माध्व वेदांत या द्वैतवाद
From जैनकोष
- माध्व वेदान्त या द्वैतवाद
- सामान्य परिचय
ई. श. १२-१३ में पूर्ण प्रज्ञा माध्व देव द्वारा इस मत का जन्म हुआ। न्याय सुधा व पदार्थ संग्रह इसके मुख्य ग्रन्थ हैं। अनेक तत्त्व मानने से भेदवादी है।
- तत्त्व विचार
पदार्थ १० हैं–द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य व अभाव।
- द्रव्य विचार
- द्रव्य दो-दो भागों में विभाजित है–गमन प्राप्य, उपादान कारण, परिणाम व परिणामी दोनों स्वरूप, परिणाम व अभिव्यक्ति। उसके २० भेद हैं–परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृतआकाश, प्रकृति, गुणत्रय, महत्तत्त्व, अहंकार, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन्मात्रा, भूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल तथा प्रतिबिम्ब।
- परमात्मा–यह शुद्ध, चित्स्वरूप, सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्टा, नित्य, एक, दोष व विकार रहित, सृष्टि, संहार, स्थिति, बन्ध, मोक्ष आदि का कर्ता, ज्ञान शरीरी तथा मुक्त पुरुष से भी परे है। जीवों व भगवान् के अवतारों में यह ओत-प्रोत है। मुक्त जीव तो स्वेच्छा से शरीर धारण करके छोड़ देता है। पर यह ऐसा नहीं करता। इसका शरीर अप्राकृत है।
- लक्ष्मी–परमात्मा की कृपा से लक्ष्मी, उत्पत्ति, स्थिति व लय आदि सम्पादन करती है। ब्रह्मा आदि लक्ष्मी के पुत्र हैं। नित्य मुक्त व आप्त काम हैं। लक्ष्मी परमात्मा की पत्नी समझी जाती है। श्री, भू, दुर्गा, नृणी, ह्री, महालक्ष्मी, दक्षिणा, सीता, जयंती, सत्या, रुक्मिणी, आदि सब लक्ष्मी की मूर्तियाँ हैं। अप्राकृत शरीर धारिणी है।
- जीव–ब्रह्मा आदि भी संसारी जीव हैं। यह असंख्य है। अज्ञान, दुख, भय आदि से आवृत हैं एक परमाणु प्रदेश में अनन्त जीव रह सकते हैं। इसके तीन भेद हैं–मुक्ति योग्य, तमो योग्य व नित्य संसारी। ब्रह्मा आदि देव, नारदादि ऋषि, विश्वामित्रादि पितृ, चक्रवर्ती व मनुष्योत्तम मुक्ति योग्य संसारी है। तमो योग्य संसारी दो प्रकार हैं–चतुर्गणोपासक, एकगुणोपासक है। उपासना द्वारा कोई इस शरीर में रहते हुए भी मुक्ति पाता है। तमोयोग्य जीव पुनः अपि चार प्रकार है–दैत्य, राक्षस, पिशाच तथा अधम मनुष्य। नित्य संसारी जीव सदैव सुख भोगते हुए नरकादि में घूमते रहते हैं। ये अनन्त हैं।
- अव्याकृत आकाश–यह नित्य व विभु है, परन्तु भूताकाश से भिन्न है। वैशेषिक के दिक् पदार्थ वत् है।
- प्रकृति–जड़, परिणामी, सत्त्वादि गुणत्रय से अतिरिक्त, अव्यक्त व नाना रूप है। नवीन सृष्टि का कारण तथा नित्य है। लिंग शरीर की समष्टि रूप है।
- गुणत्रय–सत्त्व, रजस् व तनस् ये तीन गुण हैं। इनकी साम्यावस्था को प्रलय कहते हैं। रजो गुण से सृष्टि, सत्त्व गुण से स्थिति, तथा तमोगुण से संहार होता है।
- महत्–त्रिगुणों के अंशों के मिश्रण से उत्पन्न होता है। बुद्धि तत्त्व का कारण है।
- अहंकार–इसका लक्षण सांख्य वत् है। यह तीन प्रकार का है–वैकारिक, तैजस व तामस।
- बुद्धि–महत् से बुद्धि की उत्पत्ति होती है। यह दो प्रकार है–तत्त्व रूप व ज्ञान रूप।
- मनस्–यह दो प्रकार है–तत्त्वरूप व तत्त्वभिन्न। प्रथम की उत्पत्ति वैकारिक अंहकार से होती है। तत्त्व-भिन्न मन इन्द्रिय है। वह दो प्रकार है–नित्य व अनित्य। परमात्मा आदि सब जीवों के पास रहने वाला नित्य है। बद्ध जीवों का मन अचेतन व मुक्त जीवों का चेतन है। अनित्य मन बाह्य पदार्थ है। तथा सर्व जीवों के पास है। यह पाँच प्रकार है–मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त व चेतना। मन संकल्प विकल्पात्मक है। निश्चयात्मिक बुद्धि है। पर में स्व की मति अंहकार है। स्मरण का हेतु चित्त है। कार्य करने की शक्ति स्वरूप चेतना है।
- इन्द्रिय–तत्त्वभूत व तत्त्वभिन्न दोनों प्रकार की ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ, नित्य व अनित्य दो-दो प्रकार की हैं। अनित्य इन्द्रियाँ तैजस अंहकार की उपज हैं। और नित्य इन्द्रियाँ परमात्मा व लक्ष्मी आदि सब जीवों के स्वरूप भूत हैं। ये साक्षी कहलाती हैं।
- तन्मात्रा–शब्द स्पर्शादि रूप पाँच हैं। ये दो प्रकार हैं। तत्त्व रूप व तत्त्वभिन्न। तत्त्व रूप की उपज तामस अहंकार से है। (सांख्य वत्)।
- भूत–पाँच तन्मात्राओं से उत्पन्न होने वाले आकाश पृथिवी आदि पाँच भूत हैं। (सांख्य वत्)।
- ब्रह्माण्ड–पचास कोटि योजन विस्तीर्ण ब्रह्माण्ड २४ उपादानों से उत्पन्न होता है। विष्णु का बीज है। घड़े के दो कपालों वत् इसके दो भाग हैं। ऊपरला भाग ‘द्यौ’ और निचला भाग ‘पृथिवी’ कहलाता है। इसी में चौदह भुवनों का अवस्थान है। भगवान् ने महत् आदि तत्त्वों के अंश को उदर में रखकर ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया है। तब उसकी नाभि में कमल उत्पन्न हुआ, जिससे चतुर्मुख ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् देवता, मन, आकाश आदि पाँच भूतों की क्रमशः उत्पत्ति हुई।
- अविद्या–पाँच भूतों के पश्चात् सूक्ष्म माया से भगवान् ने स्थूल अविद्या उत्पन्न की, जिसको उसने चतुर्मुख में धारण किया। इसकी पाँच श्रेणियाँ हैं–मोह, महामोह, तामिस्र, अन्ध तामिस्र, तथा तम, विपर्यय, आग्रह, क्रोध, मरण, तथा शार्वर क्रमशः इनके नामान्तर हैं।
- वर्णतत्त्व–सर्व शब्दों के मूल भूत वर्ण ५१ हैं। वह नित्य है तथा समवाय सम्बन्ध से रहित है।
- अन्धकार–यह भाव रूप द्रव्य है। जड़ प्रकृति से उत्पन्न होता है। इतना धनीभूत हो सकता है कि हथियारों से काटा जा सके।
- वासना–स्वप्न ज्ञान के उपादान कारण को वासना कहते हैं। स्वप्न ज्ञान सत्य है। जाग्रतावस्था के अनुभवों से वासना उत्पन्न होती है और अन्तःकरण में टिक जाती है। इस प्रकार अनादि की वासनाएँ संस्कार रूप से वर्तमान हैं, जो स्वप्न के विषय बनते हैं। ‘मनोरथ’ प्रयत्न सापेक्ष है और ‘स्वप्न’ अदृष्ट सापेक्ष। यही दोनों में अन्तर है।
- काल–प्रकृति से उत्पन्न, क्षण लव आदि रूप काल अनित्य है, परन्तु इसका प्रवाह नित्य है।
- प्रतिबिम्ब–बिम्ब से पृथक्, क्रियावान, तथा बिम्ब के सदृश प्रतिबिम्ब है। परमात्मा का प्रतिबिम्ब दैत्यों में है। यह दो प्रकार है–नित्य व अनित्य। सर्व जीवों में परमात्मा का प्रतिबिम्ब नित्य है तथा दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब अनित्य है। छाया, परिवेष, चन्द्रचाप, प्रतिसूर्य, प्रतिध्वनि, स्फटिक का लौहित्य इत्यादि भी प्रतिबिम्ब कहलाते हैं।
- गुण कर्मादि शेष पदार्थ विचार
- द्रव्य के लिए देखें - उपरोक्त शीर्षक।
- दोष से भिन्न गुण हैं। यह अनेक हैं–जैसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, गुरुत्व, लघुत्व, मृदुत्व, काटिन्य, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, आलोक, शम, दम, कृपा, तितिक्षा, बल, भय, लज्जा, गांभीर्य, सौन्दर्य, धैर्य, स्थैर्य, शौर्य, औदार्य, सौभाग्य आदि। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श व शब्द ये पाँच गुण पृथिवी में पाकज हैं और अन्य द्रव्यों में अपाकज। ये लोग पीलुपाक वाद (देखें - वैशेषिक ) नहीं मानते।
- पुण्य पाप का असाधारण व साक्षात् कारण कर्म है, जो तीन प्रकार है ...विहित, निषिद्ध और उदासीन। वेद विहित क्रियाएँ विहित कर्म हैं। यह दो प्रकार है–फलेच्छा सापेक्ष ‘काम्य कर्म तथा ईश्वर को प्राप्त करने के लिए ‘अकाम्य’ कर्म। काम्य कर्म दो प्रकार है–प्रारब्ध और अप्रारब्ध। अप्रारब्ध भी दो प्रकार है–इष्ट व अनिष्ट। वेद निषिद्ध कार्य निषिद्ध कर्म है। उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, गमन, भ्रमण, वमन, भोजन, विदारण इत्यादि साधारण कर्म उदासीन कर्म है। कर्म के अन्य प्रकार भी दो भेद हैं–नित्य और अनित्य। ईश्वर के सृष्टि संहार आदि नित्य कर्म हैं। अनित्य वस्तु भूत शरीरादि के कार्य अनित्य कर्म है।
- सामान्य–दो प्रकार का है–नित्य और अनित्य। अन्य प्रकार से जाति व उपाधि इन दो भेदों रूप है। ब्राह्मणत्व आदि जाति सामान्य है। और प्रमेयत्व जीवत्व आदि उपाधि सामान्य है। यावद्वस्तु भावि जाति नित्य सामान्य है और ब्राह्मणत्वादि यावद्वस्तु भावि जाति अनित्य सामान्य है। सर्वज्ञत्व रूप उपाधि नित्य सामान्य है और प्रमेयत्वादि अनित्य सामान्य है।
- देखने में भेद न होने पर भी भेद के व्यवहार का कारण गुण गुणी का भेद विशेष है। नित्य व अनित्य दो प्रकार का है। ईश्वरादि नित्य द्रव्यों में नित्य और घटादि अनित्य द्रव्यों में अनित्य है।
- विशेषण के सम्बन्ध से विशेष का जो आकार वही विशिष्ट है। यह भी नित्य व अनित्य है। सर्वज्ञत्वादि विशेषणों से विशिष्ट परब्रह्म नित्य है और दण्डे से विशिष्ट दण्डी अनित्य।
- हाथ, वितस्ति आदि से अतिरिक्त पट, गगन आदि, प्रत्यक्ष सिद्ध पदार्थ अंशी हैं। यह भी नित्य व अनित्य दो प्रकार हैं। आकाशादि नित्य अंशी है और पट आदि अनित्य।
- शक्ति चार प्रकार है–अचिन्त्य शक्ति, सहज शक्ति, आधेय और पद शक्ति। परमात्मा व लक्ष्मी आदि की अणिमा महिमा आदि शक्तियाँ अचिन्त्य हैं। कार्यमात्र के अनुकूल स्वभाव रूप शक्ति ही सहज शक्ति है जैसे दण्ड आदि में घट बनाने की शक्ति। यह नित्य द्रव्यों में नित्य और अनित्य द्रव्यों में अनित्य होती है। आहित या स्थापित आधेय शक्ति कहलाती है जैसे प्रतिमा में भगवान्। पद व उसके अर्थ में वाच्य वाचकपने की शक्ति पदशक्ति है। वह दो प्रकार है–मुख्या व परमुख्या। परमात्मा में सब शब्दों की शक्ति परमुख्या है और शब्द में केवल मुख्या।
- ‘यह उसके सदृश है’ ऐसे व्यवहार का कारण पदार्थ ‘सादृश’ कहलाता है। यह नाना है। नित्य द्रव्य में नित्य और अनित्य द्रव्य में अनित्य है।
- ज्ञान में निषेधात्मक भाव ‘अभाव’ है। वह चार प्रकार है–प्राक्, प्रध्वंस, अन्योन्य व अत्यन्त। कार्य की उत्पत्ति से पूर्व अभाव को प्रागभाव, उसके नाश हो जाने पर प्रध्वंसाभाव है। सार्वकालिक परस्पर में अभाव अन्योन्याभाव है। वह नित्य व अनित्य दो प्रकार है। अनित्य पदार्थों में परस्पर अभाव अनित्य है और नित्य पदार्थों में नित्य। अप्रामाणिक वस्तु में अत्यन्ताभाव–जैसे शशशृंग।
- सृष्टि व प्रलय विचार
- सृष्टि का क्रम निम्न प्रकार है–इच्छा युक्त परमात्मा ‘प्रकृति’ के गर्भ में प्रवेश करके उसके त्रिगुणों में विषमता उत्पन्न करने के द्वारा उसे कार्योन्मुख करता है। फलस्वरूप महत् से ब्रह्माण्ड पर्यन्त तत्त्व तथा देवताओं की सृष्टि होती है। फिर चेतन अचेतन अंशों को उदर में निक्षेप कर हजार वर्ष पश्चात् नाभि में एक कमल उत्पन्न होता है, जिससे चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। ब्रह्मा के सहस्र वर्ष पर्यन्त तपश्चरण से प्रसन्न परमात्मा पञ्चभूत उत्पन्न करता है, फिर सूक्ष्म रूपेण चौदह लोकों का चतुर्मुख में प्रवेशकर स्थूल रूपेण चौदह लोकों को उत्पन्न करते हैं। बाद में सब देवता अण्ड के भीतर से उत्पन्न होते हैं। (और भी देखें - वेदान्त / ४)।
- धर्म संकट में पड़ जाने पर दश अवतार होते हैं–मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, राम, परशुराम, श्री कृष्ण, बुद्ध, कल्की। श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं और शेष अवतार परमात्मा के अंश।
- प्रलय दो प्रकार है–महाप्रलय व अवान्तर प्रलय। महाप्रलय में प्रकृति के तीन गुणों का व महत् आदि तत्त्वों का तथा समस्त देवताओं का विध्वंस, भगवान् के मुख से प्रगटी ज्वाला में हो जाता है। एक वट के पत्र पर शून्य नाम के नारायण शयन करते हैं, जिनके उदर में सब जीव प्रवेश करके रहते हैं। अवान्तर प्रलय दो प्रकार है–दैनंदिक तथा मनुप्रलय। दैनन्दिक में तीनों लोकों का नाश होता है। पर इन्द्रादिक महर्लोक को चले जाते हैं। मनुप्रलय में भू लोक में मनुष्यादि मात्र का नाश होता है, अन्य दोनों लोकों के वासी महर्लोक को चले जाते हैं।
- मोक्ष विचार
- भक्ति, कीर्तन, जप व्रतादि से मोक्ष होता हैं वह चार प्रकार है–कर्मक्षय, उत्कान्तिलय, अर्चिरादि मार्ग और भोग। इनमें से नं. २ व ३ वाला मोक्ष मनुष्यों को ही होता है, देवताओं आदि को नहीं।
- अपरोक्ष ज्ञान उत्पन्न होने पर समस्त नवीन पुण्य व पाप कर्मों का नाश हो जाता है। कल्पों पर्यन्त भोग करके प्रारब्ध कर्म का नाश होता है। प्रारब्ध कर्म के नाश के पश्चात् सुषुम्नानाड़ी या ब्रह्मनाड़ी द्वारा देह से निकल कर आत्मा ऊपर उठता है। तब या तो चतुर्मुख (ब्रह्मा) तक और या परमात्मा तक पहुँच जाता है। यही कर्मक्षय मोक्ष है। अत्यन्त दीर्घ काल के लिए देव योनि में चले जाना अतिक्रान्ति मुक्ति है, यह वास्तविक मुक्ति नहीं।
- क्रम मुक्ति–उत्तरोत्तर देहों में क्रमशः लय होते-होते, चतुर्मुख के मुख में जब जीव प्रविष्ट होता है तब ब्रह्मा के साथ-साथ विरजा नदी में स्नान करने से उसके लिंग शरीर का नाश हो जाता है। इसके नाश होने पर जीवत्व का भी नाश समझा जाता है।–(विशेष देखें - वेदान्त / ६ )।
- भोगमोक्ष–अपनी-अपनी उपासना की तारतम्यता के अनुसार सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य और सायुज्य, इन चार प्रकार के मोक्षें में ब्रह्मादिकों के भोगों में भी तारतम्यता रहती है, पर वे संसार में नहीं आते।
- कारण कार्य विचार
कारण दो प्रकार है–उपादान व अपादान या निमित्त। परिणामी कारण को उपादान कहते हैं। कार्य की उत्पत्ति से पूर्व वह सत् है और उत्पत्ति के पश्चात् असत्। उपादान व उपादेय में भेद व अभेद दोनों हैं। गुण क्रिया आदि में अभेद है और द्रव्य के साथ न रहने वालों में भेद व अभेद दोनों।
- ज्ञान व प्रमाण विचार
- आत्मा, मन, इन्द्रिय व विषयों के सन्निकर्ष से होने वाला आत्मा का परिणाम ज्ञान है। वह सविकल्प ही होता है। ममता रूप, व अपरोक्ष रूप। ममता रूप संसार का और अपरोक्ष रूप मोक्ष का कारण है। तथा वैराग्य आदि से उत्पन्न होता है। ऋषिलोग अन्तर्दृष्टि, मनुष्य बाह्य दृष्टि और देवता लोग सर्वदृष्टि हैं।
- स्व प्रकाशक होने के कारण ज्ञान स्वतः प्रमाण है । वह तीन प्रकार है–प्रत्यक्ष अनुमान व शब्द ।
- प्रत्यक्ष आठ प्रकार है–साक्षी, यथार्थ ज्ञान तथा छः इन्द्रियों से साक्षत् उत्पन्न ज्ञान।
- अनुमान तीन प्रकार है–केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी। पाँच अवयवों का नियम नहीं। यथावसर हीनाधिक भी हो सकते हैं।
- शब्द–दो प्रकार है–पौरुषेय व अपौरुषेय। आप्तोक्त पौरुषेय है और वेद वाक्य अपौरुषेय है।
- सामान्य परिचय