ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 18
From जैनकोष
199. किमिमे अवग्रहादय: सर्वस्येन्द्रियानिन्द्रियस्य भवन्ति उत कश्चिद्विषयविशेषोऽस्तीत्यत आह-
199. क्या ये अवग्रह आदि सब इन्द्रिय और मन के होते हैं या इनमें विषयकी अपेक्षा कुछ भेद हैं ? अब इसी बातको बतलानके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
व्यञ्जनस्यावग्रह:।।18।।
व्यंजनका अवग्रह ही होता है।।18।।
200. व्यञ्जनमव्यक्तं[1] शब्दादिजातं तस्यावग्रहो भवति[2] नेहादय:। किमर्थमिदम् ? नियमार्थम्, अवग्रह एव नेहादय इति। स तर्हि एवकार: कर्तव्य: ? न कर्तव्य:, ‘सिद्धे विधिरारभ्यमाणो नियमार्थ’[3] इति अन्तरेणैवकारं नियमार्थो भविष्यति। ननु अवग्रहग्रहणमुभयत्र तुल्यं तत्र किं कृतोऽयं विशेष: ? अर्थावग्रहव्यञ्जनावग्रहयोर्व्यक्ताव्यक्तकृतो विशेष:। कथम् ? अभिनवशरावाद्रीकरणवत्। यथा जलकणद्वित्रा [4] सिक्त: सरावोऽभिनवो नाद्रीभवति, स एव पुन: पुन: सिच्यमान: शनैस्तिम्यति, एवं श्रोत्रादिष्विन्द्रियेषु शब्दादिपरिणता: पुद्गला [5] द्वित्रादिषु समयेषु गृह्यमाणा न व्यक्तीभवन्ति, पुन:पुनरवग्रहे सति व्यक्तीभवन्ति। अतो व्यक्तग्रहणात्प्राग्व्यञ्जनावग्रह: व्यक्तग्रहणमर्थावग्रह:। ततोऽव्यक्तावग्रहणादीहादायो न भवन्ति।
200. अव्यक्त शब्दादिके समूहको व्यंजन कहते हैं। उसका अवग्रह ही होता है, ईहादिक नहीं होते। शंका – यह सूत्र किसलिए आया है ? समाधान – अवग्रह ही होता है, ईहादिक नहीं होते इस प्रकारका नियम करनेके लिए यह सूत्र आया है। शंका – तो फिर इस सूत्रमें एवकारका निर्देश करना चाहिए। समाधान – नहीं करना चाहिए, क्योंकि ‘किसी कार्यके सिद्ध रहते हुए यदि उसका पुन: विधान किया जाता है तो वह नियमके लिए होता है’ इस नियमके अनुसार सूत्रमें एवकारके न करने पर भी वह नियमका प्रयोजक हो जाता है। शंका – जबकि अवग्रहका ग्रहण दोनों जगह समान है तब फिर इनमें अन्तर किंनिमित्तक है ? समाधान – अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह में व्यक्त ग्रहण और अव्यक्त ग्रहणकी अपेक्षा अन्तर है। शंका – कैसे ? समाधान – जैसे माटीका नया सकोरा जलके दो तीन कणोंसे सींचने पर गीला नहीं होता और पुन:-पुन: सींचने पर वह धीरे-धीरे गीला हो जाता है इसी प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किये गये शब्दादिरूप पुद्गल स्कन्ध दो तीन समयोंमें व्यक्त नहीं होते हैं, किन्तु पुन:-पुन: ग्रहण होने पर वे व्यक्त हो जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्त ग्रहणसे पहले-पहले व्यंजनावग्रह होता है और व्यक्त ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है। यही कारण है कि अव्यक्त ग्रहणपूर्वक ईहादिक नहीं होते।
विशेषार्थ – यहाँ अव्यक्त शब्दादिकको व्यंजन कहा है। किन्तु वीरसेन स्वामी इस लक्षणसे सहमत नहीं हैं, उनके मतानुसार प्राप्त अर्थका प्रथम ग्रहण व्यंजन कहलाता है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि दृष्टिभेदसे ही ये दो लक्षण कहे गये हैं। तत्त्वत: इनमें कोई भेद नहीं। प्राप्त अर्थका प्रथम ग्रहण व्यंजन है यह तो पूज्यपादस्वामी और वीरसेनस्वामी दोनोंको इष्ट है। केवल पूज्यपादस्वामीने स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियोंके द्वारा विषयके प्राप्त होनेपर प्रथम ग्रहणके समय उसकी क्या स्थिति रहती है इसका विशेष स्पष्टीकरण करनेके लिए शब्दजातके पहले अव्यक्त विशेषण दिया है। लेकिन वीरसेन स्वामी ने ऐसा विशेषण नहीं दिया है। शेष कथन सुगम है।