ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 17
From जैनकोष
197. यद्यवग्रहादयो बह्वादीनां कर्मणामाक्षेप्तार:, बह्वादीनि पुनर्विशेषणानि कस्येत्यत आह-
197. यदि अवग्रह आदि बहु आदिकको जानते हैं तो बहु आदिक किसके विशेषण हैं। अब इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
अर्थस्य।।17।।
अर्थके (वस्तुके) अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान होते हैं।।17।।
198. चक्षुरादिविषयोऽर्थ:। तस्य बह्वादिविशेषणविशिष्टस्य अवग्रहादयो भवन्तीत्यभिसंबन्ध: क्रियते। किमर्थमिदमुच्यते यावता बह्वादिरर्थ एव ? सत्यमेवं, किन्तु प्रवादिपरिकल्पनानिवृत्त्यर्थं ‘अर्थस्य’ इत्युच्यते। केचित्प्रवादिनो मन्यन्ते रूपादयो गुणा एव इन्द्रियै: संनिकृष्यन्ते तेनैतेषामेव ग्रहणमिति। तदयुक्तम्; न हि ते रूपादयो गुणा अमूर्ता इन्द्रियसंनिकर्षमापद्यन्ते। न[1] तर्हि इदानीमिदं भवति ‘रूपं मया दृष्टं, गन्धो वा घ्रात’ इति। भवति च। कथम् ? इयर्ति पर्यायांस्तैर्वाऽर्यत इत्यर्थो द्रव्यं, तस्मिन्निन्द्रियै: संनिकृष्यमाणे तदव्यतिरेकाद्रूपादिष्वपि संव्यवहारो युज्यते।
198. चक्षु आदि इन्द्रियोंका विषय अर्थ कहलाता है। बहु आदि विशेषणोंसे युक्त उस (अर्थ) के अवग्रह आदि होते हैं ऐसा यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए। शंका – यत: बहु आदिक अर्थ ही हैं, अत: यह सूत्र किसलिए कहा ? समाधान – यह सत्य है कि बहु आदिक अर्थ ही हैं तो भी अन्य वादियोंकी कल्पना निराकरण करनेके लिए ‘अर्थस्य’ सूत्र कहा है। कितने ही प्रवादी मानते हैं कि रूपादिक गुण ही इन्द्रियोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त होते हैं, अत: उन्हींका ग्रहण होता है, किन्तु उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि वे रूपादिक गुण अमूर्त हैं, अत: उनका इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। शंका – यदि ऐसा है तो ‘मैंने रूप देखा, मैंने गन्ध सूँघा’ यह व्यवहार नहीं हो सकता, किन्तु होता अवश्य है सो इसका क्या कारण है ? समाधान – जो पर्यायोंको प्राप्त होता है या पर्यायोंके द्वारा जो प्राप्त किया जाता है, यह ‘अर्थ’ है। इसके अनुसार अर्थ द्रव्य ठहरता है। उसके इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध को प्राप्त होने पर चूंकि रूपादिक उससे अभिन्न हैं, अत: रूपादिकमें भी ऐसा व्यवहार बन जाता है कि ‘मैंने रूप देखा, मैंने गन्ध सूँघा।’
विशेषार्थ – ज्ञानका विषय न केवल सामान्य है और न विशेष, किन्तु उभयात्मक पदार्थ है। प्रकृतमें इसी बातका ज्ञान करानेकेलिए ‘अर्थस्य’ सूत्रकी रचना हुई है। इससे नैयायिक वैशेषिकोंके इस मतका खण्डन हो जाता है कि रूपादि गुण इन्द्रियोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त होते हैं।
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सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ ‘न तर्हि इदानीमिदं भवति।‘ वा. भा. 1,1,4।