विशेष
From जैनकोष
- विशेष
स.सि./६/८/३२५/६ विशिष्यतेऽर्थोऽर्थान्तरादिति विशेषः। = जिससे एक अर्थ दूसरे अर्थ से विशेषता को प्राप्त हो वह विशेष है। (रा.वा./६/८/११/५१४/१६), (रा.वा./१/१/१/३/२३)।
न्या.वि./मू./१/१२१/४५० समानभावः सामान्यं विशेषो अन्यो व्यपेक्षया।१२१। = समान भाव को सामान्य कहते हैं और उससे अन्य अर्थात् विसमान भाव को विशेष कहते हैं।
न्या.वि./वृ./१/४/१२१/११ व्यावृत्तबुद्धिहेतुत्वाद्विशेषः। = व्यावृत्ति अर्थात् भेद की बुद्धि उत्पन्न करने वाला विशेष है। (स्या.म./८/६८/२६)।
द्र.सं./टी./२८/८६/३ विशेषा इत्यस्य कोऽर्थः। पर्यायः। = विशेष का अर्थ पर्याय है।–दे.अपवाद/१/१।
स्या.मं./४/१७/१५ स एव च इतरेभ्यः सजातीयविजातीयेभ्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावैरात्मानं व्यावर्तयन् विशेषव्यपदेश-मश्नुते। = यही (घट पदार्थ) दूसरे सजातीय और विजातीय पदार्थों से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से अपनी व्यावृत्ति करता हुआ विशेष कहा जाता है।
ध./उ./२ अस्त्यल्पव्यापको यस्तु विशेषः सदृशेतरः।२। = जो विसदृशता का द्योतक तथा अल्प देशव्यापी विशेष होता है।
- विशेष के भेद
प.मु./४/६-७ विशेषश्च/६/पर्यायव्यतिरेकभेदात्।७। = पर्याय और व्यतिरेक के भेद से विशेष भी दो प्रकार का है।–(इन दोनों के लक्षण दे. वह वह नाम)।
- ज्ञान विशेषोपयोगी है
पं.का./त.प्र./४० विशेषग्राहिज्ञानम्। = विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है।
स्या.मं./१/१०/२३ प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति। = सामान्य को गौण करके विशेष की मुख्यतापूर्वक किसी वस्तु के ग्रहण को ज्ञान कहते हैं।
- वस्तु सामान्य विशेषात्मक है–दे. सामान्य।
- गणित विषय में विशेष का लक्षण–Common difference; चय–दे. गणित/II/५/३।