ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 16
From जैनकोष
191. उक्तानामवग्रहादीनां प्रभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह –
191. इस प्रकार अवग्रह आदिका कथन किया। अब इनके भेदोंके दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
बहुबहुविधक्षिप्रानि:सृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम्।।16।।
सेतर (प्रतिपक्षसहित) बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त और ध्रुवके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप मतिज्ञान होते हैं।।16।।
192. अवग्रहादय: क्रियाविशेषा: प्रकृता:। तदपेक्षोऽयं कर्मनिर्देश:। बह्वादीनां सेतराणामिति। बहुशब्दस्य संख्यावैपुल्यवाचिनो ग्रहणमविशेषात्। संख्यावाची[1] यथा, एको द्वौ बहव इति। वैपुल्यवाची यथा, बहुरोदनो बहु: सूप इति। विधशब्द: प्रकारवाची। क्षिप्रग्रहणमचिरप्रतिपत्त्यर्थम्। अनि:सृतग्रहणम् असकलपुद्गलोद्गमार्थम्। अनुक्तमभिप्रायेण ग्रहणम्। ध्रुवं निरन्तरं यथार्थग्रहणम्। सेतरग्रहणं प्रतिपक्षसंग्रहार्थम्।
192. अवग्रह आदि क्रियाविशेषोंका प्रकरण है उनकी अपेक्षा ‘बह्वादीनां सेतराणां’ इस प्रकार कर्मकारकका निर्देश किया है। ‘बहु’ शब्द संख्यावाची और वैपुल्यवाची दोनों प्रकारका है। इन दोनोंका यहाँ ग्रहण किया है, क्योंकि उनमें कोई विशेषता नहीं है। संख्यावाची बहु शब्द यथा – एक, दो, बहुत। वैपुल्यवाची बहु शब्द यथा – बहुत भात, बहुत दाल। ‘विध’ शब्द प्रकारवाची है। सूत्रमें ‘क्षिप्र’ शब्दका ग्रहण, जल्दी होनेवाले ज्ञानके जतानेके लिए किया है। जब पूरी वस्तु प्रकट न होकर कुछ प्रकट रहती है और कुछ अप्रकट तब वह अनि:सृत कही जाती है। यहाँ अनि:सृत अर्थ ईषद् नि:सृत है, अत: इसका ग्रहण करनेके लिए सूत्रमें ‘अनि:सृत’ पद दिया है। जो कही या बिना कही वस्तु अभिप्राय से जानी जाती है उसके ग्रहण करनेके लिए ‘अनुक्त’ पद दिया है। जो यथार्थ ग्रहण निरन्तर होता है उसके जतानेके लिए ‘ध्रुव’ पद दिया है। इनसे प्रतिपक्षभूत पदार्थोंका संग्रह करनेके लिए ‘सेतर’ पद दिया है।
193. बहूनामवग्रह: अल्पस्यावग्रह: बहुविधस्यावग्रह: एकविधस्यावग्रह: क्षिप्रमवग्रह: चिरेणावग्रह: अनि:सृतस्यावग्रह: नि:सृतस्यावग्रह: अनुक्तस्यावग्रह: उक्तस्यावग्रह: ध्रुवस्यावग्रह: अध्रुवस्यावग्रहश्चेति अवग्रहो द्वादशविकल्प:। एवमीहादयोऽपि। त एते पञ्चभिरिन्द्रियद्वारैर्मनसा च प्रत्येकं प्रादुर्भाव्यन्ते। तत्र बह्ववग्रहादय: मतिज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षात् प्रभवन्ति नेतरे इति। तेषामभ्यर्हितत्वादादौ ग्रहणं क्रियते।
193. बहुतका अवग्रह, अल्पका अवग्रह, बहुविधका अवग्रह, एकविधका अवग्रह, क्षिप्रावग्रह, अक्षिप्रावग्रह, अनि:सृतका अवग्रह, नि:सृतका अवग्रह, अनुक्तका अवग्रह, उक्तका अवग्रह, ध्रुवका अवग्रह और अध्रुवका अवग्रह ये अवग्रहके बारह भेद हैं। इसी प्रकार ईहादिकमेंसे प्रत्येक बारह-बारह भेद हैं। ये सब अलग-अलग पाँच इन्द्रिय और मनके द्वारा उत्पन्न कराने चाहिए। इनमें-से बहु अवग्रह आदि मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रकर्षसे होते हैं। इतर नहीं। बहु आदि श्रेष्ठ हैं, अत: उनका प्रथम ग्रहण किया है।
194. बहुबहुविधयो: क: प्रतिविशेष:; यावता बहुष्वपि बहुत्वमस्ति बहुविधेष्वपि बहुत्वमस्ति ? एकप्रकारनानाप्रकारकृतो विशेष:। उक्तनि:सृतयो: क: प्रतिविशेष:; यावता सकलनि:सरणान्नि:सृतम्। उक्तमप्येवंविधमेव ? अयमस्ति विशेष:, अन्योपदेशपूर्वकं ग्रहणमुक्तम्। स्वत एव ग्रहणं नि:सृतम्।
194. शंका - बहु और बहुविधमें क्या अन्तर है, क्योंकि बहु और बहुविध इन दोनोंमें बहुतपना पाया जाता है ? समाधान – इनमें एक प्रकार और नाना प्रकारकी अपेक्षा अन्तर है। अर्थात् बहुमें प्रकारभेद इष्ट नहीं और बहुविधमें प्रकारभेद इष्ट है। शंका – उक्त और नि:सृतमें क्या अन्तर है – क्योंकि वस्तुका पूरा प्रकट होना नि:सृत है और उक्त भी इसी प्रकार है ? समाधान - इन दोनोंमें अन्तर यह है – अन्यके उपदशेपूर्वक वस्तुका ग्रहण करना उक्त है और स्वत: ग्रहण करना नि:सृत है।
195. अपरेषां क्षिप्रनि:सृत इति पाठ:। त एवं वर्णयन्ति श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य वा कुररस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते। अपर: स्वरूपमेवाश्रित्य[2] इति।
195. कुछ आचार्योंके मतसे क्षिप्रानि:सृतके स्थानमें ‘क्षिप्रनि:सृत’ ऐसा पाठ है। वे ऐसा व्याख्यान करते हैं कि श्रोत्र इन्द्रियके द्वारा शब्दको ग्रहण करते समय वह मयूरका है अथवा कुररका है ऐसा कोई जानता है। दूसरा स्वरूपके आश्रयसे ही जानता है।
196. ध्रुवावग्रहस्य धारणायाश्च क: प्रतिविशेष: ? उच्यते, क्षयोपशमप्राप्तिकाले विशुद्धपरिणामसंतत्या प्राप्तात्क्षयोपशमात्प्रथमसमये यथावग्रहस्तथैव द्वितीयादिष्वपि समयेषु नोनो[3] नाभ्यधिक इति ध्रुवावग्रह इत्युच्यते। यदा पुनर्विशुद्धपरिणामस्य संक्लेशपरिणामस्य च मिश्रणात्क्ष-योपशमो भवति तत उत्पद्यमानोऽवग्रह: कदाचित् बहूनां कदाचिदल्पस्य कदाचिद् बहुविधस्य कदाचिदेकविधस्य वेति न्यूनाधिकभावादध्रुवावग्रह इत्युच्यते। धारणा पुनर्गृहीतार्थाविस्मरणकारणमिति महदनयोरन्तरम्।
196. शंका – ध्रुवावग्रह और धारणामें क्या अन्तर है ? समाधान – क्षयोपशमकी प्राप्तिके समय विशुद्ध परिणामोंकी परम्पराके कारण प्राप्त हुए क्षयोपशमसे प्रथम समयमें जैसा अवग्रह होता है वैसा ही द्वितीयादिक समयोंमें भी होता है, न न्यून होता है और न अधिक। यह ध्रुवावग्रह है। किन्तु जब विशुद्ध परिणाम और संक्लेश परिणामोंके मिश्रणसे क्षयोपशम होकर उससे अवग्रह होता है तब वह कदाचित् बहुतका होता है, कदाचित् अल्पका होता है, कदाचित् बहुविधका होता है और कदाचित् एकविधका होता है। तात्पर्य यह कि उनमें न्यूनाधिक भाव होता रहता है, इसलिए वह अध्रुवावग्रह कहलाता है किन्तु धारणा तो गृहीत अर्थके नहीं भूलनेके कारणभूत ज्ञानको कहते हैं, अत: ध्रुवावग्रह और धारणामें बड़ा अन्तर है।
विशेषार्थ – ये अवग्रह आदि मतिज्ञान-द्वारा जाननेरूप क्रियाके भेद हैं और बहुआदि उनके कर्म हैं इसलिए इस सूत्रमें इनका इसीरूपसे निर्देश किया गया है। मतिज्ञान-द्वारा पदार्थोंका बहु आदिरूप इतने प्रकारसे अवग्रहण, ईहन, अवाय और धारण होता है यह इसका तात्पर्य है। इन बहु आदिके स्वरूपका तथा उनके अन्तरका व्याख्यान टीकामें किया ही है। मालूम होता है कि पूज्यपाद स्वामीके समय इस सूत्रके दो पाठ प्रचलित थे और उनका दो प्रकारसे व्याख्यान भी किया जाता था जिनका उल्लेख पूज्यपाद स्वामीने स्वंय किया है। एक पाठ जो उस समय अधिक मान्य था या पूज्यपाद स्वामी जिसे मूल पाठ मानते रहे उसका उल्लेख तो उन्होंने व्याख्यानरूपसे किया है और दूसरे पाठका उल्लेख अन्य कुछ आचार्योंके अभिप्रायके रूपमें किया है। इन दोनों व्याख्यानों में जो अन्तर है वह इस प्रकार है – मूल पाठके अनुसार – अनि:सृतज्ञान–अवयवके ग्रहणके समय ही पूरे अवयवीका ज्ञान होना। नि:सृतज्ञान – इससे उलटा। पाठान्तरके अनुसार – नि:सृतज्ञान–विशेषताको लिये हुए ज्ञान होना। अनि:सृतज्ञान – विशेषताके बिना साधारण ज्ञान होना। शेष कथन सुगम है।