ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 31
From जैनकोष
233. अथ यथोक्तानि मत्यादीनि ज्ञानव्यपदेशमेव लभन्ते उतान्यथापीत्यत आह –
233. अब यथोक्त मत्यादिक ज्ञान व्यपदेशको ही प्राप्त होते हैं। या अन्यथा भी होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र है –
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च[1] ।।31।।
मति, श्रुत और अवधि ये तीन विपर्यय भी हैं।।31।।
234. विपर्ययो मिथ्येत्यर्थ:। कुत: ? सम्यगधिकारात्। ‘च’ शब्द: समुच्चयार्थ:। विपर्ययश्च सम्यक्चेति। कुत: पुनरेषां विपर्यय: ? मिथ्यादर्शनेन सहैकार्थसमवायात् सरजस्ककटुकालाबुगतदुग्धवत्। ननु च तत्राधारदोषाद् दुग्धस्य रसविपर्ययो भवति। न च तथा मत्याज्ञानादीनां विषयग्रहणे विपर्यय:। तथा हि, सम्यग्दृष्टिर्यथा चक्षुरादिभी रूपादीनुपलभते तथा मिथ्यादृष्टिरपि[2] मत्यज्ञानेन। यथा च सम्यग्दृष्टि: श्रुतेन रूपादीन् जानाति निरूपयति च तथा मिथ्यादृष्टिरपि श्रुताज्ञानेन। यथा चावधिज्ञानेन सम्यग्दृष्टि: रूपिणोऽर्थानवगच्छति तथा मिथ्यादृष्टिर्विभङ्गज्ञानेनेति।
234. विपर्ययका अर्थ मिथ्या है, क्योंकि सम्यग्दर्शनका अधिकार है। ‘च’ शब्द समुच्चयरूप अर्थमें आया है। इससे यह अर्थ होता है कि मति, श्रुत और अवधि विपर्यय भी हैं और समीचीन भी। शंका – ये विपर्यय किस कारणसे होते हैं ? समाधान – क्योंकि मिथ्यादर्शनके साथ एक आत्मामें इनका समवाय पाया जाता है। जिस प्रकार रज सहित कड़वी तूंबड़ीमें रखा हुआ दूध कड़वा हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यादर्शनके निमित्तसे ये विपर्यय होते हैं। कड़वी तूंबडी़के आधारके दोषसे दूधका रस मीठेसे कड़वा हो जाता है – यह स्पष्ट है, किन्तु उस प्रकार मत्यादि ज्ञानोंकी विषयके ग्रहण करनेमें विपरीतता नहीं मालूम होती। खुलासा इस प्रकार है – जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि चक्षु आदिके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको ग्रहण करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी मत्याज्ञानके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको ग्रहण करता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि श्रुतके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको जानता है और उनका निरूपण करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी श्रुतज्ञानके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको जानता है और उनका निरूपण करता है। जिस प्रकार समयग्दृष्टि अवधिज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थोंको जानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी विभंग ज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थोंको जानता है।