ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 5
From जैनकोष
21. एवमेषामुद्दिष्टानां सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनां च संव्यवहारविशेषव्यभिचारनिवृत्त्यर्थमाह –
21. इस प्रकार पहले जो सम्यग्दर्शन आदि और जीवादि पदार्थ कहे हैं उनका शब्द प्रयोग करते समय विवक्षाभेदसे जो गड़बड़ी होना सम्भव है उसको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास:।।5।।
नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूपसे उनका अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदिका न्यास अर्थात् निक्षेप होता है।।5।।
22. अतद्गुणे वस्तुनि संव्यवहारार्थं पुरुषकारान्नियुज्यमानं संज्ञा[1]कर्म नाम। काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमिति स्थाप्यमाना स्थापना। गुणैर्गुणान्वा द्रुतं गत गुणैर्द्रोष्यते गुणान्द्रोष्यतीति वा द्रव्यम्। वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भाव:। तद्यथा, नामजीव: स्थापनाजीवो द्रव्यजीवो भावजीव इति चतुर्धा जीवशब्दार्थो न्यस्यते। जीवनगुणमनपेक्ष्य यस्य कस्यचिन्नाम क्रियमाणं नाम जीव:। अक्षनिक्षेपादिषु जीव इति वा मनुष्यजीव इति वा व्यवस्थाप्यमान: स्थापनाजीव:। द्रव्यजीवो द्विविध: आगमद्रव्यजीवो नोआगमद्रव्यजीवश्चेति। तत्र जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राभृतज्ञायी वा अनुपयुक्त आत्मा आगमद्रव्यजीव:। नोआगमद्रव्यजीवस्त्रेधा व्यवतिष्ठते ज्ञायकशरीरभावि-तद्व्यतिरिक्तभेदात्। तत्र ज्ञातुर्यच्छरीरं त्रिकालगोचरं तज्ज्ञायकशरीरम्। सामान्यापेक्षया नोआगमभाविजीवो नास्ति, जीवनसामान्यस्य सदापि विद्यमानत्वात्। विशेषापेक्षया त्वस्ति। गत्यन्तरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभव[2] प्राप्तिं प्रत्यभिमुखो मनुष्यभाविजीव:। तद्व्यतिरिक्त: कर्मनोकर्मविकल्प:। भावजीवो द्विविध: आगमभावजीवो नोआगमभावजीवश्चेति। तत्र जीवप्राभृतविषयोपयोगाविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो वा आत्मा आगमभावजीव:। जीवनपर्यायेण मनुष्यजीवत्वपर्यायेण वा स्रमाविष्ट आत्मा नोआगमभावजीव:। एवमि-तरेषामपि पदार्थानां नामादिनिक्षेपविधिर्नियोज्य:। स किमर्थ: ? अप्रकृतनिराकरणाय प्रकृतनिरूपणाय च। निक्षेपविधिना[3] शब्दार्थ: प्रस्तीर्यते। तच्छब्दग्रहणं किमर्थम् ? सर्वसंग्रहार्थम्। असति हि तच्छब्दे सम्यग्दर्शनादीनां प्रधानानामेव न्यासेनाभिसंबन्ध: स्यात्, तद्विषयभावेनोपगृहीतानां जीवादीनां अप्रधानानां न स्यात्। तच्छब्दग्रहणे पुन: क्रियमाणे सति सामर्थ्यात्प्रधानानामप्रधानानां च ग्रहणं सिद्धं भवति।
22. संज्ञाके अनुसार गुणरहित वस्तुमें व्यवहारके लिए अपनी इच्छासे की गयी संज्ञाको नाम कहते हैं। काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप आदिमें ‘वह यह है’ इस प्रकार स्थापित करनेको स्थापना कहते हैं। जो गुणोंके द्वारा प्राप्त हुआ था या गुणोंको प्राप्त हुआ था अथवा जो गुणोंके द्वारा प्राप्त किया जायेगा या गुणोंको प्राप्त होगा उसे द्रव्य कहते हैं। वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको भाव कहते हैं। विशेष इस प्रकार है – नामजीव, स्थापनाजीव, द्रव्यजीव और भावजीव, इस प्रकार जीव पदार्थका न्यास चार प्रकारसे किया जाता है। जीवन गुणकी अपेक्षा न करके जिस किसीका ‘जीव’ ऐसा नाम रखना नामजीव है। अक्षनिक्षेप आदिमें यह ‘जीव है’ या ‘मनुष्य जीव है’ ऐसा स्थापित करना स्थापना-जीव है। द्रव्यजीवके दो भेद हैं – आगम द्रव्यजीव और नोआगम द्रव्यजीव। इनमें-से जो जीवविषयक या मनुष्य जीवविषयक शास्त्रको जानता है किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित है वह आगम द्रव्यजीव है। नोआगम द्रव्यजीवके तीन भेद हैं – ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त। ज्ञाताके शरीरको ज्ञायक शरीर कहते हैं। जीवन सामान्यकी अपेक्षा ‘नोआगम भाविजीव’ यह भेद नहीं बनता, क्योंकि जीवनसामान्यकी अपेक्षा जीव सदा विद्यमान है। हाँ, पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा ‘नोआगम भाविजीव’ यह भेद बन जाता है, क्योंकि जो जीव दूसरी गतिमें विद्यमान है वह जब मनुष्य भवको प्राप्त करेनेके लिए सम्मुख होता है तब वह मनुष्य भाविजीव कहलाता है। तद्व्यतिरिक्तके दो भेद हैं – कर्म और नोकर्म। भावजीवके दो भेद हैं – आगम भावजीव और नोआगम भावजीव। इनमें-से जो आत्मा जीवविषयक शास्त्रको जानता है और उसके उपयोगसे युक्त है अथवा मनुष्य जीवविषयक शास्त्रको जानता है और उसके उपयोगसे युक्त है वह आगम भावजीव है। तथा जीवन पर्याय या मनुष्य जीवन पर्यायसे युक्त आत्मा नोआगम भावजीव कहलाता है। इसी प्रकार अजीवादि अन्य पदार्थोंकी भी नामादि निक्षेप विधि लगा लेना चाहिए। शंका – निक्षेप विधिका कथन किस लिए किया जाता है ? समाधान – अप्रकृतका निराकरण करनेके लिए और प्रकृतका निरूपण करनेके लिए इसका कथन किया जाता है। तात्पर्य यह है कि प्रकृतमें किस शब्दका क्या अर्थ है यह निक्षेप विधिके द्वारा विस्तारसे बतलाया जाता है। शंका – सूत्रमें ‘तत्’ शब्दका ग्रहण किस लिए किया है? समाधान – सबका संग्रह करनेके लिए सूत्रमें ‘तत्’ शब्दका ग्रहण किया है। यदि सूत्रमें ‘तत्’ शब्द न रखा जाय तो प्रधानभूत सम्यग्दर्शनादिका ही न्यासके साथ सम्बन्ध होता। सम्यग्दर्शनादिकके विषयरूपसे ग्रहण किये गये अप्रधानभूत जीवादिकका न्यासके साथ सम्बन्ध न होता। परन्तु सूत्रमें ‘तत्’ शब्दके ग्रहण कर लेनेपर सामर्थ्यसे प्रधान और अप्रधान सबका ग्रहण बन जाता है।
विशेषार्थ – नि उपसर्गपूर्वक क्षिप् धातुसे निक्षेप शब्द बना है। निक्षेपका अर्थ रखना है। न्यास शब्दका भी यही अर्थ है। आशय यह है कि एक-एक शब्दका लोकमें और शास्त्रमें प्रयोजन के अनुसार अनेक अर्थोंमें प्रयोग किया जाता है। यह प्रयोग कहाँ किस अर्थमें किया गया है इस बातको बतलाना ही निक्षेप विधिका काम है। यों तो आवश्यकतानुसार निक्षेपके अनेक भेद किये जा सकते हैं। शास्त्रोंमें भी ऐसे विविध भेदोंका उल्लेख देखनेमें आता है। किन्तु मुख्यतया यहाँ इसके चार भेद किये गये हैं – नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। इनका लक्षण और दृष्टान्त द्वारा कथन टीकामें किया ही है। आशय यह है कि जैसे टीकामें एक जीव शब्दका नाम निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, स्थापना निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, द्रव्य निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है और भाव निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्दका नामादि निक्षेप विधिके अनुसार पृथक्-पृथक् अर्थ होता है। इससे अप्रकृत अर्थका निराकरण होकर प्रकृत अर्थका ग्रहण हो जाता है, जिससे व्यवहार करनेमें किसी प्रकारकी गड़बड़ी नहीं होती। इससे वक्ता और श्रोता दोनों ही एक दूसरेके आशयको भली प्रकार समझ जाते हैं। ग्रन्थका हार्द समझनेके लिए भी इस विधिका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। जैन परम्परामें इसका बड़ा भारी महत्त्व माना गया है। इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ भेदोंसहित निक्षेपके स्वरूपको स्पष्ट किया गया है।