ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 23
From जैनकोष
216. एवं व्याख्यातमवधिज्ञानं, तदनन्तरंमिदानीं मन:पर्ययज्ञानं वक्तव्यम्। तस्य भेदपुर:सरं लक्षणं व्याचिख्यासुरिदमाह -
216. इस प्रकार अवधिज्ञानका व्याख्यान किया। अब आगे मन:पर्ययज्ञानका व्याख्यान करना चाहिए, अत: उसके भेदोंके साथ लक्षणका कथन करनेकी इच्छासे आगेका सूत्र कहते हैं –
ऋजुविपुलमती मन:पर्यय:।।23।।
ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्ययज्ञान है।।23।।
217. ऋज्वी निर्वर्तिता प्रगुणा च। कस्मान्निर्वर्तिता ? वाक्कायमन:कृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानात्। ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽयं ऋजुमति:। अनिर्वर्तिता कुटिला च विपुला। कस्मादनिर्वर्तिता ? वाक्कायमन:कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञानात्। विपुला मतिर्यस्य सोऽयं विपुलमति:। ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च ऋजुविपुलमती। एकस्य मतिशब्दस्य गतार्थत्वादप्रयोग:। अथवा ऋजुश्च विपुला च ऋजुविपुले। ऋजुविपुले मती ययोस्तौ ऋजुविपुलमती इति। स एष मन:पर्यययो द्विविध: ऋजुमतिर्विपुलमतिरिति।
217. ऋजुका अर्थ निर्वर्तित और प्रगुण है। शंका – किससे निर्वर्तित ? समाधान – दूसरेके मनको प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थके विज्ञानसे निर्वर्तित। जिसकी मति ऋजु है वह ऋजुमति कहलाता है। विपुलका अर्थ अनिर्वर्तित और कुटिल है। शंका – किससे अनिर्वर्तित ? समाधान – दूसरेके मनको प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थके विज्ञानसे अनिर्वर्तित। जिसकी मति विपुल है वह विपुलमति कहलाता है। सूत्रमें जो ‘ऋजुविपुलमती’ पद आया है वह ऋजुमति और विपुलमति इन पदोंसे समसित होकर बना है। यहाँ एक ही मति शब्द पर्याप्त होनेसे दूसरे मति शब्दका प्रयोग नहीं किया । अथवा ऋजु और विपुल शब्दका कर्मधारय समास करनेके बाद इनका मति शब्दके साथ बहुव्रीहि समास कर लेना चाहिए। तब भी दूसरे मति शब्दकी आवश्यकता नहीं रहती। यह मन:पर्ययज्ञान दो प्रकारका है – ऋजुमति और विपुलमति।
218. आह, उक्तो भेद:, लक्षणमिदानीं वक्तव्यमित्यत्रोच्यते – वीर्यान्तरायमन:पर्ययज्ञानावरण-क्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भादात्मन: परकीयमन:संबन्धेन लब्धवृत्तिरुपयोगो मन:पर्यय:। मतिज्ञानप्रसंग इति चेत् ? उक्तोत्तरं पुरस्तात्। अपेक्षाकारणं मन इति। परकीयमनसि व्यवस्थितोऽर्थ: अनेन ज्ञायते इत्येतावदत्रापेक्ष्यते । तत्र ऋजुमतिर्मन:पर्यय: कालतो जघन्येन जीवानामात्मनश्च द्वित्राणि भवग्रहणानि, उत्कर्षेण सप्ताष्टौ गत्यागत्यादिभि: प्ररूपयति। क्षेत्रतो जघन्येन गव्यूतिपृथक्त्वं, उत्कर्षेण योजनपृथक्त्वस्याभ्यन्तरं, न बहि:। द्वितीय: कालतो जघन्येन सप्ताष्टौ भवग्रहणानि, उत्कर्षेणासंख्येयानि गत्यागत्यादिभि: प्ररूपयति। क्षेत्रतो जघन्येन योजनपृथक्त्वं, उत्कर्षेण मानुषोत्तरशैलस्याभ्यन्तरं, न बहि:।
218. शंका – मन:पर्ययज्ञानके भेद तो कह दिये । अब उसका लक्षण कहना चाहिए। समाधान – वीर्यान्तराय और मन:पर्यय ज्ञानावरणके क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके आलम्बनसे आत्मामें जो दूसरेके मनके सम्बन्धसे उपयोग जन्म लेता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। शंका – यह ज्ञान मनके सम्बन्धसे होता है, अत: इसे मतिज्ञान होनेका प्रसंग आता है ? समाधान – नहीं, क्योंकि इस शंकाका उत्तर पहले दे आये हैं। अर्थात् यहाँ मनकी अपेक्षामात्र है। दूसरेके मनमें अवस्थित अर्थको यह जानता है इतनी मात्र यहाँ मनकी अपेक्षा है। इनमेंसे ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान कालकी अपेक्षा जघन्यसे जीवोंके और अपने दो तीन भवोंको ग्रहण करता है, उत्कृष्टसे गति और आगतिकी अपेक्षा सात-आठ भवोंका कथन करता है। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यसे गव्यूतिपृथक्त्व और उत्कृष्टसे योजनपृथक्त्वके भीतरकी बात जानता है, इससे बाहरकी नहीं। विपुलमति कालकी अपेक्षा जघन्यसे सात-आठ भवोंको ग्रहण करता है, उत्कृष्टसे गति और आगतिकी अपेक्षा असंख्यात भवोंका कथन करता है। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यसे योजनपृथक्त्व और उत्कृष्टसे मानुषोत्तर पर्वतके भीतरकी बात जानता है, इससे बाहरकी बात नहीं जानता।
विशेषार्थ – तत्त्वार्थसूत्रके छठवें अध्यायके दसवें सूत्रके राजवार्तिकमें शंका-समाधानके प्रसंगसे मन:पर्ययज्ञानकी चर्चा की है। वहाँ बतलाया है कि मन:पर्ययज्ञान अपने विषयमें अवधिज्ञानके समान स्वमुखसे प्रवृत्त नहीं होता है। किन्तु दूसरेके मनके सम्बन्धसे ही प्रवृत्त होता है, इसलिए जैसे मन अतीत और अनागत विषयोंका विचार तो करता है, पर साक्षात्कार नहीं करता। उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्यत् विषयोंको जानता तो है पर सीधे तौरसे साक्षात्कार नहीं करता। इसी प्रकार यह वर्तमान विषयको भी मनोगत होने पर विशेषरूपसे जानता है। राजवार्तिकका यह कथन इतना स्पष्ट है जिससे मन:पर्ययज्ञानकी उपयोगात्मक दशाका स्पष्ट आभास मिल जाता है। इसका आशय यह है कि करता तो है यह मनकी पर्यायोंको ही विषय किन्तु तद्द्वारा पदार्थोंका ज्ञान हो जाता है। इसके दो भेद हैं – ऋजुमति और विपुलमति।