ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 14
From जैनकोष
184. अथास्यात्मलाभे किं निमित्तमित्यत आह -
184. मतिज्ञानके स्वरूप लाभमें क्या निमित्त है अब यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं–
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।।14।।
वह(मतिज्ञान) इन्द्रिय और मनके निमित्त से होता है।।14।।
185. इन्दतीति इन्द्र आत्मा। तस्य ज्ञस्वभावस्य तदावरणक्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् ग्रहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धि[1] लिंगं तदिन्द्रस्य लिंगमिन्द्रि यमित्युच्यते। अथवा लीनमर्थं समयतीति लिंगम्। आत्मन: सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिंगमिन्द्रियम्। यथा इह धूमोऽग्ने:। एवमिदं स्पर्शनादि करणं नासति कर्तर्यात्मनि भवितुमर्हतीति ज्ञातुरस्तित्वं गम्यते। अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते। तेन सृष्टमिन्द्रियमिति[2] । तत्स्पर्शनादि उत्तरत्र वक्ष्यते।
185. इन्द्र शब्दका व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है ‘इन्दतीति इन्द्र:’ जो आज्ञा और ऐश्वर्यवाला है वह इन्द्र। इन्द्र शब्दका अर्थ आत्मा है। वह यद्यपि ज्ञस्वभाव है तो भी मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके रहते हुए स्वयं पदार्थोंको जानने में असमर्थ है, अत: उसको पदार्थके जानने में जो लिंग(निमित्त) होता है वह इन्द्रका लिंग इन्द्रिय कही जाती है। अथवा जो लीन अर्थात् गूढ़ पदार्थका ज्ञान कराता है उसे लिंग कहते हैं। इसके अनुसार इन्द्रिय शब्दका यह अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्माके अस्तित्वका ज्ञान करानेमें लिंग अर्थात् कारण है उसे इन्द्रिय कहते हैं। जैसे लोकमें धूम अग्निका ज्ञान करानेमें कारण होता है। इसी प्रकार ये स्पर्शनादिक करण कर्त्ता आत्माके अभावमें नहीं हो सकते हैं, अत: उनसे ज्ञाताका अस्तित्व जाना जाता है। अथवा इन्द्र शब्द नामकर्मका वाची है। अत: यह अर्थ हुआ कि उससे रची गयी इन्द्रियाँ हैं। वे इन्द्रियाँ स्पर्शनादिक हैं जिनका कथान आगे करेंगे। अनिन्द्रिय, मन और अन्त:करण ये एकार्थवाची नाम हैं।
186. अनिन्द्रियं मन: अन्त:करणमित्यनर्थान्तरम्। कथं पुनिरिन्द्रिप्रतिषेधेन इन्द्रलिंगे एव मनसि अनिन्द्रियशब्दस्य वृत्ति:। ईषदर्थस्य नञ: प्रयोगात्। ईषदिन्द्रियमनिन्द्रियमिति। यथा अनु दरा कन्या इति। कथमीषदर्थ:। इमानीन्द्रियाणि[3] प्रतिनियतदेशविषयाणि कालान्तरावस्थायीनि च। न तथा मन: इन्द्रस्य लिंगमपि सत्प्रतिनियतदेशविषयं कालान्तरावस्थापि च।
186. शंका – अनिन्द्रिय शब्द इन्द्रियका निषेधपरक है अत: इन्द्रके लिंग मनमें अनिन्द्रिय शब्दका व्यापार कैसे हो सकता है ? समाधान – यहाँ नञ् का प्रयोग ‘ईषद्’ अर्थ में किया है ईषत् इन्द्रिय अनिन्द्रिय। यथा अनुदरा कन्या। इस प्रयोगमें जो अनुदरा शब्द है उससे उदरका अभाव रूप अर्थ न लेकर ईषद् अर्थ लिया गया है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। शंका – अनिन्द्रिय में नञ् का निषेधरूप अर्थ न लेकर ‘ईषद्’ अर्थ कैसे लिया गया है ? समाधान – ये इन्द्रियाँ नियत देशमें स्थित पदार्थोंको विषय करती है और कालान्तरमें अवस्थित रहती है। किन्तु मन इन्द्रका लिंग होता हुआ भी प्रतिनियत देशमें स्थित पदार्थको विषय नहीं करता और कालान्तरमें अवस्थित नहीं रहता। (इसलिए अनिन्द्रिय में नञ् का निषेधरूप अर्थ न लेकर ईषद् अर्थ लिया गया है।)
187. तदन्त:करणमिति चोच्यते। गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारे इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवद् बहिरनुपलब्धेश्च अन्तर्गतं[4] करणमन्त:करणमित्युच्यते।
187. यह अन्त:करण कहा जाता है। इसे गुण और दोषोंके विचार और स्मरण करने आदि कार्योंमें इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं लेनी पड़ती तथा चक्षु आदि इन्द्रियोंके समान इसकी बाहर उपलब्धि भी नहीं होती इसलिए यह अन्तर्गत करण होनेसे अन्त:करण कहलाता है।
188. तदिति किमर्थम्। मतिज्ञाननिर्देशार्थम्। ननु च तदनन्तरं ‘अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा’ इति तस्यैव ग्रहणं भवति। इहार्थमुत्तरार्थं च तदित्युच्यते। यन्मत्यादिपर्यायशब्दवाच्यं ज्ञानं तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं तदेवावग्रहेहावायधारणा[5] इति। इतरथा हि प्रथमं मत्यादिशब्दवाच्यं ज्ञानमित्युक्त्वा इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं श्रुतम्। तदेवावग्रहेहावायधारणा इत्यनिष्टमभिसंबध्येत।
188. शंका – सूत्रमें ‘तत्’ पद किसलिए दिया है ? समाधान – सूत्रमें ‘तत्’ पद मतिज्ञानका निर्देश करनेके लिए दिया है। शंका – मतिज्ञान निर्देश का अनन्तर किया ही है और ऐसा नियम है कि ‘विधान या निषेध अनन्तरवर्ती पदार्थका ही होता है’ अत: यदि सूत्रमें ‘तत्’ पद न दिया जाय तो भी मतिज्ञानका ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान – इस सूत्रके लिए और अगले सूत्रके लिए ‘तत्’ पदका निर्देश किया है। मति आदि पर्यायवाची शब्दोंके द्वारा जो ज्ञान कहा गया है वह इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है और उसीके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं, इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं प्राप्त होता। यदि ‘तत्’ पद न दिया जायेगा तो मति आदि पर्यायवाची नाम प्रथम ज्ञानके हो जायेंगे और इन्द्रिय-अनिन्द्रियके निमित्त होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलायेगा और इसीके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद प्राप्त होंगे इस प्रकार अनिष्ट अर्थके सम्बन्धकी प्राप्ति होगी। अत: इस अनिष्ट अर्थके सम्बन्धके निराकरण करनेके लिए सूत्रमें ‘तत्’ पद का निर्देश करना आवश्यक है।
विशेषार्थ – इस सूत्रमें मतिज्ञानकी उत्पत्तिके निमित्तोंकी चर्चा करते हुए वे इन्द्रिय और मनके भेदसे दो प्रकारके बतलाये हैं। यद्यपि इस ज्ञानकी उत्पत्तिमें अर्थ और आलोक आदि भी निमित्त होते हें पर वे अव्यभिचारी कारण न होने से उनका यहाँ निर्देश नहीं किया है। इसकी टीकामें इन्द्रिय-अनिन्द्रिय शब्दका अर्थ क्या है इस पर प्रकाश डालते हुए इन्द्रियोंको जो प्रतिनियत देशको विषय करनेवाला और कालान्तरमें अवस्थित रहनेवाला तथा मनको अनियत देशमें स्थित पदार्थको विषय करनेवाला और कालान्तर में अवस्थित नहीं रहनेवाला बतलाया है सो इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार इन्द्रियाँ देश और काल दोनोंकी अपेक्षा नियत विषयको ग्रहण करते हैं वैसा मन नहीं है। इस प्रकार मनका विषय नियत नहीं है। उसकी इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रिय सब विषयोंमें प्रवृत्ति होती है। इसका दूसरा नाम अन्त:करण क्यों है इसका स्पष्टार्थ टीकामें किया ही है। शेष कथन सुगम है।
- ↑ –लब्धिनिमित्त लिंगं –मु.।
- ↑ ‘भगवा हि धम्मासंबुद्धो परमिस्सरियभावतो इन्दो, कुसलाकुसलं च कम्मं, कम्मेसु कस्सचि इस्सरियाभावतो। तेनेत्था कम्मसज्जनितानि ताव इंद्रियानि कुसलाकुसलं कम्मं उल्लिंगेन्ति, तेन च सिट्ठानीति इन्दलिंगट्ठेन इन्दसिट्ठट्ठेन च इंदियानि।‘...वि. म. पृ. 343।
- ↑ ‘इन्द्रस्य वै सतो मनस इन्द्रियेभ्य: पृथगुपदेशो धर्मभेदात्। भौतिकानीन्द्रियाणि नियतविषयाणि, सगुणानां चैषामिन्द्रियभाव इति। मनस्त्वभौतिकं सर्वविषयं च...। न्या. भा. 1।1।4। ‘सर्वविषयमन्त:करणं मन:।‘ –न्या. भा. 1।1।9।
- ↑ –र्गतं करणमित्यु–मु.।
- ↑ ‘तयणंतरं तयत्थाविच्चवणं जो य वासणाजोगो। कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ।‘ –वि. भा. गा. 291।