयकी मुख्यतासे श्रुतको अनादिनिधन कहा है। किसी पुरुषने कहीं और कभी किसी भी प्रकारसे उसे किया नहीं है। हाँ उन्हीं द्रव्य आदि विशेष नयकी अपेक्षा उसका आदि और अन्त सम्भव है इसलिए ‘वह मतिपूर्वक होता है’ ऐसा कहा जाता है। जैसे कि अंकुर बीजपूर्वक होता है, फिर भी वह सन्तानकी अपेक्षा अनादिनिधन है। दूसरे, जो यह कहा है कि पुरुषका कार्य होनेसे वह अप्रमाण है सो अपौरुषेयता प्रमाणताका कारण नहीं है। यदि अपौरुषेयताको प्रमाणताका कारण माना जाय तो जिसके कर्ताका स्मरण नहीं होता ऐसे चोरी आदिके उपदेश भी प्रमाण हो जाएँगे। तीसरे, प्रत्यक्ष आदि ज्ञान अनित्य होकर भी यदि प्रमाण माने जाते हैं तो इसमें क्या विरोध है, अर्थात् कुछ भी नहीं।
208. आह, प्रथमसम्यक्त्वोत्पत्तौ युगपज्ज्ञानपरिणामान्मतिपूर्वकत्वं श्रुतस्य नोपपद्यत इति ? तदयुक्तम्; सम्यक्त्वस्य तदपेक्षत्वात्। आत्मलाभस्तु क्रमवानिति मतिपूर्वकत्वव्याघाताभाव:।
208. शंका – प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके साथ ही ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, अत: श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है यह कथन नहीं बनता ? समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञानमें समीचीनता सम्यग्दर्शनके निमित्तसे प्राप्त होती है। इन दोनोंका आत्मलाभ तो क्रमसे ही होता है, इसलिए ‘श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है’ इस कथनका व्याघात नहीं होता।
209. आह, मतिपूर्वं श्रुतमित्येतल्लक्षणमव्यापि श्रुतपूर्वमपि श्रुतमिष्यते। तद्यथा—शब्दपरिणतपुद्गलस्कन्धादाहितवर्णपदवा क्यादिभावाच्चक्षुरादिविषयाच्च आद्यश्रुतविषयभावमापन्ना-दव्यभिचारिण: कृतसंगीतिर्जनो घटाज्जलधारणादि कार्यं संबन्ध्यन्तरं प्रतिपद्यते, धूमादेर्वाग्न्यादिद्रव्यं, तदा श्रुतात् श्रुतप्रतिपत्तिरिति ? नैष दोष:; तस्यापि मतिपूर्वकत्वमुपचारत:। श्रुतमपि क्वचिन्मतिरित्युपचर्यते, मतिपूर्वकत्वादिति।
209. शंका – ‘मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है’ इस लक्षणमें अव्याप्ति दोष आता है क्योंकि श्रुतज्ञानपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है ऐसा कहा जाता है। यथा – किसी एक जीवने वर्ण, पद और वाक्य आदिरूपसे शब्द परिणत पुद्गल स्कन्धोंको कर्ण इन्द्रिय-द्वारा ग्रहण किया। अनन्तर उससे घटपदार्थविषयक प्रथम श्रुतज्ञान हुआ। यदि उसने घटके कार्योंका संकेत कर रखा है तो उसे उस घटज्ञानके बाद जलधारणादि दूसरे कार्योंका ज्ञान होता है और तब श्रुतज्ञानसे श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। या किसी एक जीवने चक्षु आदि इन्द्रियोंके विषयका ग्रहण किया। अनन्तर उसे उससे धूमादि पदार्थविषयक प्रथम श्रुतज्ञान हुआ। यदि उसे धूमादि और अग्नि आदि द्रव्यके सम्बन्धका ज्ञान है तो वह धूमादिके निमित्तसे अग्नि आदि द्रव्यको जानता है और तब भी श्रुतज्ञानसे श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है यह बात नहीं बनती ? समाधान – यह कोर्इ दोष नहीं है, क्योंकि जहाँपर श्रुतज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है वहाँपर प्रथम श्रुतज्ञान उपचारसे मतिज्ञान माना गया है। श्रुतज्ञान भी कहींपर मतिज्ञानरूपसे उपचरित किया जाता है क्योंकि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है ऐसा नियम है।
210. भेदशब्द: प्रत्येकं परिसमाप्यते—द्विभेदमनेकभेदं द्वादशभेदमिति। द्वि भेदं तावत्—अङ्गबाह्यमङ्गप्रविष्टमिति। अङ्गबाह्यमनेकविधं दशवैकालिकोत्तराध्ययनादि। अङ्गप्रविष्टं द्वादशविधम्। तद्यथा, आचार: सूत्रकृतं स्थानं समवाय: व्याख्याप्रज्ञप्ति: ज्ञातृधर्मकथा उपासकाध्ययनं अन्तकृद्दशं अनुत्तरौपपादिकदशं प्रश्नव्याकरणं विपाकसूत्रं दृष्टिवाद इति। दृष्टिवाद: पञ्चविध: --परिकर्म सूत्रं प्रथमानुयोग: पूर्वगतं चूलिका चेति। तत्र पूर्वगतं चतुर्दशविधम्—उत्पादपूर्वं अग्रायणीयं वीर्यानुप्रवादं अस्तिनास्तिप्रवादं ज्ञानप्रवादं सत्यप्रवादं आत्मप्रवादं कर्मप्रवादं प्रत्याख्याननामधेयं विद्यानुवादं कल्याणनामधेयं प्राणावायं क्रियाविशालं लोकबिन्दुसारमिति। तदेतत् श्रुतं द्विभेदमनेकभेदं द्वादशभेदमिति।
210. सूत्रमें आये हुए ‘भेद’ शब्दको दो आदि प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा – दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद। श्रुतज्ञानके दो भेद अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट हैं। अंगबाह्यके दशवैकालिक और उत्तराध्यययन आदि अनेक भेद है। अंगप्रविष्टके बारह भेद हैं। यथा – आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दश, अनुत्तरौपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। दृष्टिवादके पाँच भेद हैं – परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। इनमें-से पूर्वगतके चौदह भेद हैं – उत्पादपूर्व, आग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। इस प्रकार यह श्रुत दो प्रकारका , अनेक प्रकारका और बारहप्रकारका है।
211. किंकृतोऽयं विशेष: ? वक्तृविशेषकृत:। त्रयो वक्तार:--सर्वज्ञस्तीर्थकर इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति। तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञानविभूतिविशेषेण अर्थत आगम उद्दिष्ट:। तस्य प्रत्यक्षदर्शित्वात्प्रक्षीणदोषत्वाच्च प्रामाण्यम्। तस्य साक्षाच्छिष्यैर्बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तैर्गणधरै: श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्थरचनमङ्गपूर्वलक्षणम्। तत्प्रमाणम्; तत्प्रामाण्यात्। आरातीयै: पुनराचार्यै: कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थं दशवैकालिकाद्युपनिबद्धम्। तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव।
211. शंका – यह भेद किंकृत है ? समाधान – यह भेद वक्ताविशेषकृत है। वक्ता तीन प्रकारके हैं – सर्वज्ञ, तीर्थंकर या सामान्य केवली तथा श्रुतकेवली और आरातीय। इनमें-से परम ऋषि सर्वज्ञ उत्कृष्ट और अचिन्त्य केवलज्ञानरूपी विभूतिविशेषसे युक्त है। इस कारण उन्होंने अर्थरूपसे आगमका उपदेश दिया । ये सर्वज्ञ प्रत्यक्षदर्शी और दोषमुक्त हैं, इसलिए प्रमाण हैं। इनके साक्षात् शिष्य और बुद्धिके अतिशयरूप ऋद्धिसे युक्त गणधर श्रुतकेवलियोंने अर्थरूप आगमका स्मरण कर अंग और पूर्वग्रन्थोंकी रचना की। सर्वज्ञदेवकी प्रमाणताके कारण ये भी प्रमाण हैं। तथा आरातीय आचार्योंने कालदोषसे जिनकी आयु, मति और बल घट गया है ऐसे शिष्योंका उपकार करनेके लिए दशवैकालिक आदि ग्रन्थ रचे। जिस प्रकार क्षीरसागरका जल घटमें भर लिया जाता है उसी प्रकार ये ग्रन्थ भी अर्थरूपसे वे ही हैं, इसलिए प्रमाण हैं।
विशेषार्थ – मतिज्ञान श्रुतज्ञानका कारण किस रूपमें है, मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें अन्तर क्या है, श्रुत अनादिनिधन और सादि कैसे है, श्रुतके भेद कितने और कौन-कौन हैं, श्रुतमें प्रमाणता कैसे आती है इत्यादि बातोंका विशेष विचार तो मूलमें किया ही है। यहाँ केवल विचारणीय विषय यह है कि श्रुतज्ञानका निरूपण करते समय सूत्रकारने केवल द्रव्य आगम श्रुतका ही निरूपण क्यों किया ? अनुमान आदि ऐसे बहुत-से ज्ञान हैं जिनका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानमें किया जाता है फिर उनका निर्देश यहाँ क्यों नहीं किया ? क्या श्रुतज्ञान द्रव्य आगम श्रुतके ज्ञान तक ही सीमित है और अनुमान आदिका अन्तर्भाव सूत्रकारके मतानुसार मतिज्ञानमें होता है ? ये ऐसे विचारणीय प्रश्न हैं जिनका प्रकृतमें समाधान करना आवश्यक है। बात यह है कि जैन परम्परामें द्रव्य आगम श्रुतकी प्रधानता सदासे चली आ रही है, इसलिए सूत्रकारने श्रुतज्ञानके निरूपणके समय उसका प्रमुखतासे निर्देश किया है। पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि श्रुतज्ञान द्रव्य आगम श्रुतके ज्ञान तक ही सीमित है। मतिके सिवा मतिपूर्वक होनेवाले अन्य अनुमान आदि सब परोक्ष ज्ञानोंका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानमेंही होता है, क्योंकि इन ज्ञानोंमें हेतु आदिका प्रत्यक्ष ज्ञान आदि होने पर ही इन ज्ञानोंकी प्रवृत्ति होती है। उदाहरणार्थ, नेत्र इन्द्रियसे धूमका ज्ञान होता है। अनन्तर व्याप्तिका स्मरण होता है तब जाकर ‘यहाँ अग्नि होनी चाहिए’ यह अनुमान होता है। कहीं-कहीं मतिज्ञानमें भी इनके अन्तर्भावका निर्देश मिलता है पर वह कारणरूपसे ही जानना चाहिए। मतिज्ञान श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्त है, इसलिए कारणमें कार्यका उपचार करके कहीं-कहीं अनुमान आदिका भी मतिज्ञानरूपसे निर्देश किया जाता है। एक बात और विचारणीय है, वह यह कि यह श्रुतज्ञानका प्रकरण है द्रव्यश्रुतका नहीं, इसलिए यहाँ सूत्रकारने श्रुतज्ञानके भेद न दिखलाकर द्रव्यश्रुतके भेद क्यों दिखलाये ? उत्तर यह है कि श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमका और द्रव्यश्रुतका अन्योन्य सम्बन्ध है। क्षयोपशमके अनुसार होनेवाले श्रुतज्ञानको ध्यानमें रखकर ही द्रव्यश्रुतका विभाग किया गया है। यही कारण है कि यहाँ श्रुतज्ञानका प्रकरण होते हुए भी द्रव्यश्रुतके भेद गिनाये गये हैं। इस बातकी विशेष जानकारीके लिए गोम्मटसार जीवकाण्डमें निर्दिष्ट ज्ञानमार्गणा द्रष्टव्य है।