अन्य द्वीप सागर निर्देश
From जैनकोष
- अन्य द्वीप सागर निर्देश
- लवण सागर निर्देश
- जम्बूद्वीप को घेरकर २,००,००० योजन विस्तृत वलयाकार यह प्रथम सागर स्थित है, जो एक नावपर दसरी नाव मुंधी रखने से उत्पन्न हुए आकारवाला है। (ति.प./४/२३९८-२३९९); (रा.वा./३/३२/३/१९३/८); (ह.पु./५/४३०-४४१); (त्रि.सा./९०१); (ज.प./१०/२-४) तथा गोल है। (त्रि.सा./८९७)।
- इसके मध्यतल भाग में चारों ओर १००८ पाताल या विवर हैं। इनमें ४ उत्कृष्ट, ४ मध्यम और १००० जघन्य विस्तारवाले हैं। (ति.प./४/२४०८,२४०९); (त्रि.सा./८९६); (ज.प./१०/१२)। तटों से ९५,००० योजन भीतर प्रवेश करने पर चारों दिशाओं में चार ज्येष्ठ पाताल हैं। ९९५०० योजन प्रवेश करने पर उनके मध्य विदिशा में चार मध्यम पाताल और उनके मध्य प्रत्येक अन्तर दिशा में १२५,१२५ करके १०० जघन्य पाताल मुक्तावली रूप से स्थित हैं। (ति.प./४/२४११+२४१४+२४२८); (रा.वा./३/३२/४-६/१९६/१३,२५,३२); (ह.पु./५/४४२,४५१,४५५)। १,००,००० योजन गहरे महापाताल नरक सीमन्तक बिल के ऊपर संलग्न हैं। (ति.प./४/२४१३)।
- तीनों प्रकार के पातालों की ऊँचाई तीन बराबर भागों में विभक्त है। तहाँ निचले भाग मे वायु, उपरले भाग में जल और मध्य के भाग में यथायोग रूप से जल व वायु दोनों रहते हैं। (ति.प./४/२४३०); (रा.वा./३/३२/४-६/१९६/१७,२८,३२); (ह.पु./५/४४६-४४७); (त्रि.सा./८९८); (ज.प./१०/६-८)
- मध्य भाग में जल व वायु की हानि-वृद्धि होती रहती है। शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन २२२२(२/९) योजन वायु बढ़ती है और कृष्ण पक्ष में इतनी ही घटती है। यहाँ तक कि इस पूरे भाग में पूर्णिमा के दिन केवल वायु ही तथा अमावस्या को केवल जल ही रहता है। (ति.प./४/२४३५-२४३९); (ह.पु./५/४४) पातालों में जल व वायु की इस वृद्धिका कारण नीचे रहनेवाले भवनवासी देवों का उच्छ्वास निःश्वास है। (रा.वा./३/३२/४/१९३/२०)।
- पातालों में होने वाली उपरोक्त वृद्धि हानि से प्रेरित होकर सागर का जल शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन ८००/३ धनुष ऊपर उठता है, और कृष्ण पक्ष में इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा को ४००० धनुष आकाश में ऊपर उठ जाता है और अमावस्या को पृथिवी तल के समान हो जाता है। (अर्थात् ७०० योजन ऊँचा अवस्थित रहता है।) ति. प./४/२४४०, २४४३) लोगायणी के अनुसार सागर ११,००० योजन तो सदा ही पृथिवी तल से ऊपर अवस्थित रहता है। शुक्ल पक्ष में इसके ऊपर प्रतिदिन ७०० योजन बढ़ता है और कृष्णपक्ष में इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा के दिन ५००० योजन बढ़कर १६,००० योजन हो जाता है और अमावस्या को इतना ही घटकर वह पुनः ११,००० योजन रह जाता है। (ति.प./४/२४४६); (रा.वा./३/३२/३/१९३/१०); (ह.पु./५/४३७); (त्रि.सा./९००); (ज.प.१०/१८)।
- समुद्र के दोनों किनारों पर व शिखर पर आकाश में ७०० योजन जाकर सागर के चारों तरफ कुल १,४२,००० वेलन्धर देवों की नगरियाँ हैं। तहाँ बाह्य व अभ्यन्तर वेदी के ऊपर क्रम से ७२,००० और ४२,००० और मध्य में शिखर पर २८,००० है। (ति.प./४/२४४९-२४५४); (त्रि.सा./९०४); (ज.प./१०/३६-३७) मतान्तर से इतनी ही नगरियाँ सागर के दोनों किनारों पर पृथिवी तल पर भी स्थित हैं। (ति.प./४/२४५६) सग्गायणी के अनुसार सागर की बाह्य व अभ्यन्तर वेदी वाले उपर्युक्त नगर दोनों वेदियों से ४२,००० योजन भीतर प्रवेश करके आकाश में अवस्थित हैं और मध्यवाले जल के शिखर पर भी। (रा.वा./३/३२/७/१९४/१); (ह.पु./५/४६६-४६८)।
- दोनों किनारों से ४२,००० योजन भीतर जाने पर चारों दिशाओं में प्रत्येक ज्येष्ठ पाताल के बाह्य व भीतरी पार्श्व भागों में एक-एक करके कुल आठ पर्वत हैं। जिन पर वेलन्धर देव रहते हैं। (ति.प./४/२४५७); (ह.पु./५/४५९); (त्रि.सा./९०५); (ज.प./१०/२७); (विशेष देखें - लोक / ५ / ९ में इनके व देवों के नाम)।
- इस प्रकार अभ्यन्तर वेदी से ४२,००० भीतर जाने पर उपर्युक्त भीतरी ४ पर्वतों के दोनों पार्श्व भागों में (विदिशाओं में) प्रत्येक में दो-दो करके कुल आठ सूर्यद्वीप हैं। (ति.प./४/२४७१-२४७२); (त्रि. सा./९०९); (ज.प./१०/३८) सागर के भीतर, रक्तोदा नदी के सम्मुख मागध द्वीप, जगती के अपराजित नामक उत्तर द्वार के सम्मुख वरतनु और रक्ता नदी के सम्मुख प्रभास द्वीप हैं। (ति.प./४/२४७३-२४७५); (त्रि.सा./९११-९१२); (ज.प./१०/४०)। इसी प्रकार ये तीनों द्वीप जम्बूद्वीप के दक्षिण भाग में भी गंगा सिन्धु नदी व वैजयन्त नामक दक्षिण द्वार के प्रणिधि भाग में स्थित हैं। (ति.प./४/१३११, १३१६+१३१८) अभ्यन्तर वेदी से १२,००० योजन सागर के भीतर जाने पर सागर की वायव्य दिशा में मागध नामका द्वीप है। (रा.वा./३/३३/८/१९४/८); (ह.पु./५/४६९) इसी प्रकार लवण समुद्र के बाह्य भाग में भी ये द्वीप जानना। (ति.प./४/२४७७) मतान्तर की अपेक्षा भाग में भी ये द्वीप जानना। (ति.प./४/२४७७) मतान्तर की अपेक्षा दोनों तटों से ४२,००० योजन भीतर जाने पर ४२,०००योजन विस्तार वाले २४,२४ द्वीप हैं। तिन में ८ तो चारों दिशाओं व विदिशाओं के दोनों पार्श्वभागों में हैं और १६ आठों अन्तर दिशाओं के दोनों पार्श्व भागों में। विदिशावालों का नाम सूर्यद्वीप और अन्तर दिशावालों का नाम चन्द्रद्वीप है (त्रि.सा./९०९)।
- इनके अतिरिक्त ४८ कुमानुष द्वीप हैं। २४ अभ्यन्तर भाग में और २४ बाह्य भाग में। तहाँ चारों दिशाओं में चार, चारों विदिशाओं में ४, अन्तर दिशाओं में ८ तथा हिमवान्, शिखरी व दोनों विजयार्ध पर्वतों के प्रणिधि भाग में ८ हैं। (ति.प./४/२४७८-२४७९+२४८७-२४८८); (ह.पु./५/४७१-४७६+७८१);(त्रि.सा./१९३) दिशा, विदिशा व अन्तर दिशा तथा पर्वत के पासवाले, ये चारों प्रकार के द्वीप क्रम से जगती से ५००,५००, ५५० व ६०० योजन अन्तराल पर अवस्थित हैं और १००, ५५, ५० व २५ योजन विस्तार युक्त हैं। (ति.प./४/२४८०-२४८२); (ह.पु./५/४७७-४७८);(त्रि.सा./९१४); (ह.पु. की अपेक्षा इनका विस्तार क्रम से १००, ५०, ५० व २५ योजन है ) लोक विभाग के अनुसार क्रम से जगती से ५००, ५५०, ५००, ६०० योजन अन्तराल पर स्थित हैं तथा १००, ५०, १००, २५ योजन विस्तार युक्त हैं। (ति.प./४/२४-९१-२४९४); (ज.प./१०/४९-५१) इन कुमानुष द्वीपों में एक जाँघवाला, शशकर्ण, बन्दरमुख आदि रूप आकृतियों के धारक मनुष्य बसते हैं। ( देखें - म्लेच्छ / ३ )। धातकीखण्ड द्वीप की दिशाओं में भी इस सागर में इतने ही अर्थात् २४ अन्तर्द्वीप हैं जिनमें रहनेवाले कुमानुष भी वैसे ही होते हैं। (ति.प./४/२४९०)।
- धातकीखण्ड निर्देश
- लवणोदको वेष्टित करके ४,००,००० योजन विस्तृत ये द्वितीय द्वीप हैं। इसके चारों तरफ भी एक जगती है। (ति.प./४/२५२७-२५३१); (रा.वा./३/२३/५/५९५/१४); (ह.पु./४८९); (ज.प./११२)।
- इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में उत्तर-दक्षिण लम्बायमान दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिनसे यह द्वीप पूर्व व पश्चिम रूप दो भागों में विभक्त हो जाता है। (ति.प./४/२५३२); (स.सि./३/१३/२२७/१); (रा.वा./३/३३/६/१९५/२५); (ह.पु./५/४९४); (त्रि.सा./९२५); (ज.प./११/३) प्रत्येक पर्वत पर ४ कूट हैं। प्रथम कूट पर जिनमन्दिर है और शेष पर व्यन्तर देव रहते हैं। (ति.प./४/२५३९)।
- इस द्वीप में दो रचनाएँ हैं - पूर्व धातकी और पश्चिम धातकी। दोनों में पर्वत, क्षेत्र, नदी, कूट आदि सब जम्बूद्वीप के समान हैं। (ति.प./४/२५४१-२५४५); (स.सि./३/३३/२२७/१); (रा.वा./३/३३/१/१९४/३१); (ह.पु./५/१६५, ४९६-४९७); (ज.प./११/३८) जम्बू व शाल्मली वृक्ष को छोड़कर शेष सबके नाम भी वही हैं। (ति.प./४/२५५०); (रा.वा./३/३३/५/१९५/१९); सभी का कथन जम्बूद्वीपवत् है। (ति.प./४/२७१५)।
- दक्षिण इष्वाकार के दोनों तरफ दो भरत हैं तथा उत्तर इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत हैं। (ति.प./४/२५५२); (स.सि./३/३३/२२७/४)।
- तहाँ सर्व कुल पर्वत तो दोनों सिरों पर समान विस्तार को धरे पहिये के आरोंवत् स्थित हैं और क्षेत्र उनके मध्यवर्ती छिद्रोंवत् हैं जिनेक अभ्यन्तर भाग का विस्तार कम व बाह्य भाग का विस्तार अधिक है। (ति.प./४/२५५३); (स.सि./३/३३/२२७/६); (रा.वा./३/३३/१९६/४); (ह.पु./५/४९८); (त्रि.सा./९२७)।
- तहाँ भी सर्व कथन पूर्व व पश्चिम दोनों धातकी खण्डों में जम्बूद्वीपवत् है। विदेह क्षेत्र के बहु मध्य भाग में पृथक्-पृथक् सुमेरु पर्वत हैं। उनका स्वरूप तथा उन पर स्थित जिन भवन आदि का सर्व कथन जम्बूद्वीपवत् है। (ति.प./४/२५७५-२५७६); (रा.वा./३/३३/६/१९५/२८); (ह.पु./५/४९४) (ज.प./४/६५)। इन दोनों पर भी जम्बूद्वीप के सुमेरुवत् पाण्डुक आदि चार वन हैं। विशेषता यह है कि यहाँ भद्रशाल से ५०० योजन ऊपर नन्दन, उससे ५५,५०० योजन ऊपर सौमनस वन और उससे २८,००० योजन ऊपर पाण्डुक वन है। (ति.प./४/२५८४-२५८८); (रा.वा./३/३३/६/१९५/३०); (ह.पु./५/५१८-५१९); (ज.प.११/२२-२८) पृथिवी तल पर विस्तार ९४०० योजन है, ५०० योजन ऊपर जाकर नन्दन वन पर ९३५० योजन रहता है। तहाँ चारों तरफ से युगपत् ५०० योजन सुकड़कर ८३५० योजन ऊपर तक समान विस्तार से जाता है। तदनन्तर ४५,५०० योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ सौमनस वनपर ३८०० योजन रहता है तहाँ चारों तरफ से युगपत् ५०० योजन सुकड़कर २८०० योजन रहता है, ऊपर फिर १०,००० योजन समान विस्तार से जाता है तदनन्तर १८,००० योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ शीष पर १००० योजन विस्तृत रहता है। (ह.पु./५/५२०-५३०)।
- जम्बूद्वीप के शाल्मली वृक्षवत् यहाँ दोनों कुरुओं में दो-दो करके कुल चार धातकी (आँवले के) वृक्ष स्थित हैं। प्रत्येक वृक्ष का परिवार जम्बूद्वीपवत् १,४०,१२० है। चारों वृक्षों का कुल परिवार ५,६०,४८० है। (विशेष देखें - लोक / ३ / १ ३) इन वृक्षों पर इस द्वीप के रक्षक प्रभास व प्रियदर्शन नामक देव रहते हैं। (ति.प./४/२६०१-२६०३); (स.सि./३/३३/२२७/७); (रा.वा./३/३३/१९६/३); (त्रि.सा./९३४)।
- इस द्वीप में पर्वतों आदि का प्रमाण निम्न प्रकार है। - मेरु २, इष्वाकार २, कुल गिरि १२; विजयार्ध ६८, नाभिगिरि ८; गजदन्त ८; यमक ८; काँचन शैल ४००; दिग्गजेन्द्र पर्वत १६; वक्षार पर्वत ३२; वृषभगिरि ६८; क्षेत्र या विजय ६८ (ज.प्र./११/८१) कर्मभूमि ६; भोगभूमि १२; (ज.प./११/७६) महानदियाँ २८; विदेह क्षेत्र की नदियाँ १२८; विभंगा नदियाँ २४। द्रह ३२; महानदियों व क्षेत्र नदियों के कुण्ड १५६; विभंगा के कुण्ड २४; धातकी वृक्ष २; शाल्मली वृक्ष २ हैं। (ज.प./११/२९-३८)। (ज.प./११/७५-८१) में पुष्करार्ध की अपेक्षा इसी प्रकार कथन किया है।)
- कालोद समुद्र निर्देश
- धातकी खण्ड को घेरकर, ८,००,००० योजन विस्तृत वलयाकार कालोद समुद्र स्थित है। जो सर्वत्र १००० योजन गहरा है। (ति.प./४/२७१८-२७१९); (रा.वा./३/३३/६/१९६/५); (ह.पु./५/५६२); (ज.प./११/४३)।
- इस समुद्र में पाताल नहीं है। (ति.प./४/१७१९); (रा.वा./३/३२/८/१९४/१३); (ज.प./११/४४)।
- इसके अभ्यन्तर व बाह्य भाग में लवणोदवत् दिशा, विदिशा, अन्तरदिशा व पर्वतों के प्रणिधि भाग में २४,२४ अन्तर्द्वीप स्थित हैं। (ति.प./४/१७२०); (ह.पु./५/५६७-५७२+५७५); (त्रि.सा./९१३); (ज.प./११/४९) वे दिशा विदिशा आदि वाले द्वीप क्रम से तट से ५००, ६५०, ५५० व ६५० योजन के अन्तर से स्थित हैं तथा २००, १००, ५०,५० योजन है। (ति.प./४/२७२२-२७२५) मतान्तर से इनका अन्तराल क्रम से ५००, ५५०, ६०० व ६५० है तथा विस्तार लवणोद वालों की अपेक्षा दूना अर्थात् २००, १००० व ५० योजन है। (ह.पु./५/५७४)।
- पुष्कर द्वीप
- कालोद समुद्र को घेरकर १६,००,००० योजन के विस्तार युक्त पुष्कर द्वीप स्थित है। (ति.प./४/२७४४); (रा.वा./३/३३/६/१९६/८); (ह.पु./५७६); (ज.प.११/५७)।
- इसके बीचों-बीच स्थित कुण्डलाकार मानुषोत्तर पर्वत के कारण इस द्वीप के दो अर्ध भाग हो गये हैं, एक अभ्यन्तर और दूसरा बाह्य। (ति.प./४/२७४८); (रा.वा./३/३४/६/१९७/७); (ह.पु./५/५७७); (त्रि.सा./९३७); (ज.प./११/५८)। अभ्यन्तर भाग में मनुष्यों की स्थिति है पर मानुषोत्तर पर्वत को उल्लंघकर बाह्य भाग में जाने की उनकी सामर्थ्य नहीं है ( देखें - मनुष्य / ४ / १ )। (देखें - चित्र सं . ३६, पृ. ४६४)।
- अभ्यन्तर पुष्करार्ध में धातकी खण्डवत् ही दो इष्वाकार पर्वत हैं जिनके कारण यह पूर्व व पश्चिम के दो भागों में विभक्त हो जाता है। दोनों भागों में धातकी खण्डवत् रचना है। (त.सू./३/३४); (ति.प./४/२७८४-२७८५); (ह.पु./५/५७८)। धातकी खण्ड के समान यहाँ ये सब कुलगिरि तो पहिये के आरोंवत् समान विस्तार वाले और क्षेत्र उनके मध्य छिद्रों में हीनाधिक विस्तारवाले हैं। दक्षिण इष्वाकार के दोनों तरफ दो भरत क्षेत्र और इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत क्षेत्र हैं। क्षेत्रों, पर्वतों आदि के नाम जम्बूद्वीपवत् हैं। (ति.प./४/२७९४-२७९६); (ह.पु./५/५७९)।
- दोनों मेरुओं का वर्णन धातकी मेरुओंवत् हैं। (ति.प./४/२८१२); (त्रि.सा./६०९); (ज.प./४/६४)।
- मानुषोत्तर पर्वत का अभ्यन्तर भाग दीवार की भाँति सीधा है, और बाह्य भाग में नीचे से ऊपर तक क्रम से घटता गया है। भरतादि क्षेत्रों की १४ नदियों के गुजरने के लिए इसके मूल में १४ गुफाएँ हैं। (ति.प./४/२७५१-२७५२); (ह.पु./५/५९५-५९६); (त्रि.सा./९३७)।
- इन पर्वत के ऊपर २२ कूट हैं। - तहाँ पूर्वादि प्रत्येक दिशा में तीन-तीन कूट हैं। पूर्वी विदिशाओं में दो-दो और पश्चिमी विदिशाओं में एक -एक कूट हैं। इन कूटों की अग्रभूमि में अर्थात् मनुष्य लोक की तरफ चारों दिशाओं में ४ सिद्धायतन कूट हैं। (ति.प./४/२७६५-२७७०); (रा.वा./३/३४/६/१९७/१२); (ह.पु./५/५९८-६०१)। सिद्धायतन कूट पर जिनभवन है और शेष पर सपरिवार व्यन्तर देव रहते हैं। (ति. प./४/२७७५)। मतान्तर की अपेक्षा नैर्ऋत्य व वायव्य दिशावाले एक-एक कूट नहीं हैं। इस प्रकार कुल २० कूट हैं। (ति.प./४/२७८३); (त्रि.सा./९४०) (देखें - चित्र पृष्ठ सं / ३६. ४६४)।
- इसके ४ कुरुओं के मध्य जम्बू वृक्षवत् सपरिवार ४ पुष्कर वृक्ष हैं। जिन पर सम्पूर्ण कथन जम्बूद्वीप के जम्बू व शाल्मली वृक्षवत् हैं। (स.सि./३/३४/२२८/४); (रा.वा./३/३४/५/१९७/४); (त्रि.सा./९३४)।
- पुष्करार्ध द्वीप में पर्वत-क्षेत्रादि का प्रमाण बिलकुल धातकी खण्डवत् जानना ( देखें - लोक / ४ / २ )।
- नन्दीश्वर द्वीप
- अष्टम द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है। (देखें - चित्र सं . ३८, पृ. ४६५)। उसका कुल विस्तार १,६३,८४,००,००० योजन प्रमाण है। (ति.प./५/५२-५३); (रा.वा./३/३५/१९८/४); (ह.पु./५/६४७); (त्रि.सा./९६६)।
- इसके बहुमध्य भाग में पूर्व दिशा की ओर काले रंग का एक-एक अंजनगिरि पर्वत है। (ति.प./५/५७); (रा.वा./३-/१९८/७), (ह.पु./-५/६५२)। (त्रि.सा./९६७)।
- उस अंजनगिरि के चारों तरफ १,००,००० योजन छोड़कर ४ वापियाँ हैं। (ति.प./५/६०), (रा.वा./३/३५/-/१९८/९), (ह.पु./५/६५५), (त्रि.सा./९७०)। चारों वापियों का भीतरी अन्तराल ६५,०४५ योजन है और बाह्य अन्तर २,२३,६६१ योजन है (ह.पु./५/६६६-६६८)।
- प्रत्येक वापी की चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र नाम के चार वन हैं। (ति.प./५/६३०), (रा.वा./३/३५/-/१९८/२७), (ह.पु./५/६७१,६७२), (त्रि.सा./९७१)। इस प्रकार द्वीप की एक दिशा में १६ और चारों दिशाओं में ६४ वन हैं। इन सब पर अवतंस आदि ६४ देव रहते हैं। (रा.वा./३/३५/-/१९९/३), ह.पु./५/६८१)।
- प्रत्येक वापी में सफेद रंग का एक-एक दधिमुख पर्वत है। (ति.प./५/६५); (रा.वा./३/३५/-/१९८/२५); (ह.पु./५/६६९);(त्रि.सा./९६७)।
- प्रत्येक वापी के बाह्य दोनों कोनों पर-लाल रंग के दो रतिकर पर्वत हैं। (ति.प./५/६७); (त्रि.सा./९६७)। लोक विनिश्चय की अपेक्षा प्रत्येक द्रह के चारों कोनों पर चार रतिकर हैं। (ति.प./५/६९), (रा.वा./३/३५/-/१९८/३१), (ह.पु. /५/६७३)। जिनमन्दिर केवल बाहर वाले दो रतिकरों पर ही होते हैं, अभ्यन्तर रतिकरों पर देव क्रीड़ा करते हैं। (रा.वा./३/३५/-/१९८/३३)।
- इस प्रकार एक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलकर १३ पर्वत हैं। इनके ऊपर १३ जिनमन्दिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं में भी पर्वत द्रह, वन व जिन मन्दिर जानना। (कुल मिलकर ५२ पर्वत, ५२ मन्दिर, १६ वापियाँ और ६४ वन हैं। (ति.प./५/७०-७५); (रा.वा./३/३५/-/१९९/१); (ह.पु./५/६७६)(नि.सा./९७३)।
- अष्टाह्निक पर्व में सौधर्म आदि इन्द्र व देवगण बड़ी भक्ति से इन मन्दिरों की पूजा करते हैं। (ति.प./५/८३,१०२); (ह.पु./५/६८०); (त्रि.सा./९७५-९७६)। तहाँ पूर्व दिशा में कल्पवासी, दक्षिण में भवनवासी, पश्चिम में व्यन्तर और उत्तर में देव पूजा करते हैं। (ति.प./५/१००-१०१)।
- कुण्डलवर द्वीप
- ग्यारहवाँ द्वीप कुण्डलवर नाम का है, जिसके बहुमध्य भाग में मानुषोत्तरवत् एक कुण्डलाकर पर्वत है। (ति.प./५/११७); (ह.पु./६८६)।
- तहाँ पूर्वादि प्रत्येक दिशा में चार- चार कूट हैं। उनके अभ्यन्तर भाग में अर्थात् मनुष्यलोक की तरफ एक-एक सिद्धवर कूट हैं। इस प्रकार इस पर्वत पर कुल २० कूट हैं। (ति.प./५/१२०-१२१); (रा.वा./३/३५/-/१९९/१२+१९); (त्रि.सा./९४४)। जिनकूटों के अतिरिक्त प्रत्येक पर अपने-अपने कूटों के नामवाले देव रहते हैं। (ति.प./५/१२५) मतान्तर की अपेक्षा आठों दिशाओं में एक-एक जिनकूट हैं। (ति.प./५/१२८)।
- लोक विनिश्चय की अपेक्षा इस पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में से प्रत्येक में चार-चार कूट हैं। पूर्व व पश्चिम दिशावाले कूटों की अग्रभूमि में द्वीप के अधिपति देवों के दो कूट हैं। इन दोनों कूटों के अभ्यन्तर भागों में चारों दिशाओं में एक-एक जिनकूट हैं। (ति. प./५/१३०-१३९); (रा.वा./३/३५/-/१९९/७); (ह.पु./५/६८९-६९८)। मतान्तर की अपेक्षा उनके उत्तर व दक्षिण भागों में एक-एक जिनकूट हैं। (ति.प./५/१४०)। (देखें - सामनेवाल चित्र )।
- रुचकवर द्वीप
- तेरहवाँ द्वीप रुचकवर नाम का है। उसमें बीचों बीच रुचकवर नाम का कुण्डलाकार पर्वत है। (ति.प./५/१४१); (रा.वा./३/३५/-/१९९/२२); (ह.पु./५/६९९)।
- इस पर्वत पर कुल ४४ कूट हैं। (ति.प./५/१४४)। पूर्वादि प्रत्येक दिशा में आठ-आठ कूट हैं जिन पर दिक्कुमारियाँ देवियाँ रहती हैं, जो भगवान् के जन्म कल्याण के अवसर पर माता की सेवा में उपस्थित रहती हैं। पूर्वादि दिशाओं वाली आठ-आठ देवियाँ क्रम से झारी, दर्पण, छत्र व चँवर धारण करती हैं। (ति. प./५/१४५, १४८-१५६), (त्रि. सा./९४७+९५५-९५६) इन कूटों के अभ्यन्तर भाग में चारों दिशाओं में चार महाकूट हैं तथा इनकी भी अभ्यन्तर दिशाओं में चार अन्य कूट हैं। जिन पर दिशाएँ स्वच्छ करने वाली तथा भगवान् का जातकर्म करने वाली देवियाँ रहती हैं। इनके अभ्यन्तर भाग में चार सिद्धकूट हैं। (देखें - चित्र सं . ४०, पृ. ४६८)। किन्हीं आचार्यों के अनुसार विदिशाओं में भी चार सिद्धकूट हैं। (ति.प./५/१६२-१६६); (त्रि. सा./९४७,९५८-९५९)।
- लोक विनिश्चय के अनुसार पूर्वादि चार दिशाओं में एक-एक करके चार कूट हैं जिन पर दिग्गजेन्द्र रहते हैं। इन चारों के अभ्यन्तर भाग में चार दिशाओं में आठ-आठ कूट हैं जिन पर उपर्युक्त माता की सेवा करनेवाली ३२ दिक्कुमारियाँ रहती हैं। उनके बीच की दिशाओं में दो-दो करके आठ कूट हैं, जिनपर भगवान् का जातकर्म करने वाली आठ महत्तरियाँ रहती हैं। इनके अभ्यन्तर भाग में पुनः पूर्वादि दिशाओं में चार कूट हैं जिन पर दिशाएँ निर्मल करने वाली देवियाँ रहती हैं। इनके अभ्यन्तर भाग में चार सिद्धकूट हैं। (ति.प./५/१६७-१७८); (रा.वा./३/३५/१९९/२४); (ह.पु./५/७०४-७२१)। (देखें - चित्र सं . ४१, पृ. ४६९)।
- स्वयम्भूरमण समुद्र
अन्तिम द्वीप स्वयम्भूरमण है। इसके मध्य में कुण्डलाकार स्वयंप्रभ पर्वत है। (ति.प./५/२३८); (ह.पु./५/७३०)। इस पर्वत के अभ्यन्तर भाग तक तिर्यंच नहीं होते, पर उसके परभाग से लेकर अन्तिम स्वयम्भूरमण सागर के अन्तिम किनारे तक सब प्रकार के तिर्यंच पायेजाते हैं। ( देखें - तिर्यंच / ३ / ४ -६)। (देखें - चित्र सं . १२ पृ. ४४३)।
- लवण सागर निर्देश