राजा
From जैनकोष
- राजा
ध. १/१, १, १/गा. ३६/५७ अष्टादशसंख्यानां श्रेणीनामधिपतिर्विनम्राणाम्। राजा स्यान्मुकुटधरः कल्पतरुः सेवमानानाम्।३६। = जो नम्रीभूत अठारह श्रेणियों का अधिपति हो, मुकुट को धारण करने वाला हो और सेवा करने वालों के लिए कल्पवृक्ष के समान हो उसको राजा कहते हैं। (त्रि. सा./६८४)।
भ. आ./वि./४२१/६१३/१९ राज शब्देन इक्ष्वाकुप्रभृतिकुले जाताः। राजते प्रकृतिं रंजयति इति वा राजा राजसदृशो महर्द्धिको भण्यते। = इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश इत्यादि कुल में जो उत्पन्न हुआ है, जो प्रजा का पालन करना, उनको दुष्टों से रक्षण करना इत्यादि उपायों से अनुरंजन करता है उसको राजा कहते हैं। राजा के समान जो महर्द्धि का धारक है उसको भी राजा कहते हैं।
- राजा के भेद
(अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, राजाधिराज, महाराजाधिराज तथा परमेश्वरादि); (ध. १/१, १, १/५६/७ का भावार्थ); (राजा, अधीश्वर, महाराज, अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, त्रिखण्डाधिपति तथा चक्री आदि); (ध. १/१, १२/गा. ३७ - ४३/५७-५८)।
- अधिराज व महाराज का लक्षण
ति. प./१/४५ पंचसयरायसामी अहिराजो होदि कित्तिभरिददिसो। रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महाराजो।४५। = जो पाँच सौ राजाओं का स्वामी हो वह अधिराज है। उसकी कीर्ति सारी दिशाओं में फैली रहती है। जो एक हजार राजाओं का पालन करता है वह महाराज है।४५। (ध. १/१, १/गा. ४०/५७); (त्रि. सा./६८४)।
- अर्धमण्डलीक व मण्डलीक का लक्षण
ति. प./१/४६ दुसहस्समउडबद्ध भुववसहो तत्थ अद्धमंडलिओ। चउराजसहस्साणं अहिणाओ होइ मंडलिओ।४६। = जो दो हजार मुकुटबद्ध भूपों में प्रधान हो वह अर्धण्मडलीक है और जो चार हजार राजाओं का अधिनाथ हो वह मण्डलीक कहलाता है।४६। (ध. १/१, १, १/गा. ४१/५७); (त्रि. सा./६८५)।
- महामण्डलीक का लक्षण
ति. प./१/४२ अष्टसहस्रमहीपतिनायकमाहुर्बुधाः महामण्डलिकम्....। = बुधजन आठ हजार राजाओं के स्वामी को मण्डलीक कहते हैं। (ध. १/१, १, १/गा. ४७/५७); (त्रि. सा./६८५)।
- अर्धचक्री व चक्रवर्ती का लक्षण− देखें - शलाकापुरुष / ४ , २।
- कल्कि राजा−देखें - कल्कि।