साधारण वनस्पति परिचय
From जैनकोष
- साधारण वनस्पति परिचय
- साधारण शरीर नामकर्म का लक्षण
स.सि./८/११/३९१/९ बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणं शरीरं यतो भवति तत्साधारणशरीरनाम । = बहुत आत्माओं के उपभोग का हेतु रूप से साधारण शरीर जिसके निमित्त से होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है (रा.वा./८/११/२०/५७८/२०); (गो.जी./जी.प्र./३३/३०/१३) ।
ध.६/१, ९-१, २८/६३/१ जस्स कम्मस्स उदएण जीवो साधारणसरीरो हीज्ज, तस्स कम्मस्स साधारणसरीरमिदि सण्णा । = जिस कर्म के उदय से जीव साधारण शरीरी होता है उस कर्म की ‘साधारण शरीर’ यह संज्ञा है ।
ध.१३/५, ५, १०१/३६५/९ जस्स कम्मस्सुदएण एगसरीरा हीदूण अणंता जीवा अच्छंति तं कम्मं साहारणसरीरं । = जिस कर्म के उदय से एक ही शरीर वाले होकर अनन्त जीव रहते हैं वह साधारण शरीर नामकर्म है ।
- साधारण जीवों का लक्षण
- साधारण जन्म मरणादि की अपेक्षा
ष.खं.१४/५, ६/सू.१२२-१२५/२२६-२३० साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणिदं ।१२२। एयस्स अणुग्गहणं बहूण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं समासदो तं पि होदि एयस्स ।१२३। समगं वक्कंताणं समगं तेसिं सरीरणिप्पत्ती । समंग च अणुग्गहणं समगं उस्सासणिस्सासो ।१२४। जत्थेउ मरइ जीवो तत्थ दु मरणंभवे अणंताणं । वक्कमइ’ जत्थ एक्को वक्कमणं तत्थथंताण ।१२५। = साधारण आहार और साधारण उच्छ्वास निःश्वास का ग्रहण यह साधारण जीवों का साधारण लक्षण कहा गया है ।१२२। (पं.सं./प्रा./१/८२) (ध.१/१, १, ४१गा.१४५/२७०); (गो.जी./मू./१९२) एक जीव का जो अनुग्रहण अर्थात् उपकार है वह बहुत साधारण जीवों का है और इसका भी है तथा बहुत जीवों का जो अनुग्रहण है वह मिलकर इस विवक्षित जीव का भी है ।१२३। एक साथ उत्पन्न होने वालों के उनके शरीर की निष्पत्ति एक साथ होती है, एक साथ अनुग्रहण होता है और एक साथ उच्छ्वास-निःश्वास होता है ।१२४। - जिस शरीर में एक जीव मरता है वहाँ अनन्त जीवों का मरण होता है और जिस शरीर में एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है ।१२५ । (पं.सं./प्रा./१/८३); (ध.१/१, १, ४१/गा.१४६/२७०); (गो.जी./मू./१९३) ।
रा.वा./८/११/२०/५७८/२२ साधारणाहारादिपर्याप्तिचतुष्टयजन्म-मरणप्राणापानानुग्रहोपघाताः साधारण-जीवाः । यदैकस्याहारशरीरेन्द्रियप्राणापानपर्याप्तिनिर्वृत्तिःतदैवानन्तानाम शरीरेन्द्रियप्राणापानपर्याप्ति-निर्वृत्तिः । यदैको जायते तदैवानन्ताः प्राणापानग्रहण विसर्गौ कुर्वन्ति । यदैक आहारादिनानुगृह्यते तदैवानन्ताःतेनाहारेणा-नुगृह्यन्ते । यदैकोऽग्निविषादिनोपहन्यते तदेवानन्तानामुपघातः । = साधारण जीवों के साधारण आहारादि चार पर्याप्तियाँ और साधारण ही जन्म मरण श्वासोच्छ्वास अनुग्रह और उपघात आदि होते हैं । जब एक के आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनपानपर्याप्ति होती है, उसी समय अनन्त जीवों के जन्म-मरण हो जाते हैं । जिस समय एक श्वासोच्छ्वास लेता, या आहार करता, या अग्नि विष आदि से अपहत होता है उसी समय शेष अनन्त जीवों के भी श्वासोच्छ्वास आहार और उपघात आदि होते हैं ।
- साधारण निवास की अपेक्षा
ध.३/१, २, ८७/३३३/२ जेव जोवेण एगसरीरट्ठिय बहूहि जीवेहि सह कम्मफलमणुभवेयव्वमिदिकम्ममुवज्जिदं सो साहारणसरीरो । = जिस जीव ने एक शरीर में स्थित बहुतं जीवों के साथ सुख-दुख रूप कर्म फल के अनुभव करने योग्य कर्म उपर्जित किया है, वह जीव साधारण शरीर है ।
ध.१४/५, ६, ११९/२२५/५ बहूणं जीवाणं जमेगं सरीरं तं साहारणसरीरं णाम । तत्थ जे वसंति जीवा ते साहारणसरीरा । अथवा.... साहारणं सामण्णं सरीरं जेसिं जीवाणं ते साहारणसरीरा । = बहुत जीवों का जो एक शरीर है वह साधारण शरीर कहलाता है । उनमें जो जीव निवास करते हैं वे साधारण शरीर जीव कहलाते हैं । अथवा... साधारण अर्थात् सामान्य शरीर जिन जीवों का है वे साधारण शरीर जीव कहलाते हैं ।
- साधारण जन्म मरणादि की अपेक्षा
- बोने के अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त सभी वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं
ध.१४/५, ६, १२६/गा.१७/२३२ बीजे जीणीभूदे जीवो वक्कमइ सो व अष्णो वा । जे विय मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ।१७। = योनिभूत बीज में वही जीव उत्पन्न होता है या अन्य जीव उत्पन्न होता है और जो मूली आदि हैं वे प्रथम अवस्था में प्रत्येक हैं । (ध.३/१, ३, ८३/गा.७६/३४८) (गो.जी./मू.१८७) ।
गो.जी./जी.प्र./१८७/४२५/१४ येऽपि च मूलकादयः प्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरत्वेन प्रतिबद्धाः तेऽपि खलु प्रथमतायां स्वोत्पन्नप्रथमसमये अन्तर्मुहूर्तकालं साधारणजीवैरप्रतिष्ठितप्रत्येका एव भवन्ति । = जो ये मूलक आदि प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति प्रसिद्ध हैं, वे भी प्रथम अवस्था में जन्म के प्रथम समय से लगाकर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त नियम से अप्रतिष्ठित प्रत्येक ही होती हैं । पीछे निगोद जीवों के द्वारा आश्रित किये जाने पर प्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं ।
- कचिया अवस्था में सभी वनस्पतियाँ प्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं
मू.आ./२१६-२१७ गूढसिरसंधिपव्वं समभंगमहीरुहं च छिण्णरुहं । साहारणसरीरं तव्विवरीयं च पत्तेयं ।२१६। होदि वणप्फदि वल्ली रुक्खतण्णदि तहेव एइंदी । ते जाण हरितजीवा जाणित्त परिहरेदव्वा ।२१७। = जिनकी नसें नहीं दीखतीं, बन्धन व गाँठि नहीं दीखती, जिनके टुकड़े समान हो जाते हैं और दोनों भङ्गों में परस्पर तन्तु न लगा रहे, तथा छेदन करने पर भी जिनकी पुनः वृद्धि हो जाय उसको सप्रतिष्ठित प्रत्येक और इससे विपरीत को अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं ।२१६। (गो.जी./मू./१८८/४२७) वनस्पति बेल वृक्ष तृण इत्यादि स्वरूप हैं । एकेन्द्रिय हैं । ये सब प्रत्येक साधारण हरितकाय हैं ऐसा जानना और जानकर इनकी हिंसा का त्याग करना चाहिए ।२१७।
गो.जी./मू./१८९-१९० मूले कंदे छल्लीपवालसालदलकुसुमफलबीजे । समभंगे सदि णंता असमे सदि होंति पत्तेया ।१८९। कंदस्स व मूलस्स व सालाखंदस्स वावि बहुलतरी । छल्ली साणंतजिया पत्तेयजिया तु तणुकदरी ।१८८। = जिन वनस्पतियों के मूल, कन्द, त्वचा, प्रवाल, क्षुद्रशाखा (टहनी) पत्र फूल फल तथा बीजों को तोड़ने से समान भंग हो उसको सप्रतिष्ठित वनस्पति कहते हैं और जिनका भंग समान न हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं ।१८९। जिस वनस्पति के कन्द, मूल, क्षुद्रशाखा या स्कन्ध की छाल मोटी हो उसको अनन्तजीव (सप्रतिष्ठित प्रत्येक) कहते हैं और जिसकी छाल पतली हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं ।१९०।
- प्रत्येक व साधारण वनस्पतियों का सामान्य परिचय
ला.सं./२/९१-९८, १०९ साधारणं च केषांचिन्मूलं स्कन्धस्तथागमात् । शाखाः पत्राणि पुष्पाणि पर्वदुग्धफलानि च ।९१। तत्र व्यस्तानि केषांचित्समस्तान्यथ देहिनाम् । पापमूलानि सर्वाणि ज्ञात्वा सम्यक् परित्यजेत् ।९२। मूल साधारणास्तत्रमूलकाञ्चाद्रकादयः । महापापप्रदाः‘सर्वे मूलोन्मूल्वा गृहिव्रतैः ।९३ । स्कन्धपत्रपयः पर्वतुर्यसाधारणा यथा । गंडीरकस्तथा चार्कदुग्धं साधारणं मतम् ।९४। पुष्पसाधारणाः केचित्करीरसर्षपादयः । पर्वसाधारणाश्चेक्षुदण्डाः साधारणाम्रकाः ।९५। फलसाधारणं ख्यातं प्रोत्तेदुम्बरपञ्चकम् । शाखा साधारणा ख्याता कुमारीपिण्डकादयः ।९६। कुम्पलानि स सर्वेषां मृदूनि च यथागमम् । सन्ति साधारणान्येव प्रोत्तकालावधेरधः ।९७। शाकाः साधारणाः केचित्प्रत्येकमूर्तयः । वल्यः साधारणाः काश्चित्काश्चित्प्रत्येककाः स्फुटम् ।९८। तल्लक्षणं यथा भङ्गें समभागः प्रजायते । तावत्साधारणं ज्ञेयं शेषं प्रत्येकमेव तत् ।१०९। =- किसी वृक्ष की जड़ साधारण होती है, किसी का स्कन्ध साधारण होता है, किसी की शाखाएँ साधारण होती हैं, किसी के पत्ते साधारण होते हैं, किसी के फूल साधारण होते हैं, किसी के पर्व (गाँठ) का दूध, अथवा किसी के फल साधारण होते हैं ।९१। इनमें से किसी-किसी के तो मूल, पत्ते, स्कन्ध, फल, फूल आदि अलग-अलग साधारण होते हैं और किसी के मिले हुए पूर्ण रूप से साधारण होते हैं ।९२।
- मूली, अदरक, आलू, अरबी, रतालू, जमीकन्द, आदि सब मूल (जड़ें) साधारण हैं ।९३। गण्डीरक (एक कडुआ जमीकन्द) के स्कन्ध, पत्ते, दूध और पर्व यें चारों ही अवयव साधारण होते हैं । दूधों में आकका दूध साधारण होता है ।९४। फूलों में करीर के व सरसों के फूल और भी ऐसे ही फूल साधारण होते हैं तथा पर्वों में ईख की गाँठ और उसका आगे का भाग साधारण होता है ।९५। पाँचों उदम्बर फल तथा शाखाओं में कुमारीपिण्ड (गँवारपाठा जो कि शाखा रूप ही होता है)की सब शाखाएँ साधारण होती हैं ।९६। वृक्षों पर लगी कौंपलें सब साधारण हैं पीछे पकने पर प्रत्येक हो जाती हैं ।९७। शाकों में ‘चना, मेथी, बथुआ, पालक, कुलफी आदि) कोई साधारण तथा कोई प्रत्येक, इसी प्रकार बेलों में कोई लताएँ साधारण तथा कोई प्रत्येक होती हैं ।९८।
- साधारण व प्रत्येक का लक्षण इस प्रकार लिखा है कि जिसके तोड़ने में दोनों भाग एक से हो जायें जिस प्रकार चाकू से दो टुकड़े करने पर दोनों भाग चिकने और एक से ही जाते हैं उसी प्रकार हाथ से तोड़ने पर भी जिसके दोनों भाग चिकने एकसे ही जायें वह साधारण वनस्पति है । जब तक उसके टुकड़े इसी प्रकार होते रहते हैं तब तक साधारण समझना चाहिए । जिसके टुकड़े चिकने और एक से न हों ऐसी बाकी की समस्त वनस्पतियों को प्रत्येक समझना चाहिए ।१०९।
गो.जी./जी.प्र./१८८/४२७/५ तच्छरीरं साधारणं-साधारणजीवाश्रितत्वेन साधरणमित्युपचर्यते । प्रतिष्ठितशरीरमित्यर्थः । = (प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति में पाये जाने वाले असंख्यात शरीर ही साधारण हैं ।) यहाँ प्रतिष्ठित प्रत्येक साधारण जीवों के द्वारा आश्रित की अपेक्षा उपचार करके साधारण कहा है । (का.अ./टी./१२८)
- एक साधारण शरीर में अनन्त जीवों का अवस्थान
ष.खं.१४/५, ६/सू.१२६, १२८/२३१-२३४ बादरसुहुमणिगोदा बद्धा पुट्ठा य एयमेएण । ते हु अणंता जीवा मूलयथूहल्लयादीहि ।१२६। एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा । सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वेण वि तीदकालेण ।१२८। =- बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव ये परस्पर में (सब अवयवों से) बद्ध और स्पष्ट होकर रहते हैं । तथा वे अनन्त जीव हैं जो मूली, थूवर और आर्द्रक आदि के निमित्त से होते हैं ।१२६।
- एक निगोद शरीर में द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा देखे गये जीव सब अतीत काल के द्वारा सिद्ध हुए जीवों से भी अनन्तगुणे हैं ।१२८। (पं.सं./प्रा./१/८४ ( (ध.१/१, १, ४१/गा.१४७/२७०) (ध.४/१, ५,३१/गा. ४३/४७८) (ध.१४/५, ६, ९३/८६/१२) (ध.१४/५, ६, ९३/९८/६) (गो.जी./मू./१९६/ ४३७) ।
- साधारण शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना
गो.जी./जी.प्र./१८६/४२३/११ प्रतिष्ठितप्रत्येकवनस्पतिजीवशरीरस्य सर्वोत्कृष्टमवगाहनमपि घनाङ्गुलासंख्येयभागमात्रमेवेति पूर्वोक्तार्द्रकादिस्कन्धेषु एकैकस्मिंस्तानि असंख्यातानि असंख्यातानि सन्ति । = प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर की सर्वोत्कृष्ट अवगाहना घनांगुल के असंख्यात भाग मात्र ही हैं । क्योंकि पूर्वोक्त आद्रक को आदि लेकर एक-एक स्कन्ध में असंख्यात प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर (त्रैराशिक गणित विधान के द्वारा) पाये जाते हैं ।
- साधारण शरीर नामकर्म का लक्षण