ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 3
From जैनकोष
256. यद्येवमौपशमिकस्य कौ द्वौ भेदावित्यत आह -
256. यदि ऐसा है तो औपशमिक के दो भेद कौन-से हैं ? इस बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
सम्यक्त्वचारित्रे।।3।।
औपशमिक भाव के दो भेद हैं – औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र।।3।।
257. व्याख्यातलक्षणे सम्यक्त्वचारित्रे। औपशमिकत्वं कथमिति चेत् ? उच्यते – चारित्रमोहो द्विविध: कषायवेदनीयो नोकषायवेदनीयश्चेति। तत्र कषायवेदनीयस्य भेदा अनन्तानुबन्धिन: क्रोधमानमायालोभाश्चत्वार:। दर्शनमोहस्य त्रयो भेदा: सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वमिति। आसां सप्तानां प्रकृतीनामुपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वम्।
257. सम्यक्त्व और चारित्र के लक्षण का व्याख्यान पहले कर आये हैं। शंका – इनके औपशमिकपना किस कारण से है ? समाधान – चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं – कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय। इनमें से कषायवेदनीय के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद, ओर दर्शनमोहनीय के सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद – इन सात के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है।
258. अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशम: ? काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात्। तत्र काललब्धिस्तावत्-कर्माविष्ट आत्मा भव्य: कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति। इयमेका काललब्धि:। अपरा कर्मस्थितिका काललब्धि:। उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति। क्व तर्हि भवति ? अन्त:कोटाकोटीसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात्सत्कर्मसु च तत: संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामन्त:कोटीकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति। अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया। भव्य: पञ्चेद्रिय: संज्ञी पर्याप्तक: सर्वविशुद्ध: प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति। ‘आदि’शब्देन जातिस्मरणादि: परिगृह्यते।
258. शंका – अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? समाधान – काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धि को बतलाते हैं – कर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गल परिवर्तन नाम के काल के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने के योग्य होता है, इससे अधिक काल के शेष रहने पर नहीं होता यह एक काललब्धि है। दूसरी काललब्धि का सम्बन्ध कर्म स्थिति से है। उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्य स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता। शंका – तो फिर किस अवस्था में होता है ? समाधान - जब बँधने वाले कर्मों की स्थिति अन्त:कोड़ाकोड़ी सागरोपम पड़ती है और विशुद्ध परिणामों के वश से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागरोपम कम अन्त:कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्राप्त होती है तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। एक काललब्धि भव की अपेक्षा होती है – जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। ‘आदि’ शब्द से जातिस्मरण आदि का ग्रहण करना चाहिए।
259. कृत्स्नस्य मोहनीयस्योपशमादौपशमिकं चारित्रम्। तत्र सम्यक्त्वस्यादौ वचनं; तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रस्य।
259. समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से औपशमिक चारित्र होता है। इनमें से ‘सम्यक्त्व’ पद को आदि में रखा है, क्योंकि चारित्र सम्यक्त्व पूर्वक होता है।
विशेषार्थ – उपशम दो प्रकार का है – करणोपशम और अकरणोपशम। कर्मों का अन्तरकरण होकर जो उपशम होता है वह करणोपशम कहलाता है। ऐसा उपशम दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दो का ही होता है, इसलिए उपशम भाव के दो ही भेद बतलाये हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क का अन्तरकरण उपशम नहीं होता, इसलिए जहाँ भी इसके उपशम का विधान किया गया है वहाँ इसका विशुद्धि विशेष से पाया गया अनुदयोपशम ही लेना चाहिए। औपशमिक सम्यग्दृष्टि के दर्शनमोहनीय का तो अन्तरकरण उपशम होता है व अनन्तानुबन्धी चतुष्क का अनुदयरूप उपशम – यह उक्त कथन का भाव है। प्रकृत में जिस जीव के औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है उसकी योग्यता का निर्देश करते हुए ऐसी चार योग्यताएँ बतलायी हैं। विशेष इस प्रकार है – पहली योग्यता अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालकी है। जिस जीव के संसार में रहने का इतना काल शेष रहा है उसे ही सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है। पर इतने काल के शेष रहने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होनी ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है। इसके पहले सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती इतना सुनिश्चित है।