वैश्य
From जैनकोष
म. पु. /सर्ग/श्लोक-‘‘वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपाशुपाल्योपजीविताः । (१६/१०४) । ऊरुभ्यां दर्शयन् यात्राम् अस्राक्षीद् वणिजः प्रभुः । जलस्थलादियात्राभिः तद्वृत्तिर्वार्त्तया यतः । (१६/२४४) । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् । (३८/४६) । = जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा जीविका करते थे वे वैश्य कहलाते थे । (१६/१८४) । भगवान् ने अपने ऊरुओं से यात्रा दिखलाकर अर्थात् परदेश जाना सिखलाकार वैश्यों की रचना की सो ठीक ही है, क्योंकि जल, स्थल आदि प्रदेशों में यात्रा कर व्यापार करना ही उनकी मुख्य आजीविका है । (१६/२४४) । न्यायापूर्वक धन कमाने से वैश्य होता है । (३८/४६) ।