ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 19
From जैनकोष
201. सर्वेन्द्रियाणामविशेषेण व्यञ्जनावग्रहप्रसङ्गे यत्रासंभवस्तदर्थप्रतिषेधमाह-
201. सब इन्द्रियोंके समानरूपसे व्यंजनावग्रहके प्राप्त होनेपर जिन इन्द्रियोंके द्वारा यह सम्भव नहीं है उसका निषेध करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्।।19।।
चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता।।19।।
202. चक्षुषा अनिन्द्रियेण च व्यञ्जनावग्रहो न भवति। कुत: ? अप्राप्यकारित्वात्। यतोऽ–प्राप्तमर्थमविदिक्कं[1] युक्तं संनिकर्षविषये[2] ऽवस्थितं बाह्यप्रकाशाभिव्यक्तमुपलभते चक्षु: मनश्चाप्राप्त-मित्यनयोर्व्य[3] ञ्जनावग्रहो नास्ति।
202. चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता है। शंका – क्यों ? समाधान – क्योंकि चक्षु और मन अप्राप्यकारी है। चूँकि नेत्र अप्राप्त, योग्य दिशामें अवस्थित, युक्त, सन्निकर्षके योग्य देशमें अवस्थित और बाह्य प्रकाश आदिसे व्यक्त हुए पदार्थको ग्रहण करता है और मन भी अप्राप्त अर्थको ग्रहण करता है अत: इन दोनोंके द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता।
‘पुट्ठं सुणेदि सद्दं अपुट्ठं चेव पस्सदे रूअं। गंधं रसं च फासं बद्धं पुट्ठं वियाणादि।।’
203. शंका – चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान – आगम और युक्तिसे जाना जाता है। आगमसे यथा - ‘’श्रोत्र स्पृष्ट शब्दको सुनता है, नेत्र अस्पृष्ट रूपको ही देखता है। तथा घ्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियाँ क्रमसे स्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्शको ही जानती हैं।‘’
204. युक्तिश्च—अप्राप्यकारि चक्षु:, स्पृष्टानवग्रहात्। यदि प्राप्यकारि स्यात् त्वगिन्द्रियवत् [6] स्पृष्टमञ्जनं गृह्णीयात्, न तु गृह्णात्यतो [7] मनोवदप्राप्यकारीत्यवसेयम्। ततश्चक्षुर्मनसी वर्जयित्वा शेषाणामिन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रह:। सर्वेषामिन्द्रियानिन्द्रियाणामर्थावग्रह इति सिद्धम्।
204. युक्तिसे यथा – चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह स्पृष्ट पदार्थको नहीं ग्रहण करती। यदि चक्षु इन्द्रिय प्राप्यकारी होती तो वह त्वचा इन्द्रियके समान स्पृष्ट हुए अंजनको ग्रहण करती। किन्तु वह स्पृष्ट अंजनको नहीं ग्रहण करती है इससे मालूम होता है कि मनके समान चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है। अत: सिद्ध हुआ कि चक्षु और मनको छोड़कर शेष इन्द्रियोंके व्यंजनावग्रह होता है। तथा सब इन्द्रिय और मनके अर्थावग्रह होता है।
विशेषार्थ – पहले अवग्रहके दो भेद बतला आये हैं – अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। इनमेंसे अर्थावग्रह तो पाँचों इन्द्रियों और मन इन छहोंसे होता है, किन्तु व्यंजनावग्रह चक्षु और मन इन दोसे नहीं होता यह इस सूत्रका भाव है। चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह क्यों नहीं होता, इसका निर्देश करते हुए जो टीका में लिखा है उसका भाव यह है कि ये दोनों अप्राप्यकारी हैं अर्थात् ये दोनों विषयको स्पृष्ट करके नहीं जानते, इसलिए इन द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता। इससे यह अपने आप फलित हो जाता है कि व्यंजनावग्रह प्राप्त अर्थका ही होता है और अर्थावग्रह प्राप्त तथा अप्राप्त दोनों प्रकारके पदार्थोंका होता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि यदि अप्राप्त अर्थका अर्थावग्रह होता है तो होवे इसमें बाधा नहीं, पर प्राप्त अर्थका अर्थावग्रह कैसे हो सकता है ? सो इस शंकाका यह समाधान है कि प्राप्त अर्थका सर्व प्रथम ग्रहणके समय तो व्यंजनावग्रह ही होता है, किन्तु बादमें उसका भी अर्थावग्रह हो जाता है। नेत्र प्राप्त अर्थको क्यों नहीं जानता इसका निर्देश टीकामें किया ही है। किन्तु धवलाके अभिप्रायानुसार शेष इन्द्रियाँ भी कदाचित् अप्राप्यकारी हैं यह भी सिद्ध होता है। प्राय: पृथिवीमें जिस ओर निधि रखी रहती है उस ओर वनस्पतिके मूलका विकास देखा जाता है। यह तभी बन सकता है जब स्पर्शन इन्द्रिय-द्वारा अप्राप्त अर्थका ग्रहण बन जाता है। इसी प्रकार रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रिय-द्वारा भी उसकी सिद्धि हो जाती है। शेष कथन सुगम है।
- ↑ युक्तस-मु., ता., ना.।
- ↑ विशेषेऽव—मु. ता., ना.।
- ↑ प्राप्तमतो नानयोर्व्य-मु., ता., ना.।
- ↑ कथमप्यवसी-मु.।
- ↑ तावत्-पुट्ठं सुणोदि सद्दं अपुट्ठं पुण पस्सदे रूवं। फासं रसं च गंधं बद्धं पुट्ठं वियाणादि।। युक्ति-मु। आ. नि. गा. 5।
- ↑ ‘जह पत्तं गेण्हेज उ तग्गयमंजण—’ वि. भा. गा. 212।
- ↑ ‘लोयणमपत्तविसयं मणोव्व।’ –वि. भा. गा. 209।