ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 12
From जैनकोष
175. अभिहितलक्षणात्परोक्षादितरस्य सर्वस्य प्रत्यक्षत्वप्रतिपादनार्थमाह –
175. परोक्षका लक्षण कहा। इससे बाकीके सब ज्ञान प्रत्यक्ष हैं इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
प्रत्यक्षमन्यत्।।12।।
शेष सब ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।।12।।
176. अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा। तमेव प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा प्रतिनियतं प्रत्यक्षम्। अवधिदर्शनं केवलदर्शनमपि अक्षमेव प्रतिनियतमतस्तस्यापि ग्रहणं प्राप्नोति। नैष दोष:; ज्ञानमित्यनुवर्तते, तेन दर्शनस्य व्युदास:। एवमपि विभङ्गज्ञानमक्षमेव[1] प्रतिनियतमतोऽस्यापि ग्रहणं प्राप्नोति। सम्यगित्यधिकारात्[2] तन्निवृत्ति:। सम्यगित्यनुवर्तते तेन ज्ञानं विशिष्यते ततो विभङ्गज्ञानस्य निवृत्ति: कृता। तद्धि मिथ्यादर्शनोदयाद्विपरीतार्थविषयमिति न सम्यक्।
176. अक्ष शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – ‘‘अक्ष्णोति व्याप्नोति जानतीत्यक्ष आत्मा।’’ अक्ष, व्याप और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं, इसलिए अक्षका अर्थ आत्मा होता है। इस प्रकार क्षयोपशमवाले या आवरणरहित केवल आत्माके प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रियादिककी अपेक्षासे न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरणरहित आत्मासे होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। शंका – अवधिदर्शन और केवलदर्शन भी अक्ष अर्थात् आत्माके प्रति नियत हैं अत: प्रत्यक्ष शब्दके द्वारा उनका भी ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि प्रकृतमें ज्ञान शब्दकी अनुवृत्ति है, जिससे दर्शनका निराकरण हो जाता है। शंका – यद्यपि इससे दर्शनका निराकरण हो जाता है तो भी विभंगज्ञान केवल आत्माके प्रति नियत है अत: उसका ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान – यहाँ ‘सम्यक्’ पदका अधिकार है, अत: उसका निराकरण हो जाता है। तात्पर्य यह है कि इस सूत्रमें ‘सम्यक्’ पदकी अनुवृत्ति होती है, जिससे ज्ञान विशेष्य हो जाता है इसलिए विभंगज्ञानका निराकरण हो जाता है। क्योंकि विभंगज्ञान मिथ्यादर्शनके उदयसे विपरीत पदार्थको विषय करता है, इसलिए वह समीचीन नहीं है।
177. स्यान्मतमिन्द्रियव्यापार[3] जनितं ज्ञानं प्रत्यक्षं व्यतीतेन्द्रिय[4] विषयव्यापारं परोक्षमित्येतदविसंवादि लक्षणमभ्युपगन्तव्यमिति। तदयुक्तम्, आप्तस्य प्रत्यक्षज्ञानाभावप्रसङ्गात्[5] यदि इन्द्रियनिमित्तमेव ज्ञानं प्रत्यक्षमिष्यते एवं सति आप्तस्य प्रत्यक्षज्ञानं न स्यात्। न हि तस्येन्द्रियपूर्वोऽर्थाधिगम:। अथ तस्यापि करणपूर्वकमेव ज्ञानं कल्प्यते, तस्यासर्वज्ञत्वं स्यात्। तस्य मानसं प्रत्यक्षमिति चेत्; मन:[6] प्रणिधानपूर्वकत्वात् ज्ञानस्य सर्वज्ञत्वाभाव एव। आगमतस्तत्सिद्धिरिति चेत्। न; तस्य प्रत्यक्षज्ञानपूर्वकत्वात्।
177. शंका – जो ज्ञान इन्द्रियोंके व्यापारसे उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है और जो इन्द्रियोंके व्यापारसे रहित होकर विषयको ग्रहण करता है वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष और परोक्षका यह अविंसवादी लक्षण मानना चाहिए ? समाधान – यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि उक्त लक्षणके मानने पर आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञानका अभाव प्राप्त होता है। यदि इन्द्रियोंके निमित्तसे होने वाले ज्ञानको ही प्रत्यक्ष कहा जाता है तो ऐसा मानने पर आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि आप्तके इन्द्रियपूर्वक पदार्थका ज्ञान नहीं होता। कदाचित् उसके भी इन्द्रियपूर्वक ही ज्ञान माना जाता है तो उसके सर्वज्ञता नहीं रहते। शंका – उसके मानस प्रत्यक्ष होता है ? समाधान – मनके प्रयत्नसे ज्ञानकी उत्पत्ति मानने पर सर्वज्ञत्वका अभाव ही होता है। शंका – आगमसे सब पदार्थोंका ज्ञान हो जायगा। समाधान - नहीं, क्योंकि आगम प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक प्राप्त होता है।
178. योगिप्रत्यक्षमन्यज्ज्ञानं दिव्यमप्यस्तीति चेत्। न तस्य प्रत्यक्षत्वं; इन्द्रियनिमि त्तत्वाभावात्; अक्ष मक्षं प्रति यद्वर्तते तत्प्रत्यक्षमित्यभ्युपगमात्।
178. शंका – योगी प्रत्यक्ष नामका एक अन्य दिव्य ज्ञान है। समाधान – तो भी उसमें प्रत्यक्षता नहीं बनती, क्योंकि वह इन्द्रियोंके निमित्तसे नहीं होता है। जिसकी प्रवृत्ति प्रत्येक इन्द्रियसे होती है वह प्रत्यक्ष है ऐसा आपके मतमें स्वीकार किया गया है।
179. किंच सर्वज्ञत्वाभाव: प्रतिज्ञाहानिर्वा। अस्य योगिनो यज्ज्ञानं तत्प्रत्यर्थवशवर्ति वा स्याद् अनेकार्थ ग्राहि वा। यदि प्रत्यर्थवशवर्ति, सर्वज्ञत्वमस्य नास्ति योगिन:, ज्ञेयस्यानन्त्यात्। अथानेकार्थग्राहि, या प्रतिज्ञा –
‘‘ विजानाति न विज्ञानमेकमर्थद्वयं यथा। एकमर्थं विजानाति न विज्ञानद्वयं तथा।‘’ सा हीयते।
179. दूसरे प्रत्यक्षका पूर्वोक्त लक्षण माननेपर सर्वज्ञत्वका अभाव और प्रतिज्ञाहानि ये दो दोष आते हैं। विशेष इस प्रकार है – इस योगीके जो ज्ञान होता है वह प्रत्येक पदार्थको क्रमसे जानता है या अनेक अर्थोंको युगपत् जानता है। यदि प्रत्येक पदार्थको क्रमसे जानता है तो इस योगीके सर्वज्ञताका अभाव होता है, क्योंकि ज्ञेय अनन्त हैं। और यदि अनेक अर्थोंको युगपत् जानता है तो जो यह प्रतिज्ञा है कि ‘जिस प्रकार एक विज्ञान दो अर्थोंकी नहीं जानता है उसी प्रकार दो विज्ञान एक अर्थ को नहीं जानते हैं।‘ वह नहीं रहती।
180. अथवा ‘’क्षणिका: सर्वसंस्कारा:’’ इति प्रतिज्ञा हीयते; अनेकक्षण[7] वृत्त्येकविज्ञानाभ्युपगमात्। अनेकार्थग्रहणं हि क्रमेणेति। युगपदेवेति चेत्। योऽस्य जन्मक्षण: स आत्मलाभार्थ एव। लब्धात्मलाभं हि किंचित्स्वकार्यं प्रति व्याप्रियते। प्रदीपवदिति चेत्। तस्याप्यनेकक्षणविषयतायां सत्यामेव प्रकाश्यप्रकाशनाभ्युपगामात्। विकल्पातीतत्वात्तस्य शून्यताप्रसंगश्च।
180. अथवा ‘सब पदार्थ क्षणिक हैं’ यह प्रतिज्ञा नहीं रहती, क्योंकि आपके मतमें अनेक क्षणतक रहनेवाला एक विज्ञान स्वीकार किया गया है। अत: अनेक पदार्थोंका ग्रहण क्रमसे ही होता है। शंका – अनेक पदार्थोंका ग्रहण एक साथ हो जायगा। समाधान – जो ज्ञानकी उत्पत्तिका समय है उस समय तो वह स्वरूप लाभ ही करता है, क्योंकि कोई भी पदार्थ स्वरूपलाभ करनेके पश्चात् ही अपने कार्यके प्रति व्यापार करता है। शंका – विज्ञान दीपके समान है, अत: उसमें दोनों बातें एक साथ बन जायेंगी। समाधान – नहीं, क्योंकि उसके अनेक क्षण तक रहनेपर ही प्रकाश्यभूत पदार्थोंका प्रकाशन करना स्वीकार किया गया है। यदि ज्ञानको विकल्पातीत माना जाता है तो शून्यताकी प्राप्ति होती है।
विशेषार्थ – इस सूत्रमें कौन-कौन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं यह बतलाया गया है। प्रसंगसे इसकी टीकामें इन विशेषताओंपर प्रकाश डाला गया है – 1. अक्ष शब्दका अर्थ। 2. प्रत्यक्ष शब्दकी व्युत्पत्ति। 3. अक्ष शब्दका अर्थ इन्द्रिय या मनको निमित्त कर प्रत्यक्ष शब्दका लक्षण करनेपर क्या दोष आते हैं इनका निर्देश। 4. आगमसे सर्वज्ञता नहीं बनती, किन्तु आगम प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक ही प्राप्त होता है इसका निर्देश। 5. बौद्धोंके द्वारा माने गये प्रत्यक्षके लक्षणको स्वीकार करनेपर क्या दोष प्राप्त होते हैं इसकी चर्चा। 6. प्रसंगसे बौद्धोंके यहाँ सर्वज्ञता कैसे नहीं बनती और प्रतिज्ञाहानि दोष कैसे आता है इसका निर्देश। तीसरी बातको स्पष्ट करते हुए जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि प्रत्यक्षज्ञानको इन्द्रियनिमित्तक या मननिमित्तक मानने पर सर्वज्ञता नहीं बनती। वेद ही भूत, भविष्यत्, वर्तमान, दूरवर्ती, सूक्ष्म इत्यादि अर्थोंका ज्ञान करानेमें समर्थ हैं। इसीसे सकल पदार्थोंका ज्ञान हो जाता है। इसलिए इन्द्रियजन्य ज्ञान और मनोजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष माननेमें कोई आपत्ति नहीं है ऐसा मीमांसक मानते हैं। परन्तु उनका ऐसा मानना समीचीन नहीं है, क्योंकि आगम प्रत्यक्ष ज्ञान के बिना नहीं बन सकता है। यह बात चौथी विशेषता द्वारा बतलायी गयी है। बौद्ध भी अक्षका अर्थ इन्द्रिय करके इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष मानते हैं, परन्तु उनका ऐसा मानना क्यों समीचीन नहीं है यह पाँचवीं विशेषता द्वारा बतलाया गया है। शेष कथन सुगम है।
- ↑ –ज्ञानमपि प्रति—मु.।
- ↑ रात् तस्तन्नि—मु.।
- ↑ ‘अक्षस्य अक्षस्य प्रतिविषयं वृत्ति: प्रत्यक्षम्।’ –1,1,3 न्याय. भा।
- ↑ ‘परोक्ष इत्युच्यते किं परोक्षं नाम। परमक्ष्ण: परोक्षम्।’–पा.म.भा. 3।2।2।1।5।
- ↑ –प्रसंगता। यदि आ.,दि.1,दि. 2।
- ↑ ‘युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति: मनसो लिङ्गम्।’ –न्या. सू. 1।1।16।
- ↑ क्षणवर्त्येक—मु.।