ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 32
From जैनकोष
235. अत्रोच्यते –
235. यह एक प्रश्न है जिसका समाधान करनेके लिए अगला सूत्र कहते हैं।
[1]सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्।।32।।
वास्तविक और अवास्तविकके अन्तरके बिना यदृच्छोपलब्धि (जब जैसा जी में आया उस रूप ग्रहण होने) के कारण उन्मत्तिकी तरह ज्ञान भी अज्ञान हो जाता है।।32।।
236. सद्विद्यमानमसदविद्यमानमित्यर्थ:। तयोरविशेषेण यदृच्छया उपलब्धेर्विपर्ययो भवति। कदाचिद्रूपादिसदप्यसदिति प्रतिपद्यते, असदपि सदिति, कदाचित्सत्तदेव, असदप्यसदेवेति मिथ्यादर्शनोदयादध्यवस्यति। यथा पित्तोदयाकुलितबुद्धिर्मातरं भार्येति, भार्यामपि मातेति मन्यते। यदृच्छया[2] यदापि मातरं मातैवेति भार्यामपि भार्येवेति च तदापि न तत्सम्यग्ज्ञानम्। एवं मत्यादीनामपि रूपादिषु विपर्ययो वेदितव्य:। तथा हि, कश्चिन्मिथ्यादर्शनपरिणाम आत्मन्यवस्थितो रूपाद्युपलब्धै सत्यामपि कारणविपर्यासं भेदाभेदविपर्यासं स्वरूपविपर्यासं च जनयति।
236. प्रकृतमें ‘सत्’ का अर्थ विद्यमान और ‘असत्’ का अर्थ अविद्यमान है। इनकी विशेषता न करके इच्छानुसार ग्रहण करनेसे विपर्यय होता है। कदाचित् रूपादिक विद्यमान हैं तो भी उन्हें अविद्यमान कहता है। और कदाचित् अविद्यमान वस्तुकोभी विद्यमान कहता है। कदाचित् सत् को सत् और असत् को असत् ही मानता है। यह सब निश्चय मिथ्यादर्शनके उदयसे होता है। जैसे पित्तके उदयसे आकुलित बुद्धिवाला मनुष्य माताको भार्या और भार्याको माता मानता है। जब अपनी इच्छाकी लहरके अनुसार माताको माता और भार्याको भार्या ही मानता है तब भी वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है इसी प्रकार मत्यादिकका भी रूपादिकमें विपर्यय जानना चाहिए। खुलासा इस प्रकार है- आत्मामें स्थित कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम रूपादिककी उपलब्धि होनेपर भी कारण विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यासको उत्पन्न करता रहता है।
237. कारणविपर्यास्तावद् – रूपादीनामेकं कारणममूर्तं नित्यमिति [3]केचित्कल्पयन्ति। [4]अपरे पृथिव्यादिजातिभिन्ना: परमाणवश्चतुस्त्रिद्व्येकगुणास्तुल्यजातीयानां कार्याणामारम्भका इति। [5]अन्ये वर्णयन्ति – पृथिव्यादीनि चत्वारि भूतानि, भौतिकधर्मा वर्णगन्धरसस्पर्शा:, एतेषां समुदायो रूपपरमाणुरष्टक इत्यादि। [6]इतरे [7]वर्णयन्ति – पृथिव्यप्तेजोवायव: काठिन्यादिद्रवत्वाद्युष्णत्वादी-रणत्वादिगुणा[8] जातिभिन्ना: परमाणव: कार्यस्यारम्भका:।
237. कारणविपर्यास यथा – कोई मानते हैं कि रूपादिकका एक कारण है जो अमूर्त और नित्य है। कोई मानते हैं कि पृथिवी जातिके परमाणु अलग हैं जो चार गुणवाले हैं। जल जातिके परमाणु अलग हैं जो तीन गुणवाले हैं। अग्नि जातिके परमाणु अलग हैं जो दो गुणवाले हैं और वायु जातिके परमाणु अलगहैं जो एक गुणवाले हैं। तथा ये परमाणु अपने समान जातीय कार्यकोही उत्पन्न करते हैं। कोई कहते हैं कि पृथिवी आदि चार भूत हैं और इन भूतोंके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये भौतिक धर्म हैं। इन सबके समुदायको एक रूप परमाणु या अष्टक कहते हैं। कोई कहते हैं कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये क्रमसे काठिन्यादि, द्रवत्वादि, उष्णत्वादि और ईरणत्वादि गुणवाले अलग-अलग जातिके परमाणु होकर कार्यको उत्पन्न करते हैं।
238. भेदाभेदविपर्यास यथा – कारणसे कार्यको सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न मानना।
239. स्वरूपविपर्यासो रूपादयो निर्विकल्पा:[11] सन्ति न सन्त्येव[12] वा। तदाकारपरिणतं विज्ञानमेव[13]। न च तदालम्बनं वस्तु बाह्यमिति। एवमन्यानपि परिकल्पनाभेदान् दृष्टेष्टविरुद्धान्मिथ्या-दर्शनोदयात्कल्पयन्ति तत्र च श्रद्धानमुत्पादयन्ति। ततस्तन्मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं [14]विभङ्गज्ञानं च भवति। सम्यग्दर्शनं पुनस्तत्त्वार्थाधिगमे श्रद्धानमुत्पादयति। ततस्तन्मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं च भवति।
239. स्वरूपविपर्यास यथा – रूपादिक निर्विकल्प हैं, या रूपादिक हैं ही नहीं, या रूपादिकके आकाररूपसे परिणत हुआ विज्ञान ही है उसका आलम्बनभूत और कोई बाह्य पदार्थ नहीं है। इसीप्रकार मिथ्यादर्शनके उदयसे ये जीव प्रत्यक्ष और अनुमानके विरुद्ध नाना प्रकारकी कल्पनाएँ करते हैं और उनमें श्रद्धान उत्पन्न करते हैं। इसलिए इनका यह ज्ञान मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान या विभंगज्ञान होता है। किन्तु सम्यग्दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञानमें श्रद्धान उत्पन्न करता है, अत: इस प्रकारका ज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है।
विशेषार्थ – यहाँपर प्रारम्भके तीन ज्ञान विपर्यय होते हैं यह बतलाकर वे विपर्यय क्यों होते हैं यह बतलाया गया है। संसारी जीवकी श्रद्धा विपरीत और समीचीनके भेदसे दो प्रकारकी होती है। विपरीत श्रद्धावाले जीवको विश्वका यथार्थ ज्ञान नहीं होता। वह जगत् में कितने पदार्थ हैं उनका स्वरूप क्या है यह नहीं जानता। आत्मा और परमात्माके स्वरूप बोधसे तो वह सर्वथा वंचित ही रहता है। वह घटको घट और पटको पट ही कहता है, पर जिन तत्त्वोंसे इनका निर्माण होता है उनका इसे यथार्थ बोध नहीं होने पाता। यही कारण है कि जीवकी श्रद्धाके अनुसार ज्ञान भी समीचीन ज्ञान और मिथ्या ज्ञान इन दो भागोंमें विभक्त हो जाता है। यथार्थ श्रद्धाके होनेपर जो ज्ञान होते हैं उन्हें समीचीन ज्ञान कहते हैं और यथार्थ श्रद्धाके अभावमें होने वाले ज्ञानोंका नाम ही मिथ्याज्ञान है। ऐसे मिथ्याज्ञान तीन माने गये हैं – कुमति ज्ञान, कुश्रुत ज्ञान और विभंग ज्ञान। ये ही तीन ज्ञान मिथ्या होते हैं, अन्य नहीं, क्योंकि ये ज्ञान विपरीत श्रद्धावाले के भी पाये जाते हैं। विपरीत श्रद्धा होती है इसका निर्देश मूल टीकामें किया ही है।
- ↑ ‘सदसदविसेसणाओ भवहेउजदिच्छिओवलम्भाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छद्दिट्ठस्स अण्णाणं।‘ –वि. भा. गा. 115।
- ↑ –च्छया मातरं—मु,, ता., ना.।
- ↑ सांख्या:।
- ↑ नैयायिका:।
- ↑ बौद्धा:।
- ↑ लौकायतिका:।
- ↑ –तरे कल्पयन्ति पथि—आ., दि., 1।
- ↑ –णत्वादिगमनादिगुणा—आ., दि.1, दि. 2।
- ↑ नैयायिका:।
- ↑ सांख्या:।
- ↑ बौद्धा:।
- ↑ नैयायिका:।
- ↑ योगाचारा:।
- ↑ –ज्ञानमवध्यज्ञा-मु.।