वीर
From जैनकोष
- नि./सा./ता.वृ./१ वीरो विक्रान्तः वीरयते शूरयते विक्रामति कर्मारातीन् विजयत इति वीरः–श्री वर्द्धमान-सन्मतिनाथमहतिमहावीराभिघानैः सनाथः परमेश्वरो माहदेवाधिदेवः पश्चिमतीर्थनाथ। = ‘वीर’ अर्थात् विक्रान्त (पराक्रमी); वीरता प्रगट करे, शौर्य प्रगट करे, विक्रम (पराक्रम) दर्शाये, कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे, वह ‘वीर’ है। ऐसे वीर को जो कि श्री वर्द्धमान, श्री सन्मतिनाथ, श्री अतिवीर तथा श्री महावीर इन नामों से युक्त हैं, जो परमेश्वर हैं, महादेवाधिदेव हैं तथा अन्तिम तीर्थनाथ हैं।–(विशेष देखें - महावीर )।
- म.पु./सर्ग/श्लो.- अपर नाम गुणसेन था। (४७/३७५)। पूर्व भव नं. ६ में नागदत्त नाम का एक वणिक् पुत्र था। (८/२३१)। पूर्व भव नं. ५ में वानर (८/२३३)। पूर्व भव नं. ४ में उत्तरकुरु में मनुष्य। (९/९०)। पूर्वभव नं. ३ में ऐशान स्वर्ग में देव। (९/१८७)। पूर्वभव नं.२ में रतिषेण राजा का पुत्र चित्रांग (१०/१५१)। पूर्वभव नं. १ में अच्युत स्वर्ग का इन्द्र (१०/१७२) अथवा जयन्त स्वर्ग में अहमिन्द्र (११/१०, १६०)। वर्तमान भव में वीर हुआ। (१६/३)। [युगपत् सर्वभव देखें - म .पु./४७/३७४-३७५] भरत चक्रवर्ती का छोटा भाई था। (१६/३)। भरत द्वारा राज्य माँगने पर दीक्षा धारण कर ली। (३४/१२६)। भरत की मुक्ति के पश्चात् भगवान् ऋषभदेव के गुणसेन नामक गणधर हुए। (४७/३७५)। अन्त में मोक्ष सिधारे (४७/३९९)।
- विजयार्ध को उत्तर श्रेणी का एक नगर–देखें - विद्याधर।
- सौधर्म स्वर्ग का ५वाँ पटल– देखें - स्वर्ग / ५ / ३ ।