व्यंजन शुद्धि
From जैनकोष
भ. आ./वि./११३/२६१/१० तत्र व्यंजनशुद्धिर्नाम यथा गणधरादिभिर्द्वात्रिंशद्दोषवर्जितानि सूत्राणि कृतानि तेषां तथैव पाठः । शब्दश्रुतस्यापि व्यजते ज्ञायते अनेनेति ग्रहे ज्ञानशब्देन गृहीतत्वात् तन्मूलं ही श्रुतज्ञानं । = गणधारादि आचार्यों ने बत्तीस दोषों से रहित सूत्रों का निर्माण किया है, उनको दोष रहित पढ़ना व्यंजन शुद्धि है । शब्द के द्वारा ही हम वस्तु को जान लेते हैं । ज्ञानोत्पत्ति के लिए शब्द कारण है । समस्त श्रुतज्ञान शब्द की भित्ति पर खड़ा हुआ है । अतः शब्दों को ‘ज्ञायतेऽनेन’ इस विग्रह से ज्ञान कह सकते हैं ।–(विशेष दे. उभय शुद्धि) ।