ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 24
From जैनकोष
219. उक्तयोरनयो: पुनरपि विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह –
219. पहले मन:पर्ययज्ञानके दो भेद कहे हैं उनका और विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेष:।।24।।
विशुद्धि और अप्रतिपातकी अपेक्षा इन दोनोंमें अन्तर है।।24।।
220. तदावरणक्षयोपशमे सति आत्मन: प्रसादो विशुद्धि:। प्रतिपतनं प्रतिपात:। न प्रतिपात: अप्रतिपात:। उपशान्तकषायस्य चारित्रमोहोद्रेकात्प्रच्युतसंयमशिखरस्य प्रतिपातो भवति। क्षीणकषायस्य प्रतिपातकारणाभावादप्रतिपात:। विशुद्धिश्च अप्रतिपातश्च विशुद्ध्यप्रतिपातौ। ताभ्यां विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्याम्। तयोर्विशेषस्तद्विशेष:। तत्र विशुद्ध्या तावत् – ऋजुमतेर्विपुलमति-र्द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्विशुद्धतर:। कथम् ? इह य: कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्त्य: सर्वावधिना ज्ञातस्तस्य पुनरनन्तभागीकृतस्यान्त्यो भाग ऋजुमतेर्विषय:। तस्य ऋजुमतिविषयस्यानन्तभागीकृतस्यान्त्यो भागो विपुलमतेर्विषय:। अनन्तस्यानन्तभेदत्वात्। द्रव्यक्षेत्रकालतो विशुद्धिरुक्ता। भावतो विशुद्धि: सूक्ष्मतरद्रव्यविषयत्वादेव वेदितव्या, प्रकृष्टक्षयोपशमविशुद्धियोगात्। अप्रतिपातेनापि विपुलमतिर्विशिष्ट:; स्वामिना प्रवर्द्धमानचारित्रोदयत्वात्। ऋजुमति: पुन: प्रतिपाती; स्वामिनां कषायोद्रेककाद्धीयमानचारित्रोदयत्वात्।
220. मन:पर्ययज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर जो आत्मामें निर्मलता आती है उसे विशुद्धि कहते हैं। गिरनेका नाम प्रतिपात है और नहीं गिरना अप्रतिपात कहलाता है। उपशान्तकषाय जीवका चारित्र मोहनीयके उदयसे संयम शिखर छूट जाता है, जिससे प्रतिपात होता है और क्षीणकषाय जीवका पतनका कारण न होनेसे प्रतिपात नहीं होता। इन दोनोंकी अपेक्षा ऋजुमति ओर विपुलमतिमें भेद है। विशुद्धि यथा – ऋजुमतिसे विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा विशुद्धतर है। शंका – कैसे ? समाधान – यहाँ जो कार्मण द्रव्यका अनन्तवाँ अन्तिम भाग सर्वावधिज्ञानका विषय है उसके भी अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है वह ऋजुमतिका विषय है। और इस ऋजुमतिके विषयके अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है वह विपुलमतिका विषय है। अनन्तके अनन्त भेद हैं अत: ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय बन जाते हैं। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा विशुद्धि कही। भावकी अपेक्षा विशुद्धि उत्तरोत्तर सूक्ष्म द्रव्यको विषय करनेवाला होनेसे ही जान लेनी चाहिए, क्योंकि इनके उत्तरोत्तर प्रकृष्ट क्षयोपशम रूप विशुद्धि पायी जाती है, इसलिए ऋजुमतिसे विपुलमतिमें विशुद्धि अधिक होती है। अप्रतिपातकी अपेक्षा भी विपुलमति विशिष्ट है; क्योंकि इसके स्वामियोंके प्रवर्धमान चारित्र पाया जाता है। परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है; क्योंकि इसके स्वामियोंके कषायके उदयसे घटता हुआ चारित्र पाया जाता है।
विशेषार्थ – यहाँ मन:पर्यय ज्ञानके दोनों भेदोंमें अन्तर दिखलाया गया है। ऋजुमति स्थूल ज्ञान है और विपुलमति सूक्ष्मज्ञान । इसीसे इसका भेद स्पष्ट हो जाता है। यह विशुद्धिकृत भेद है। इससे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा पदार्थका ज्ञान करनेमें अन्तर पड़ जाता है। किन्तु इन दोनों ज्ञानोंके अन्तरका एक कारण और है जो कि प्रतिपात और अप्रतिपात शब्दसे पुकारा जाता है। प्रतिपातका अर्थ है गिरना और अप्रतिपातका अर्थ है नहीं गिरना। ऐसा नियम है कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान उसीके होता है जो तद्भव मोक्षगामी होते हुए भी क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है, किन्तु ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञानके लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। वह तद्भव मोक्षगामीके भी हो सकता है और अन्यके भी हो सकता है। इसी प्रकार जो क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है उसके भी हो सकता है और जो उस पर नहीं चढ़कर उपशमश्रेणी पर चढ़ता है या नहीं भी चढ़ता है उसके भी हो सकता है। इसीसे ऋजुमति प्रतिपाती और विपुलमति अप्रतिपाती माना गया है। यह विशेषता योग्यताजन्य है, इसलिए इसका निर्देश अलग से किया है।