ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 27
From जैनकोष
225. मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके अनन्तर निर्देशके योग्य अवधिज्ञानका विषय क्या है आगे सूत्र द्वारा इसी बातको बतलाते हैं –
रूपिष्ववधे:।।27।।
अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति रूपी पदाथोंमें होती है।।27।।
226. ‘विषयनिबन्ध:’ इत्यनुवर्तते। ‘रूपिषु’ इत्यनेन पुद्गला: पुद्गलद्रव्यसंबन्धाश्च जीवा: परिगृह्यन्ते। रूपिष्वेवावधेर्विषयनिबन्धो नारूपिष्विति नियम: क्रियते। रूपिष्वपि भवन्न सर्वपर्यायेषु, स्वयोग्यष्वेवेत्वधारणार्थमसर्वपर्यायेष्वित्यभिसंबध्यते।
226. पिछले सूत्रसे ‘विषयनिबन्ध:’ पदकी अनुवृत्ति होती है। ‘रूपिषु’ पद-द्वारा पुद्गलों और पुद्गलोंमें बद्ध जीवोंका ग्रहण होता है। इस सूत्र-द्वारा ‘रूपी पदार्थोंमेंही अवधिज्ञानका विषय सम्बन्ध है, अरूपी पदार्थोंमें नहीं’ यह नियम किया गया है। रूपी पदार्थोंमें होता हुआ भी उनकी सब पर्यायोंमें नहीं होता, किन्तु स्वयोग्य पर्यायोंमें ही होता है इस प्रकारका निश्चय करनेके लिए ‘असर्वपर्यायेषु’ पदका सम्बन्ध होता है।
227. अथ तदनन्तरनिर्देशभाजो मन:पर्ययस्य को विषयनिबन्ध इत्यत आह –