वैनयिक
From जैनकोष
- वैनयिक मिथ्यात्व का स्वरूप
स.सि./८/१/३७५/८ सर्वदेवतानां सर्वसमयानां च सम्यग्दर्शनं वैनयिकम्। = सब देवता और सब मतों को एक समान मानना वैनयिक मिथ्यादर्शन है। (रा.वा./८/१/२८/५६४/२१); (त.सा./५/८)।
ध.८/३, ६/२०/७ अइहिय-पारत्तियसुहाइं सव्वाइं पि विणयादो चेव, ण णाण-दंसण-तवोववासकिलेसेहिंतो त्ति अहिणिवेसो वेणेइयमिच्छत्तं। = ऐहिक एवं पारलौकिक सुख सभी विनय से ही प्राप्त होते हैं, न कि ज्ञान, दर्शन, तप और उपवास जनित क्लेशों से, ऐसे अभिनिवेश का नाम वैनयिक मिथ्यात्व है।
द.सा./मू./१८-१९ सव्वेसु य तित्थेसु य वेणइयाणं समुब्भवो अत्थि। सजडा मुंडियसीसा सिहिणो णंगा य केइ य।१८। दुट्ठे गुणवंते वि य समया भत्ती य सव्वदेवाणं। णमणं दंडुव्व जणे परिकलियं तेहि मूढेहिं।१९। = सभी तीर्थंकरों के तीर्थों में वैनयिकों का उद्भव होता रहा है। उनमें कोई जटाधारी, कोई मुण्डे, कोई शिखाधारी और कोई नग्न रहे हैं।१८। चाहे दुष्ट हो चाहे गुणवान् दोनों में समानता से भक्ति करना और सारे ही देवों को दण्डवत् नमस्कार करना, इस प्रकार के सिद्धान्तों को उन मूर्खों ने लोगों में चलाया।१९।
भावसंग्रह/८८, ८९ वेणइयमिच्छादिट्ठी हवइ फुडं तावसो हु अण्णाणी। णिगुणजणं पि विणओ पउज्जमाणो हु गयविवेओ।८८। विणयादो इह मोक्खं किज्जइ पुणु तेण गद्दहाईणं। अमुणिय गुणागुणेण य विणयं मिच्छत्तनडिएण।८९। = वैनयिक मिथ्यादृष्टि अविवेकी तापस होते हैं। निर्गुण जनों की यहाँ तक कि गधे की भी विनय करने अथवा उन्हें नमस्कार आदि करने से मोक्ष होता है, ऐसा मानते हैं। गुण और अवगुण से उन्हें कोई मतलब नहीं।
गो.क./मू./८८८/१०७० मणवयणकायदाणगविणवो सुरणिवइणाणि जदिवुड्ढे। बाले पिदुम्मि च कायव्वो चेदि अट्ठचऊ।८८। = देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता, पिता इन आठों की मन, वचन, काय व दान, इन चारों प्रकारों से विनय करनी चाहिए।८८। (ह.पु./१०/५९)।
अन.ध./२/६/१२३ शिवपूजादिमात्रेण मुक्तिमभ्युपगच्छताम्। निःशङ्कं भूतघातोऽयं नियोगः कोऽपि दुर्विघेः।६। = शिव या गुरु की पूजादि मात्र से मुक्ति प्राप्त हो जाती है, जो ऐसा मानने वाले हैं, उनका दुर्दैव निःशंक होकर प्राणिवध में प्रवृत्त हो सकता है। अथवा उनका सिद्धान्त जीवों को प्राणिवध की प्रेरणा करता है।
भा.पा./टी.१३५/२८३/२१ मातृपितृनृपलोकादिविनयेन मोक्षक्षेपिणां तापसानुसारिणां द्वात्रिंशन्मतानि भवन्ति। = माता, पिता, राजा व लोक आदि के विनय से मोक्ष मानने वाले तापसानुसारी मत ३२ होते हैं।
- विनयवादियों के ३२ भेद
रा.वा./८/१/१२/५६२/१० वशिष्ठपाराशरजतुकर्णवाल्मीकिरोमहर्षिणिसत्यदत्तव्यासैलापुत्रौपमन्यवेन्द्रदत्तायस्थूला-दिमार्गभेदात् वैनयिकाः द्वात्रिंशद्गणना भवन्ति। = वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिणि, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यु, ऐन्द्रदत्त, अयस्थूल आदिकों के मार्गभेद से वैनयिक ३२ होते हैं। (रा.वा./१/२०/१२/७४/७); (ध.१/१, १, २/१०८/३); (ध./९/४, १, ४५/२०३/७)।
ह.पु./१०/६० मनोवाक्कायदानानां मात्राद्यष्टकयोगतः। द्वात्रिंशत्परिसंख्याता वैनयिक्यो हि दृष्टयः।६०। = [दव, राजा आदि आठ की मन, वचन, काय व दान इन चार प्रकारों से विनय करनी चाहिए–दे.पहले शीर्षक में गो.क./मू./८८८] । इसलिए मन, वचन, काय और दान इन चार का देव आदि आठ के साथ संयोग करने पर वैनयिक मिथ्यादृष्टियों के ३२ भेद हो जाते हैं।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- सम्यक् विनयवाद।–दे. विनय/१/५।
- द्वादशांग श्रुतज्ञान का पाँचवाँ अंग।–दे. श्रुतज्ञान/III।
- वैनयिक मिथ्यात्व व मिश्रगुणस्थान में अन्तर।–दे. मिश्र/२।
- सम्यक् विनयवाद।–दे. विनय/१/५।