पदार्थ
From जैनकोष
न्या.सू./२/२/६३/१४२ व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थेः। ६३। = ‘व्यक्ति’, ‘आकृति’ और ‘जाति’ ये सब मिलकर पद का अर्थ (पदार्थ) होता है।
न्या.वि./टी./१/७/१४०/१५ अर्थोऽभिधेयः पदस्यार्थः पदार्थः। = अर्थ अर्थात् अभिधेय। पद का अर्थ सो पदार्थ। (अर्थात् सामान्य रूप से जो कुछ भी शब्द का ज्ञान है वह शब्द का विषय है वह शब्द ‘पदार्थ’ शब्द का वाच्य है।)
प्र.सा./त.प्र./९३ इह किल यः कश्चन परिच्छिद्यमानः पदार्थः स सर्व एव ..द्रव्यमय...गुणात्मका ...पर्यायात्मका। = इस विश्व में जो जानने में आनेवाला पदार्थ है, वह समस्त द्रव्यमय, गुणमय और पर्यायमय है।
- . नव पदार्थ निर्देश
पं.का./मू./१०८ जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा। १०८। = जीव और अजीव दो भाव (अर्थात् मूल पदार्थ) तथा उन दो के पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष वह (नव) पदार्थ हैं। १०८। (गो.जी./मू./६२१/१०७५); (द.पा./टी./१९/१८)।
न.च.वृ./१६० जीवाइ सततच्चं पण्णत्तं जे जहत्थरूवेण। तं चेव णवपयत्था सपुण्णपावा पुणो होंति। १६०। = जीवादि सप्त तत्त्वों को यथार्थरूप से कहा गया है, उन्हीं में पुण्य और पाप मिला देने से नव पदार्थ बन जाते हैं।
- अन्य सम्बन्धित नियम
- नव पदार्थ का विषय - देखें - तत्त्व।
- नव पदार्थ श्रद्धान का सम्यग्दर्शन में स्थान - देखें - सम्यग्दर्शन / II
- द्रव्य के अर्थ में पदार्थ - देखें - द्रव्य।
- शब्द अर्थ व ज्ञानरूप पदार्थ - देखें - नय / II / ४ ।