आश्रम
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 55
विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधानाश्रमम्।
= विशुद्ध ज्ञान व दर्शन की प्रधानता रूप आश्रम..अर्थात् ज्ञान दर्शन की प्रधानता ही आश्रम की लक्षण है।
चतुः आश्रम निर्देश
महापुराण सर्ग संख्या 39/152
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ॥152॥
= ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियों के चार आश्रम हैं जो कि उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं।
(चारित्रसार पृष्ठ 41/5 में उपासकाध्ययन से उद्धृत) (सागार धर्मामृत अधिकार 7/20)
पुराणकोष से
सागार और अनगार के भेद से द्विविध तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक के भेद से चतुर्विध । ये चारों उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं । महापुराण 39.152 । पद्मपुराण -5. 196