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जैन शब्दों का अर्थ जानने के लिए किसी भी शब्द को नीचे दिए गए स्थान पर हिंदी में लिखें एवं सर्च करें

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ब्राह्मण

From जैनकोष

Revision as of 09:13, 12 December 2024 by Chirag (talk | contribs)
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सिद्धांतकोष से

जैन आम्नाय में अणुव्रतधारी विवेकवान् श्रावक ही सुसंस्कृत होने के कारण द्विज या ब्राह्मण स्वीकार किया गया है, केवल जन्म से सिद्ध अविवेकी व अनाचारी व्यक्ति नहीं ।

  1. ब्राह्मण व द्विज का लक्षण
    महापुराण/38/43-48 तपःश्रुतं च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्यकारणम् । तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः ।43। ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् ... ।46। तपःश्रुताभ्यामेवातो जातिसंस्कार इष्यते । असंस्कृतस्तु यस्ताभ्यां जातिमात्रेण स द्विजः ।47। द्विर्जातो हि द्विजन्मेष्ट: क्रियातो गर्भतश्च यः । क्रियामंत्रविहीनस्तु केवलं नामधारकः ।48।
    1. तप, शास्त्रज्ञान और जाति ये तीन ब्राह्मण होने के कारण हैं । जो मनुष्य तप और शास्त्रज्ञान से रहित है वह केवल जाति से ही ब्राह्मण है।43। अथवा व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण होता है ।46।
    2. द्विज जाति का संस्कार तपश्चरण और शास्त्राभ्यास से ही माना जाता है, परंतु तपश्चरण और शास्त्राभ्यास से जिसका संस्कार नहीं हुआ है वह जातिमात्र से द्विज कहलाता है ।47। जो एक बार गर्भ से और दूसरी बार क्रिया से इस प्रकार दो बार उत्पन्न हुआ हो उसको दो बार जन्मा अर्थात् द्विज कहते हैं । ( महापुराण/39/93 ) । परंतु जो क्रिया और मंत्र  दोनों से रहित है वह केवल नाम को धारण करने वाला द्विज है ।48।
  2. ब्राह्मण के अनेकों नामों से रत्नत्रय का स्थान
    महापुराण/39/108-141 का भावार्थ -
    जन्म दो प्रकार का होता है - एक गर्भ से दूसरा संस्कार या क्रियाओं से । गर्भ से उत्पन्न होकर दूसरी बार संस्कार से जन्म धारे सो द्विज है । केवल जन्म से ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर द्विजपना जतलाना मिथ्या अभिमान है । जो ब्रह्मा से उत्पन्न हो सो ब्राह्मण है । जो बिना योनि के उत्पन्न हो सो देव है । जिनेंद्र देव, स्वयंभू, भगवान्, परमेष्ठी ब्रह्मा कहलाते हैं । उस परमदेव संबंधी रत्नत्रय की शक्तिरूपसंस्कार से जन्म धारनेवाला ही अयोनिज, देवब्राह्मण या देवद्विज हो सकता है । स्वयंभू के मुख से सुनकर संस्काररूप जन्म होता है, इसी से द्विज स्वयंभू के मुख से उत्पन्न हुआ कहा जाता है । व्रतों के चिह्नरूप से सूत्र ग्रहण करे सो ब्राह्मण है, केवल डोरा लटकाने से नहीं । जिनेंद्र का अहिंसामयी सम्यक्धर्म न स्वीकार करके वेदों में कहे गये हिंसामयी धर्म को स्वीकार करे वह ब्राह्मण नहीं हो सकता ।
  3. ब्राह्मण में गुण कर्म प्रधान है जन्म नहीं
    द्रव्यसंग्रह टीका/35/109 पर उद्धृत - जन्मना जायते शूद्रः क्रियया द्विज उच्यते । श्रुतेन श्रोतियो ज्ञेयो ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः ।1। = जन्म से शूद्र होता है, क्रिया से द्विज कहलाता है, श्रुत शास्त्र से श्रोत्रिय और ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण जानना चाहिए ।
    देखें ब्राह्मण - 1 तप, शास्त्रज्ञान और जाति तीन से ब्राह्मण होता है । अथवा व्रतसंस्कार से ब्राह्मण है ।

    महापुराण/38/42 विशुद्धा वृत्तिरेवैषां षट्तयोष्टा द्विजन्मनाम् । योऽतिक्रामेदिमां सोऽज्ञो नाम्नैव न गुणैर्द्विजः ।42। = यह ऊपर कही हुई छह प्रकार की विशुद्धि (पूजा, विशुद्धि पूर्वक खेती आदि करना, रूप वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप) वृत्ति इन द्विजों के करने योग्य है । जो इनका उल्लंघन करता है, वह मूर्ख नाममात्र से ही द्विज है, गुण से द्विज नहीं है ।42।
    धर्म परीक्षा /17/24-31 सदाचार कदाचार के कारण ही जाति भेद होता है, केवल ब्राह्मणों की जाति मात्र ही श्रेष्ठ है ऐसा नियम नहीं है । वास्तव में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वह चारों ही एक मनुष्य जाति हैं । परंतु आचार मात्र से इनके चार विभाग किये जाते हैं । 25। कोई कहे हैं कि, ब्राह्मण जाति में क्षत्रिय कदापि नहीं हो सकता क्योंकि चावलों की जाति में कोदों कदापि उत्पन्न नहीं देखे ।26।
    प्रश्न - तुम पवित्राचार के धारक को ही ब्राह्मण कहते हो शुद्ध शील की धारी ब्राह्मणी से उत्पन्न हुए को ब्राह्मण क्यों नहीं कहते ?
    उत्तर- ब्राह्मण और ब्राह्मणी का सदा काल शुद्ध शीलादि पवित्राचार नहीं रह सकता, क्योंकि बहुत काल बीत जाने पर शुद्ध शीलादि सदाचार छूट जाते हैं, और जातिच्युत होते देखे जाते हैं ।27-28। इस कारण जिस जाति में संयम-नियम-शील-तप-दान-जितेंद्रियता और दयादि वास्तव में विद्यमान हों उसको ही सत्पुरुषों ने पूजनीय जाति कहा है ।29। शील संयमादि के धारक नीच जाति के होने पर भी स्वर्ग में गये हैं और जिन्होंने शील संयमादि छोड़ दिये ऐसे कुलीन भी नरक में गये हैं ।31।
  4. जैन श्रावक ही वास्तविक ब्राह्मण है
    महापुराण/39/142 विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जैना वर्णोत्तमा द्विजाः । वर्णांतःपातिनो नैते जगन्मान्या इति स्थितम् ।142। महापुराण/42/185-186 सोऽस्त्यमीषां च यद्वेदशास्त्रार्थमधमद्विजाः । तादृशं बहुमंयंते जातिवादावलेपतः ।185। प्रजासामान्यतैवैषां मता वा स्यान्निष्कृष्टता । ततो न मान्यतास्त्येषां द्विजा मान्याः स्युरार्हताः ।186। = इससे यह बात निश्चित हो चुकी कि विशुद्ध वृत्ति को धारण करने वाले जैन लोग ही सब वर्णों में उत्तम हैं । वे ही द्विज हैं । ये ब्राह्मण आदि वर्णों के अंतर्गत न होकर वर्णोत्तम हैं और जगत्पूज्य हैं ।142। चूँकि यह सब (अहंकार आदि) आचरण इनमें (नाममात्र के अक्षरम्लेच्छ ब्राह्मणों में) है और जाति के अभिमान से ये नीच द्विज हिंसा आदि को प्ररूपित करने वाले वेद शास्त्र के अर्थ को बहुत कुछ मानते हैं इसलिए इन्हें सामान्य प्रजा के समान ही मानना चाहिए अथवा उससे भी निकृष्ट मानना चाहिए । इन सब कारणों से इनकी कुछ भी मान्यता नहीं रह जाती है, जो द्विज अरहंत भगवान् के भक्त हैं वही मान्य गिने जाते हैं ।185-186।
  5. वर्तमान का ब्राह्मण वर्ण मर्यादा से च्युत हो गया है
    महापुराण/41/46-51,55 आयुष्मन्​ भवता सृष्टा य एते गृहमेधिनः । ते तावदुचिताचारा यावत्कृतयुगस्थितिः ।46। ततः कलयुगेऽभ्यर्णे जातिवादावलेपतः । भ्रष्टाचाराः प्रपत्स्यंते सन्मार्गप्रत्यनीकताम् ।47। तेऽपि जातिमदाविष्टा वयं लोकाधिका इति । पुरागमैर्लोकं मोहयंति धनाशया ।48। सत्कारलाभसंवृद्धगर्वा मिथ्यामदोद्धताः । जनान् प्रकारयिष्यंति स्वयमुत्पाद्यदुःश्रुतीः ।46। त इमे कालपर्यंते विक्रियां प्राप्य दुर्दृशः । धर्मद्रुहो भविष्यंति पापोपहतचेतनाः ।50। सत्त्वो- पघातनिरता मधुमांसाशनप्रियाः । प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं घोषयिष्यंत्य- धार्मिकाः ।51। इति कालांतरे दोषबीजमप्येतदंजसा । नाधुना परिहर्तव्यं धर्मसृष्टयनातिक्रमात् ।55। = ऋृषभ भगवान् भरत के प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि - हे आयुष्मन्! तूने जो गृहस्थों की रचना की है, सो जब तक कृतयुग अर्थात् चतुर्थकाल की स्थिति रहेगी, तब तक तो ये उचित आचार-विचार का पालन करते रहेंगे । परंतु जब कलियुग निकट आ जायेगा, तब ये जातिवाद के अभिमान से सदाचार भ्रष्ट होकर मोक्षमार्ग के विरोधी बन जायेंगे ।46। पंचम काल में ये लोग, हम सब लोगों में बड़े हैं, इस प्रकार जाति के मद से युक्त होकर केवल धन की आशा से खोटे-खोटे शास्त्रों को रचकर लोगों को मोहित करेंगे ।47। सत्कार के लाभ से जिनका गर्व बढ़ रहा है और जो मिथ्या मद से उद्धृत हो रहे हैं ऐसे ये ब्राह्मण लोग स्वयं शास्त्रों को बनाकर लोगों को ठगा करेंगे ।48। जिनकी चेतना पाप से दूषित हो रही है ऐसे ये मिथ्यादृष्टि लोग इतने समय तक विकार भाव को प्राप्त होकर धर्म के द्रोही बन जायेंगे ।50। जो प्राणियों की हिंसा करने में तत्पर हैं तथा मधु और मांस का भोजन जिन्हें प्रिय है ऐसे ये अधर्मी ब्राह्मण हिंसारूप धर्म की घोषणा करेंगे ।51। इस प्रकार यद्यपि यह ब्राह्मणों की सृष्टि कालांतर में दोष का बीजरूप है तथापि धर्म-सृष्टि का उल्लंघन न हो इसलिए इस समय इसका परिहार करना भी अच्छा नहीं है ।55।
  6. ब्राह्मण अनेक गुण संपन्न होता है
    महापुराण/39/103-107 स यजन् याजयन् धीमान् यजमानैरुपासितः । अध्यापयन्नधीयानो वेदवेदांगविस्तरम् ।103। स्पृशन्नपि महीं नैव स्पृष्टो दोषैर्महीगतैः । देवत्वमात्मसात्कुर्याद इहैवाभ्यर्चितैर्गुणैः ।104। नाणिमा महिमैवास्य गरिमैव न लाघवम् । प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चेति तद्गुणाः ।105। गुणैरेभिरुपारूढ़महिमा देवसाद्भवम् । विभ्रल्लोकातिगं धाम मह्यामेष महीयते ।106। धर्म्यैराचरितैः सत्यशौचक्षांतिदमादिभिः । देवब्राह्मणतां श्लाघ्यां स्वस्मिन संभावयत्यसौ ।107। = पूजा करने वाले यजमान जिसकी पूजा करते हैं, जो स्वयं पूजन करता है, और दूसरों से भी कराता है, और जो वेद और वेदांग के विस्तार को स्वयं पढ़ता है, तथा दूसरों को भी पढ़ाता है, जो यद्यपि पृथिवी का स्पर्श करता तथापि पृथिवी संबंधी दोष जिसका स्पर्श नहीं कर सकते हैं, जो अपने प्रशंसनीय गुणों से इसी पर्याय में देवत्व को प्राप्त हुआ है ।103-104। जिसके अणिमा ऋद्धि (छोटापन) नहीं है किंतु महिमा (बड़प्पन) है, जिसके गरिमा ऋद्धि है, परंतु लघिमा नहीं है । जिसमें प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आदि देवताओं के गुण विद्यमान हैं ।105। उपर्युक्त गुणों से जिसकी महिमा बढ़ रही है, जो देवरूप हो रहा है, जो लोक को उल्लंघन करने वाला उत्कृष्ट तेज धारण करता है ऐसा यह भव्य-पृथ्वी पर पूजित होता है ।106। सत्य, शौच, क्षमा और दम आदि धर्म संबंधी आचरणों से वह अपने में प्रशंसनीय देव-ब्राह्मणपने की संभावना करता है ।107।
  7. ब्राह्मण के नित्य कर्तव्य
    महापुराण/38/24,49 इज्यां वार्ता च दत्तिं च स्वाध्यायं संयमं तपः । श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ।24। तदेषां जातिसंस्कारं द्रढयन्निति सोऽधिराट् । स प्रोवाच द्विजन्मभ्यः क्रियाभेदानशेषतः ।49। = भरत ने उन्हें उपासकाध्ययनांग से इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया ।24। (क्रिया और मंत्र से रहित केवल नाम मात्र के द्विज न रह जायें) इसलिए इन द्विजों की जाति के संस्कार को दृढ़ करते हुए सम्राट् भरतेश्वर ने द्विजों के लिए नीचे लिखे अनुसार क्रियाओं के समस्त भेद कहे ।49। (गर्भादानादि समस्त क्रियाएँ - देखें संस्कार - 2) ।
  8. ब्राह्मण में विद्याध्ययन की प्रधानता
    महापुराण/40/174-212 का भावार्थ
    (द्विजों के जीवन में) दस मुख्य अधिकार हैं । उनको यथाक्रम से कहा जाता है -
    1. बालपने से ही उनको विद्या अध्ययन करना रूप अतिबाल विद्या अधिकार है ।
    2. अपने कुलाचार की रक्षा करना रूप कुलावधि अधिकार;
    3. समस्त वर्णों में श्रेष्ठ होना रूप वर्णोत्तम अधिकार;
    4. दान देने की योग्यता भी इन्हीं में होती है ऐसा पात्रत्व अधिकार;
    5. कुमार्गियों की सृष्टि को छोड़कर क्षात्रिय रचित धर्म-सृष्टि की प्रभावना करना रूप सृष्ट्यधिकारता अधिकार;
    6. प्रायश्चित्तादि कार्यों में स्वतंत्रतारूप व्यवहारेशिता अधिकार;
    7. किसी अन्य के द्वारा अपने को गुणों में हीन न होने देना तथा लोक में ब्रह्महत्या को महान् अपराध समझा जाना रूप अवध्याधिकार;
    8. गुणाधिकता के कारण किसी अन्य के द्वारा दंड नहीं पा सकना रूप अदंडयता अधिकार;
    9. सबके द्वारा सम्मान किया जाना रूप मान्यार्हता अधिकार;
    10. अन्य जनों के संयोग में आने पर स्वयं उनसे प्रभावित न होकर उनको अपने रूप में प्रभावित कर लेना रूप संबंधांतर अधिकार । इन दस प्रकार के गुणों का धारक ही वास्तव में द्विज या ब्राह्मण है ।
      ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति का इतिहास- देखें वर्णव्यवस्था निर्देश 2.1


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पुराणकोष से

भरतेश द्वारा स्थापित वर्ण । ये जन्म से ब्राह्मण न होकर गुण और कर्म से ब्राह्मण होते हैं । ये सुसंस्कृत और व्रती होते हैं । पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप ये छ: विशुद्धियाँ करते हैं ।

ये मुक्तिमार्ग पर चलते हैं । द्विजों में ये मूर्धन्य होते हैं । महापुराण 38. 7-43, पद्मपुराण - 109.80-84, देखें द्विज


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