ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 33
From जैनकोष
240. आह प्रमाणं द्विप्रकारं वर्णितम्। प्रमाणैकदेशाश्च नयास्तदनन्तरोद्देशभाजो निर्देष्टव्या इत्यत आह –
240. दो प्रकारके प्रमाणका वर्णन किया। प्रमाणके एकदेशको नय कहते हैं। इनका कथन प्रमाणके अनन्तर करना चाहिए, अत: आगेका सूत्र कहते हैं –
नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नया:।।33।।
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं।।33।।
241. एतेषां सामान्यविशेषलक्षणं वक्तव्यम्। सामान्यलक्षणं तावद्वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवण:[1] प्रयोगो नय:। स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति। द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरित्यर्थ:। तद्विषयो द्रव्यार्थिक:। पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थ:। तद्विवषय: पर्यायार्थिक:। तयोर्भेदा नैगमादय:।
241. इनका सामान्य और विशेष लक्षण कहना चाहिए। सामान्य लक्षण – अनेकान्तात्मक वस्तुमें विरोधके बिना हेतुकी मुख्यतासे साध्यविशेषकी यथार्थताके प्राप्त करानेमें समर्थ प्रयोगको नय कहते हैं। इसके दो भेद हैं – द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। द्रव्यका अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक नय कहलाता है। तथा पर्यायका अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है और इसको विषय करनेवाला नय पर्यायार्थिक नय कहलाता है। इन दोनों नयोंके उत्तर भेद नैगमादिक हैं।
242. तेषां विशेषलक्षणमुच्यते – अनभिनिर्वृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगम:। कंचित्पुरुषं परिगृहीतपरशुं गच्छन्तमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमर्थं भवान्गच्छतीति। स आह प्रस्थमानेतुमिति। नासौ तदा प्रस्थपर्याय: संनिहित:। तदभिनिर्वृत्तये संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहार:। तथा एधोदकाद्याहरणे व्याप्रियमाणं कश्चित्पृच्छति किं करोति भवानिति। स आह ओदनं पचामीति। न तदौदनपर्याय: संनिहित:, तदर्थे व्यापारे स प्रयुज्यते। एवं प्रकारो लोकसंव्यवहार: अनभिनिर्वृत्तार्थ-संकल्पमात्रविषयो नैगमस्य गोचर:।
242. अब इनका विशेष लक्षण कहते हैं – अनिष्पन्न अर्थमें संकल्पमात्रको ग्रहण करनेवाला नय नैगम है। यथा – हाथमें फरसा लेकर जाते हुए किसी पुरुषको देखकर कोई अन्य पुरुष पूछता है आप किस कामके लिए जा रहे हैं। वह कहता है प्रस्थ लानेके लिए जा रहा हूँ। उस समय वह प्रस्थ पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल उसके बनानेका संकल्प होनेसे उसमें प्रस्थ व्यवहार किया गया है। तथा ईंधन और जल आदिके लानेमें लगे हुए किसी पुरुषसे कोई पूछता है कि आप क्या कर रहे हैं ? उसने कहा भात पका रहा हूँ। उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भातके लिए किये गये व्यापारमें भातका प्रयोग किया गया है। इस प्रकारका जितना लोकव्यवहार अनिष्पन्न अर्थके आलम्बनसे संकल्पमात्रको विषय करता है वह सब नैगम नयका विषय है।
243. स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात्संग्रह:। सत्, द्रव्यं, घट इत्यादि। सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रह:। द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां संग्रह:। तथा घट इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिङ्गानुमितसकलार्थसंग्रह:। एवं प्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य[2] विषय:।
243. भेदसहित सब पर्यायोंको अपनी जातिके अविरोध-द्वारा एक मानकर सामान्यसे सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है। यथा – सत्, द्रव्य और घट आदि। ‘सत्’ ऐसा कहनेपर सत् इस प्रकारके वचन और विज्ञानकी अनुवृत्तिरूप लिंगसे अनुमित सत्ताके आधारभूत सब पदार्थों का सामान्यरूपसे संग्रह हो जाता है। ‘द्रव्य’ ऐसा कहनेपर भी ‘उन-उन पर्यायोंको द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है’ इस प्रकार इस व्युत्पत्तिसे युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदोंका संग्रह हो जाता है। तथा ‘घट’ ऐसा कहनेपर भी घट इस प्रकारकी बुद्धि और घट इस प्रकारके शब्दकी अनुवृत्तिरूप लिंगसे अनुमित सब घट पदार्थोंका संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रह नयका विषय है।
244. संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहार:। को विधि: ? य: संग्रहगृहीतोऽर्थस्तदानुपूर्वेणैव व्यवहार: प्रवर्तत इत्ययं विधि:। तद्यथा – सर्वसंग्रहेण [3] यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते। यत्सत्तद् द्रव्यं गुणो वेति। द्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तेन जीवाजीवविशेषानपेक्षेण न शक्य: संव्यवहार इति जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति वा व्यवहार आश्रीयते। जीवाजीवावपि च संग्रहाक्षिप्तौ नालं संव्यवहारायेति प्रत्येकं देवनारकादिर्घटादिश्च व्यवहारेणाश्रीयते। एवमयं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनर्नास्ति विभाग:।
244. संग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थोंका विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहार नय है। शंका – विधि क्या है ? समाधान – जो संग्रह नयके द्वारा गृहीत अर्थ है उसीके आनुपूर्वी क्रमसे व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि है। यथा – सर्वसंग्रह नयके द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है वह अपने उत्तर भेदोंके बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहार नयका आश्रय लिया जाता है। यथा – जो सत् है वह या तो द्रव्य है या गुण। इसी प्रकार संग्रह नयका विषय जो द्रव्य है वह जीव अजीव विशेषकी अपेक्षा किये बिना व्यवहार करानेमें असमर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है इस प्रकारके व्यवहारका आश्रय लिया जाता है। जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रह नयके विषय रहते हैं तब तक वे व्यवहार करानेमें असमर्थ हैं, इसलिए व्यवहारसे जीव द्रव्यके देव, नारकी आदिरूप और अजीव द्रव्यके घटादिरूप भेदोंका आश्रय लिया जाता है। इस प्रकार इस नयकी प्रवृत्ति वहीं तक होती है जहाँ तक वस्तुमें फिर कोई विभाग करना सम्भव नहीं रहता।
245. ऋजुं प्रगुणं सूत्रयति[4] तन्त्रयतीति ऋजुसूत्र:। [5] पूर्वापरांस्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयानादते[6] अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् । तच्च वर्तमानं समयमात्रम्। तद्विषयपर्यायमात्रग्राह्ययमृजुसूत्र:। ननु संव्यवहारलोपप्रसङ्ग इति चेद्[7] ? न; अस्य नयस्य विषयमात्रप्रदर्शनं क्रियते। सर्वनयसमूहसाध्यो हि लोकसंव्यवहार:।
245. ऋजु का अर्थ प्रगुण है। जो ऋजु अर्थात् सरलको सूत्रित करता है अर्थात् स्वीकार करता है वह ऋजुसूत्र नय है। यह नय पहले हुए और पश्चात् होनेवाले तीनों कालोंके विषयोंको ग्रहण न करके वर्तमान कालके विषयभूत पदार्थोंको ग्रहण करता है, क्योंकि अतीतके विनष्ट और अनागतके अनुत्पन्न होनेसे उनमें व्यवहार नहीं हो सकता। वह वर्तमान काल समयमात्र है और उसके विषयभूत पर्यायमात्रको विषय करनेवाला यह ऋजुसूत्र नय है। शंका – इस तरह संव्यवहारके लोपका प्रसंग आता है ? समाधान – नहीं; क्योंकि यहाँ इस नयका विषयमात्र दिखलाया है, लोक संव्यवहार तो सब नयोंके समूहका कार्य है।
246. लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपर: शब्दनय:। तत्र लिङ्गव्यभिचार: - पुष्यस्तारका नक्षत्रमिति। संख्याव्यभिचार: - जलमाप:, वर्षा ऋतु:, आम्रा वनम् , वरणा नगरमिति। साधनव्यभिचार:[8] - सेना[9] पर्वतमधिवसति। पुरुषव्यभिचार: - एहि[10] मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पितेति। कालव्यभिचाार: - विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो जनिता। [11] भावि कृत्यमासीदिति। उपग्रहव्यभिचार: - संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति। एवंप्रकारं व्यवहारमन्याय्यं[12] मन्यते; अन्यार्थस्यान्यार्थेन संबन्धाभावात्। लोकसमयविरोध इति चेत् ? विरुध्यताम्। [13] तत्त्वमिह मीमांस्यते, न[14] भैषज्यमातुरेच्छानुवर्ति।
246. लिंग, संख्या और साधन आदिके व्यभिचारकी निवृत्ति करनेवाला शब्दनय है। लिंगव्यभिचार यथा – पुष्य, तारका और नक्षत्र। ये भिन्न-भिन्न लिंगके शब्द हैं। इनका मिलाकर प्रयोग करना लिंगव्यभिचार है। संख्याव्यभिचार यथा – ‘जलं आप:, वर्षा: ऋतु:, आम्रा वनम्, वरणा: नगरम्’ ये एकवचनान्त और बहुवचनान्त शब्द हैं। इनका विशेषणविशेष्यरूपसे प्रयोग करना संख्याव्यभिचार है। साधनव्यभिचार यथा – ‘सेना पर्वतमधिवसति’ सेना पर्वतपर है। यहाँ अधिकरण कारकके अर्थमें सप्तमी विभक्ति न होकर द्वितीया विभक्ति है, इसलिए यह साधनव्यभिचार है। पुरुषव्यभिचार यथा – ‘एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता’ = आओ, तुम समझते हो कि मैं रथसे जाऊँगा, नहीं जाओगे। तुम्हारे पिता गये। यहाँ ‘मन्यसे’ के स्थानमें ‘मन्ये’ और ‘यास्यामि’के स्थानमें ‘यास्यसि’ क्रियाका प्रयोग किया गया है, इसलिए यह पुरुषव्यभिचार है। कालव्यभिचार यथा – ‘विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता’ = इसका विश्वदृश्वा पुत्र होगा। ‘यहाँ ‘विश्वदृश्वा’ कर्ता रखकर ‘जनिता’ क्रियाका प्रयोग किया गया है, इसलिए यह कालव्यभिचार है। अथवा, ‘भाविकृत्यमासीत्’ = होनेवाला कार्य हो गया। यहाँ होनेवाले कार्यको हो गया बतलाया गया है, इसलिए यह कालव्यभिचार है। उपग्रहव्यभिचार यथा – ‘संतिष्ठते, प्रतिष्ठते, विरमति, उपरमति।‘ यहाँ ‘सम्’ और ‘प्र’ उपसर्गके कारण ‘स्था’ धातुका आत्मनेपद प्रयोग तथा ‘वि’ और ‘उप’ उपसर्गके कारण ‘रम्’ धातुका परस्मैपदमें प्रयोग किया गया है, इसलिए यह उपग्रहव्यभिचार है। यद्यपि व्यवहारमें ऐसे प्रयोग होते हैं तथापि इस प्रकारके व्यवहारको शब्दनय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे अन्य अर्थका अन्य अर्थके साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता। शंका – इससे लोकसमयका (व्याकरण शास्त्रका) विरोध होता है। समाधान – यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं, क्योंकि यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ पीडित पुरुषकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती।
247. नानार्थशमभिरोहणात्समभिरूढ:। यतो नानार्थान्समतीत्यैकमर्थमाभिमुख्येन रूढ: समभिरूढ:। गौरित्ययं शब्दो वागादिष्वर्थेषु[15] वर्तमान: पशावभिरूढ:। अथवा [16] अर्थगत्यर्थ: शब्दप्रयोग:। तत्रैकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति। नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढ:। इन्दनादिन्द्र: शकनाच्छक्र: पूर्दारणात् पुरंदर इत्येवं सर्वत्र। अथवा यो यत्राभिरूढ: स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते ? आत्मनीति। कुत: ? वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात्। [17] यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात्।
247. नाना अर्थोंका समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ़ नय कहलाता है। चूँकि जो नाना अर्थोंको ‘सम्’ अर्थात् छोड़कर प्रधानतासे एक अर्थमें रूढ़ होता है वह समभिरूढ़ नय है। उदाहरणार्थ – ‘गो’ इस शब्दके वचन आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं तो भी वह ‘पशु’ इस अर्थमें रूढ़ है। अथवा अर्थका ज्ञान करानेके लिए शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। ऐसी हालतमें एक अर्थका एक शब्दसे ज्ञान हो जाता है, इसलिए पर्यायवाची शब्दोंका प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दोंमें भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार नाना अर्थोंका समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ़ नय कहलाता है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीन शब्द होनेसे इनके अर्थ भी तीन हैं। इन्द्रका अर्थ आज्ञा ऐश्वर्यवान् है शक्रका अर्थ समर्थ है और पुरन्दरका अर्थ नगरका दारण करनेवाला है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए। अथवा जो जहाँ अभिरूढ़ है वह वहाँ ‘सम्’ अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखतासे रूढ़ होनेके कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है। यथा – आप कहाँ रहते हैं ? अपनेमें, क्योंकि अन्य वस्तुकी अन्य वस्तुमें वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्यकी अन्यमें वृत्ति होती है ऐसा माना जाय तो ज्ञानादिककी ओर रूपादिककी आकाशमें वृत्ति होने लगे।
248. येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययतीति एवंभूत:। स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यदेति। यदैवेन्दति तदैवेन्द्रो नाभिषेचको न पूजक इति। यदैव गच्छति तदैव गौर्न स्थितो न शयित इति। अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूत: परिणतस्तेनैवाध्यवसाययति। यथेन्द्राग्निज्ञानपरिणत आत्मैवेन्द्रोऽग्निश्चेति।
248. जो वस्तु जिस पर्यायको प्राप्त हुई है उसीरूप निश्चय करानेवाले नयको एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्दका जो वाच्य है उसरूप क्रियाके परिणमनके समय ही उस शब्दका प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयमें नहीं। जभी आज्ञा ऐश्वर्यवाला हो तभी इन्द्र है, अभिषेक करनेवाला नहीं और न पूजा करनेवाला ही। जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी हुई नहीं और न सोती हुई ही। अथवा जिसरूपसे अर्थात् जिस ज्ञानसे आत्मा परिणत हो उसी रूपसे उसका निश्चय करनेवाला नय एवंभूत नय है। यथा – इन्द्ररूप ज्ञानसे परिणत आत्मा इन्द्र है और अग्निरूप ज्ञानसे परिणत आत्मा अग्नि है।
249. उक्ता नैगमादयो नया:। उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषां क्रम: पूर्वपूर्वहेतुकत्वाच्च। एवमेते नया: पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उत्तरोत्तरानुकूलाल्पविषया द्रव्यस्यानन्तशक्ते: प्रतिशक्ति विभिद्यमाना बहुविकल्पा जायन्ते। त एते गुणप्रधानतया परस्परतन्त्रा: सम्यग्दर्शनहेतव: पुरुषार्थक्रियासाधन-सामर्थ्यात्तन्त्वादय इव यथोपायं विनिवेश्यमाना: पटादिसंज्ञा: स्वतन्त्राश्चासमर्था:।
249. ये नैगमादिक नय कहे। उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयवाले होनेके कारण इनका यह क्रम कहा है। पूर्व-पूर्व नय आगे-आगेके नयका हेतु है, इसलिए भी यह क्रम कहा है। इस प्रकार ये नय पूर्व-पूर्व विरुद्ध महाविषयवाले और उत्तरोत्तर अनुकूल अल्प विषयवाले हैं। द्रव्यकी अनन्त शक्ति है, इसलिए प्रत्येक शक्तिकी अपेक्षा भेदको प्राप्त होकर ये अनेक विकल्पवाले हो जाते हैं। ये सब नय गौण मुख्यरूपसे एक दूसरेकी अपेक्षा करके ही सम्यग्दर्शनके हेतु हैं। जिस प्रकार पुरुषकी अर्थक्रिया और साधनोंकी सामर्थ्यवश यथायोग्य निवेशित किये गये तन्तु आदिक पट आदिक संज्ञाको प्राप्त होते हैं और स्वतन्त्र रहनेपर कार्यकारी नहीं होते उसी प्रकार ये नय समझने चाहिए।
250. [18] तन्त्वादय इवेति विषम उपन्यास:। तन्त्वादयो निरपेक्षा अपि कांचिदर्थमात्रां जनयन्ति। भवति हि कश्चित्प्रत्येकं [19] तन्तुस्त्वक्त्राणे समर्थ:। एकश्च बल्वजो बन्धने समर्थ:। इमे पुर्ननया निरपेक्षा: सन्तो न कांचिदपि सम्यग्दर्शनमात्रां प्रादुर्भावयन्तीति ? नैष दोष; अभिहितानवबोधात्। अभिहितमर्थमनवबुध्य परेणेदमुपालभ्यते। एतदुक्तं, निरपेक्षेषु तन्त्वादिषु पटादिकार्यं नास्तीति। यत्तु तेनोपदर्शितं न तत्पटादिकार्यम्। किं तर्हि ? केवलं तन्त्वादिकार्यम्[20] । तन्त्वादिकार्यमपि तन्त्वाद्यवयवेषु निरपेक्षेषु नास्त्येव इत्यस्मत्पक्षसिद्धिरेव। अथ तन्त्वादिषु पटादिकार्यं शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते। नयेष्वपि निरपेक्षेषु बुद्ध्यभिधानरूपेषु कारणवशात्सम्यग्दर्शनहेतुत्वविपरिणतिसद्भावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्यमेवोपन्यासस्य ।
250. शंका – प्रकृतमें ‘तन्त्वादय इव’ विषम दृष्टान्त है; क्योंकि तन्तु आदिक निरपेक्ष रहकर भी किसी न किसी कार्यको जन्म देते ही हैं। देखते हैं कि कोई एक तन्तु त्वचाकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं और एक वल्कल किसी वस्तुको बाँधनेमें समर्थ है। किन्तु ये नय निरपेक्ष रहते हुए थोड़ा भी सम्यग्दर्शनरूप कार्यको नहीं पैदा कर सकते हैं ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो कुछ कहा गया है उसे समझे नहीं। कहे गये अर्थको समझे बिना दूसरेने यह उपालम्भ दिया है। हमने यह कहा है कि निरपेक्ष तन्तु आदिमें पटादि कार्य नहीं पाया जाता। किन्तु शंकाकारने जिसका निर्देश किया है वह पटादिका कार्य नहीं है। शंका – तो वह क्या है ? समाधान – केवल तन्तु आदिका कार्य है। तन्तु आदिका कार्य भी सर्वथा निरपेक्ष तन्तु आदिके अवयवोंमें नहीं पाया जाता, इसलिए इससे हमारे पक्षका ही समर्थन होता है। यदि यह कहा जाय कि तन्तु आदिमें पटादि कार्य शक्तिकी अपेक्षा है ही तो यह बात बुद्धि और अभिधान – शब्दरूप निरपेक्ष नयोंके विषयमें भी जानना चाहिए। उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शनके हेतुरूपसे परिणमन करनेमें समर्थ हैं, इसलिए दृष्टान्त का दार्ष्टान्तसे साम्य ही है।
विशेषार्थ – प्रमाणके भेद-प्रभेदोंका कथन करनेके बाद यहाँ नयोंका निर्देश किया गया है। नय श्रुतज्ञानका एक भेद है यह पहले ही बतला आये हैं। यहाँ आलम्बनकी प्रधानतासे उसके सात भेद किये गये हैं। मुख्यत: आलम्बनको तीन भागोंमें विभक्त किया जा सकता है, उपचार, अर्थ और शब्द। पहला नैगमनय उपचारनय होकर भी अर्थनय है। संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र अर्थनय हैं और शेष तीन शब्दनय हैं। आशय यह है कि नैगम नयकी प्रवृत्ति उपचारकी प्रधानतासे होती है, इसलिए इसे मुख्यता से उपचार नय कहा है। वैसे तो इसकी परिगणना अर्थनयमें ही की गयी है। संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रकी प्रवृत्ति अर्थकी प्रधानतासे होती है, इसलिए इन्हें अर्थनय कहा है और शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत नयकी प्रवृत्ति शब्दकी प्रधानतासे होती है, इसलिए इन्हें शब्द नय कहा है। जैसे कि हमने संकेत किया है कि नैगमनयका समावेश अर्थनयोंमें किया जाता है, किन्तु शेष अर्थनयोंसे नैगमनयको अर्थनय माननेमें मौलिक भेद है। बात यह है कि उपचारकी प्रधानतासे वस्तुको स्वीकार करना यह नैगमनयका काम है, शेष अर्थनयोंका नहीं, इसलिए इसे उपचार नय कहा है। शेष अर्थनय तो भेदाभेद या सामान्य विशेषकी प्रधानतासे सीधा ही वस्तुको विषय करते हैं वहाँ उपचारको विशेष स्थान नहीं, इसलिए हमने अर्थनयोंसे नैगमनयको पृथक् बतलाया है। माना कि नैगमनय भी गौण मुख्यभावसे भेदाभेद या सामान्यविशेषको विषय करता है पर इन सबकी जड़में उपचार काम करता है इसलिए नैगमनय मुख्यत: उपचारनय ही है। सिद्धसेन दिवाकरने नैगमनयको नय ही नहीं माना है इसका कारण यह उपचार ही है। उनके मतसे सम्यग्ज्ञानके प्रकरणमें उपचारको कहाँ तक स्थान दिया जाय यह एक प्रश्न तो है ही। वस्तुस्पर्शी विकल्प और वस्तुमें आरोपित विकल्प इनमें बड़ा अन्तर है। वस्तुस्पर्शी विकल्पोंको सम्यग्ज्ञानकी कोटिमें स्थान देना तो अनिवार्य है, किन्तु यदि वस्तुमें आरोपित विकल्पोंको सम्यग्ज्ञानकी कोटिमें स्थान दिया जाय तो अनवस्थाकी सीमा ही न रहे यह एक भय था, सम्भवत: इसी कारण आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने नय प्रकरणमें नैगमका नामोल्लेख नहीं किया है। किन्तु ऐसा उपचार, जो परम्परासे ही सही मूल कार्यका ज्ञान करानेमें सहायक हो और जिससे अवास्तविक भ्रम फैलनेका भय न हो या जो वस्तुका विपरीतरूपसे बोध न कराकर वस्तुके गूढ़तम तत्त्वकी ओर इशारा करता हो, ग्राह्य है ऐसा मानकर उपचार प्रधान नैगमनयको नयप्रकरणमें स्थान दिया गया है। इससे विचार करने की परिधि बढ़ जाती है और सम्यग्ज्ञानके जनक समग्र विचारोंका वर्गीकरण करनेमें सहायता मिलती है। यदि नैगमनयकी श्रेणीमें जो विचार आते हैं उन्हें मिथ्या मानकर सर्वथा छोड़ दिया जाता है – सम्यग्ज्ञानकी श्रेणीमें स्थान नहीं दिया जाता है तो अभेदकी ओर ले जानेवाले जितने विचार हैं उनकी भी यही गति होनी चाहिए। यदि उनसे वस्तुके स्वरूपका विश्लेषण करनेमें सहायता मिलती है, इसलिए उनकी नयकी श्रेणीमें परिगणना की जाती है तो यही बात नैगमनयके ऊपर भी लागू करनी चाहिए। इन नयोंका सामान्य और विशेष स्वरूप टीका में दिया ही है, इसलिए यहाँ इस विषयमें विशेष नहीं लिखा गया है। ऋजुसूत्र नय वर्तमान पर्याय-द्वारा वस्तुको ग्रहण करता है और शब्दादिक नय शब्दों-द्वारा वर्तमान पर्यायमुखेन वस्तुको ग्रहण करते हैं, इसलिए इन नयोंका विषय द्वित्व नहीं हो सकता। यही कारण है कि शब्दनयके विषयका निरूपण करते समय विशेषण-विशेषभाव आदिसे एक साथ प्रयुक्त किये गये एकवचनान्त और द्विवचनान्त आदि शब्दके वाच्य आदि इसके अविषय बतलाये हैं और समभिरूढ़के विषयका निरूपण करते समय एक शब्दके अनेक अर्थ या एक अर्थमें अनेक शब्दोंका प्रयोग करना इसका अविषय बतलाया है, क्योंकि एकवचनान्त शब्दका वाच्य अन्यार्थ है और द्विवचनान्त शब्दका वाच्य अन्यार्थ है, इसलिए शब्द नय इनको एक वाच्य रूपसे ग्रहण नहीं कर सकता। इसी प्रकार गो शब्दका गाय अर्थ अन्यार्थ है और वाणीरूप अर्थ अन्यार्थ है, इसलिए समभिरूढ़ नय एक शब्दद्वारा इन अर्थोंको ग्रहण नहीं कर सकता। इसी प्रकार सभी नयोंके विषयको समझना चाहिए। नय अंश-द्वारा वस्तुको स्पर्श करनेवाला एक विकल्प है। प्रमाण ज्ञानके समान यह समग्र वस्तुको स्पर्श नहीं करता, इसलिए ही निरपेक्ष नयको मिथ्या ओर सापेक्ष नयको सम्यक् कहा गया है। इस विषयका विशेष खुलासा और सब नयोंकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का विचार मूलमें किया ही है। इस प्रकार नय सात हैं और वे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो भागोंमें बटे हुए हैं यह निश्चित होता है।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामावली तत्त्वार्थवृत्तिमें प्रथम अध्याय समाप्त हुआ।
- ↑ संग्रहनय:।।2।। संग्र—मु.।
- ↑ यत्संग्र-मु., दि. 1, दि. 2, आ.।
- ↑ यत इति ऋजु-मु., ता. ना.।
- ↑ पूर्वान्परा—मु.।
- ↑ -षयमाद—आ.।
- ↑ चेदस्य – दि. 1, दि. 2।
- ↑ वनमिति। साध—आ, दि. 1, दि. 2, ता., ना.।
- ↑ सेना वनमध्यास्ते। पुरु-ता।
- ↑ ‘एहि मन्ये रथेन यास्यसीति।’—पा. म. भा. 8।1।1।6।
- ↑ ‘भाविकृत्यमासीत्। पुत्रो जनिष्यमाण आसीत्। पा. म. मा. 3।4।1।2।
- ↑ -हारनयं न्याय्यं—मु. दि. 1, दि. 2, आ.।
- ↑ तत्त्वं मीमां—आ., दि. 1, दि. 2।
- ↑ न तु भैष—आ., दि. 1।
- ↑ --गादिषु वर्त—ता, ना.।
- ↑ ‘अर्थगत्यर्थ: शब्दप्रयोग:। अर्थ संप्रत्याययिष्यामीति शब्द: प्रयुज्यते। तत्रैकेनोक्तत्वात्तस्यार्थस्य द्वितीयस्य च तृतीयस्य च प्रयोगेण न भवितव्यम् ‘उक्तार्थानामप्रयोग:’ इति’—पा. म. भा. 2।1।1।1।
- ↑ यद्यस्यान्यत्र आ.।
- ↑ तन्त्वादिवदेष विष—आ., दि. 1, दि. 2, ता. ना।
- ↑ ‘एकस्तन्तुस्त्वक्त्राणेऽसमर्थस्तत्समुदायश्च कम्बल: समर्थ: x x एकश्च बल्वजो बन्धनेऽसमर्थस्तत्समुदायश्च रज्जु समर्था भवति। विषम उपन्यास:। भवति हि तत्र या च यावती चार्थमात्रा। भवति हि कश्चित्प्रत्येकस्तन्तुस्त्वक्त्राणे समर्थ:। X X एकश्च बल्वजो बन्धने समर्थ:।’ पा. म. भा. 1।2।2।45।
- ↑ कार्यम्। तर्हि तन्त्वा—ता., ना.।
- ↑ न्यायस्य। ‘ज्ञानदर्शनयोस्तत्त्वं नयानां चैव लक्षणंम्। ज्ञानस्य च प्रमाणत्वमध्यायेऽस्मिन्निरूपितम्।। इति’ प्रतिष्वेवं पाठ:।