परमाणु
From जैनकोष
पुद्गल द्रव्य के अन्तिम छोटे से छोटे भाग को परमाणु कहते हैं। सूक्ष्मता का द्योतक होने से चेतन के निर्विकल्प सूक्ष्म भाव भी कदाचित् परमाणु कह दिये जाते हैं। जैनदर्शन में पृथिवी आदि के परमाणुओं में कोई भेद नहीं है। सभी परमाणु स्पर्श, रस, गन्ध व वर्णवाले होते हैं। स्पर्श गुण की हलकी, भारी या कठोर नरमरूप पर्याय परमाणु में नहीं पायी जाती है, क्योंकि वह संयोगी द्रव्य में ही होनी सम्भव है। इनके परस्पर मिलने से ही पृथिवी आदि तत्त्वों की उत्पत्ति होती है। आदि, मध्य व अन्त की कल्पना से अतीत होते हुए भी एकप्रदेशी होने के कारण यह दिशाओंवाला अनुमान करने में आता है।
- परमाणु के भेद व लक्षण तथा अस्तित्व की सिद्धि
- परमार्थपरमाणु सामान्य का लक्षण।
- क्षेत्र का प्रमाण विशेष।
- परमाणु के भेद।
- कारणकार्य परमाणु का लक्षण।
- जघन्यउत्कृष्ट परमाणु के लक्षण।
- द्रव्य व भाव परमाणु के लक्षण।
- परमाणु के अस्तित्व सम्बन्धी शंकासमाधान।
- आदि, मध्य, अन्तहीन भी उसका अस्तित्व है।
- परमाणु में स्पर्शादि गुणों की सिद्धि।
- परमार्थपरमाणु सामान्य का लक्षण।
- परमाणु निर्देश
- परमाणु मूर्त है।- देखें - मूर्त / २ ।
- वास्तव में परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है।
- परमाणु में जाति भेद नहीं है।
- सिद्धोंवत् परमाणु निष्क्रिय नहीं।
- परमाणु अशब्द है।
- परमाणु की उत्पत्ति का कारण।
- परमाणु का लोक में अवस्थान क्रम।
- लोक स्थित परमाणुओं में कुछ चलित हैं कुछ अचलित।
- अनन्त परमाणु आजतक अवस्थित हैं।
- नित्य अवस्थित परमाणुओं का कथंचित् निषेध।
- परमाणु में चार गुण की पाँच पर्याय होती हैं।
- परमाणु मूर्त है।- देखें - मूर्त / २ ।
- परमाणु की सीधी व तिरछी दोनों प्रकार की गति सम्भव है।- देखें - गति / १ ।
- परमाणु में कथंचित् सावयव व निरवयवपना
- परमाणु आदि, मध्य व अन्तहीन होता है।
- परमाणु अविभागी व एकप्रदेशी होता है।
- अप्रदेशी या निरवयवपने में हेतु।
- परमाणु का आकार।
- सावयवपने में हेतु।
- निरवयव व सावयवपने का समन्वय।
- परमाणु में परस्पर बन्ध सम्बन्धी।- देखें - स्कंध / २ ।
- स्कन्ध में परमाणु परस्पर सर्वदेशेन स्पर्श करते हैं या एकदेशेन।- देखें - परमाणु / ३ / ५ ।
- परमाणु आदि, मध्य व अन्तहीन होता है।
- परमाणु के भेद व लक्षण तथा उसके अस्तित्व की सिद्धि
- परमार्थ परमाणु सामान्य का लक्षण
ति.प./१/९६ सत्थेण मुतिक्खेण छेत्तुं भेत्तुं च जं किरस्सक्कं। जलयणलादिहिं णासं ण एदिसो होदि परमाणू। ९६। = जो अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र से भी छेदा या भेदा नहीं जा सकता, तथा जल और अग्नि आदि के द्वारा नाश को प्राप्त नहीं होता, वह परमाणु है। ९६।
स.सि./सू./पू./पं. प्रदिश्यन्त इति प्रदेशाः परमाणवः (२/३८/१९२/६) प्रदेशमात्रभाविस्पर्शादिपर्यायप्रसवसामर्थ्येनाण्यन्ते शब्द्यन्त इत्यणवः। (५/२५/२९७/३) = प्रदेश शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्रदिश्यन्ते’ होती है। इसका अर्थ परमाणु है। (२/३८)। एक प्रदेश में होनेवाले स्पर्शादि पर्याय को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रूप से जो ‘अण्यन्ते’ अर्थात् कहे जाते हैं, वे अणु कहलाते हैं। (रा.वा./५/२५/१/४९१/११)
ज.पं./१३/१७ जस्स ण कोइ अणुदरो सो अणुओ होदि सव्वदव्वाणं। जावे परं अणुत्तं परमाणू मुणेयव्वा। १७। = सब द्रव्यों में जिसकी अपेक्षा अन्य कोई अणुत्तर न हो वह अणु होता है। जिसमें अत्यन्त अणुत्व हो उसे सब द्रव्यों में परमाणु जानना चाहिए। १७।
- क्षेत्र का प्रमाण विशेष
ज.प./१३/२१ अट्ठहिं तेहिं णेया सण्णासण्णहिं तह य दव्वेहि। ववहारियपरमाणू णिद्दिट्ठो सव्वदरिसीहिं। २१। = आठ सन्नासन्न द्रव्यों में से एक व्यावहारिक परमाणु (त्रुटिरेणु) होता है। ऐसा सर्वदर्शियों ने कहा है। (विशेष देखें - गणित / I / १ / ३ )
- परमाणु के भेद
न.च.वृ./१०१ कारणरूवाणु कज्जरूवो वा।....। १०१। = परमाणु दो प्रकार का होता है - कारणरूप और कार्यरूप। (नि.सा./ता.वृ./२५) (प्र.सा./ता.वृ./८०/१३६/१८)।
नि.सा./ता.वृ./२५ अणवश्चतुर्भेदाः कार्यकारणजघन्योत्कृष्टभेदैः। = अणुओं के (परमाणुओं के) चार भेद हैं। कार्य, कारण, जघन्य और उत्कृष्ट।
पं.का. /ता.वृ./१५२/२२९/१६ द्रव्यपरमाणुं भावपरमाणुं....। = परमाणु दो प्रकार का होता है - द्रव्य परमाणु और भाव परमाणु।
- कारण-कार्यपरमाणु का लक्षण
नि.सा./मू./२५ धाउचउक्कस्स पुणो जंहेऊ कारणंति तं णेयो। खंधाणं अवसाणो णादव्वो कज्जपरमाणू। २५। = फिर जो (पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन) चार धातुओं का हेतु है, वह कारणपरमाणु जानना, स्कन्धों के अवसान को (पृथक् हुए अविभागी अन्तिम अंश को) कार्यपरमाणु जानना। २५।
पं.का./ता.वृ./८०/१३६/१७ योऽसौ स्कन्धानां भेदको भणितः स कार्य परमाणुरुच्यते यस्तु कारकस्तेषां स कारणंपरमाणुरिति। = स्कन्धों के भेद को करनेवाला परमाणु तो कार्यपरमाणु है और स्कन्धों का निर्माण करनेवाला कारणपरमाणु है। अर्थात् स्कन्ध के विघटन से उत्पन्न होनेवाला कार्यपरमाणु और जिन परमाणुओं के मिलने से कोई स्कन्ध बने वे कारणपरमाणु हैं।
- जघन्य व उत्कृष्ट परमाणु के लक्षण
नि.सा./ता.वृ./२५ जघन्यपरमाणुः स्निग्धरूक्षगुणानामानन्त्याभावात् समविषमबन्धयोरयोग्य इत्यर्थः। स्निग्धरूक्षगुणानामनन्यतरस्योपरि द्वाभ्यां चतुर्भिः संबन्धः त्रिभिः पञ्चभिर्विषमबन्धः। अयमुत्कृष्टपरमाणुः। = वही (कारणपरमाणु), एक गुण स्निग्धता या रूक्षता होने से सम या विषम बन्ध को अयोग्य ऐसा जघन्य परमाणु है - ऐसा अर्थ है। एक गुण स्निग्धता या रूक्षता के ऊपर-दो गुणवाले और चार गुणवाले का सम बन्ध होता है, तथा तीन गुणवाले का और पाँच गुणवाले का विषम बन्ध होता है - यह उत्कृष्ट परमाणु है।
- द्रव्य व भाव परमाणु का लक्षण
पं.का./ता.वृ./१५२/२१९/१७ द्रव्यपरमाणुशब्देन द्रव्यसूक्ष्मत्वं ग्राह्यं भावपरमाणुशब्देन च भावसूक्ष्मत्वं न च पुद्गलपरमाणुः। ....द्रव्यशब्देनात्मद्रव्यं ग्राह्यं तस्य तु परमाणुः। परमाणुरिति कोऽर्थः। रागाद्युपाधिरहिता सूक्ष्मावस्था। तस्या सूक्ष्मत्वं कथमिति चेत्। निर्विकल्पसमाधिविषयादिति द्रव्यपरमाणुशब्दस्य व्याख्यानं। भावशब्देन तु तस्यैवात्म-द्रव्यस्य स्वसंवेदनज्ञानपरिणामो ग्राह्यः तस्य भावस्य परमाणुः। परमाणुरिति कोऽर्थः। रागादिविकल्परहिता सूक्ष्मावस्था। तस्याः सूक्ष्मत्वं कथमिति चेत्। इन्द्रियमनोविकल्पाविषयादिति भावपरमाणुशब्दस्य व्याख्यानं ज्ञातव्यं। = द्रव्यपरमाणु से द्रव्य की सूक्ष्मता और भाव परमाणु से भाव की सूक्ष्मता कही गयी है। उसमें पुद्गल परमाणु का कथन नहीं है। ...द्रव्य शब्द से आत्मद्रव्य ग्रहण करना चाहिए। उसका परमाणु अर्थात् रागादि उपाधि से रहित उसकी सूक्ष्मावस्था, क्योंकि वह निर्विकल्प समाधि का विषय है। इस प्रकार द्रव्यपरमाणु कहा गया। भाव शब्द से उस ही आत्मद्रव्य का स्वसंवेदन परिणाम ग्रहण करना चाहिए। उसके भाव का परमाणु अर्थात् रागादि विकल्प रहित सूक्ष्मावस्था, क्योंकि वह इन्द्रिय और मन के विकल्पों का विषय नहीं है। इस प्रकार भावपरमाणु शब्द का व्याख्यान जानना चाहिए। (प.प्र./टी./२/३३/१५३/२)
रा.वा./हिं./९/२७/७३३ भाव परमाणु के क्षेत्र की अपेक्षा तो एक प्रदेश है। व्यवहार काल का एक समय है। और भाव अपेक्षा एक अविभागी प्रतिच्छेद है। तहाँ पुद्गल के गुण अपेक्षा तो स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण के परिणमन का अंश लीजिए। जीव के गुण अपेक्षा ज्ञान का तथा कषाय का अंश लीजिए। ऐसे द्रव्यपरमाणु (पुद्गल परमाणु) भावपरमाणु (किसी भी द्रव्य के गुण का एक अविभागी प्रतिच्छेद) यथा सम्भव समझना।
- परमाणु के अस्तित्व सम्बन्धी शंका समाधान
रा.वा./५/११/४/४५४/६ अप्रदेशत्वादभावः (परमाणु) खरविषाणवदिति चेतः नः उक्तत्वात्। ४। ....प्रदेशमात्रोऽणुः, न खरविषाणवदप्रदेश इति।
रा.वा./५/२५/१४-१५/४९२/२३ कथं पुनस्तेषामणूनामत्यन्तपरोक्षाणाम् अस्तित्वावसीयत इति चेत्। उच्यते-तदस्तित्वं कार्यलिङ्गत्वात्। १५। ...नासत्सु परामणुषु शरीरेन्द्रियमहाभूतादिलक्षणस्य कार्यस्य प्रादुर्भाव इति। = प्रश्न - अप्रदेशी होने से परमाणु का खरविषाण की तरह अभाव है? उत्तर - नहीं, क्योंकि पहले कहा जा चुका है कि परमाणु एक प्रदेशी है न कि सर्वथा प्रदेश शून्य। प्रश्न - अत्यन्त परोक्ष उन परमाणुओं के अस्तित्व की सिद्धि कैसी होती है?उत्तर - कार्यलिंग से कारण का अनुमान किया जाना सर्व सम्मत है। शरीर, इन्द्रिय और महाभूत आदि स्कन्धरूप कार्यों से परमाणुओं का अस्तित्व सिद्ध होता है। क्योंकि परमाणुओं के अभाव में स्कन्धरूप कार्य नहीं हो सकते।
ध. १४/५,६,७६/५५/२ परमाणूणां परमाणुभावेण सव्वकालमवट्ठणाभावादो दव्वभावो ण जुज्जदे। ण, पोग्गलभावेण उप्पादविणासवज्जिएण परमाणूणं पि दव्वत्तसिद्धीदो। = प्रश्न - परमाणु सदाकाल परमाणुरूप से अवस्थित नहीं रहते, इसलिए उनमें द्रव्यपना नहीं बनता? उत्तर - नहीं, क्योंकि परमाणुओं का पुद्गलरूप से उत्पाद और विनाश नहीं होता इसलिए उनमें द्रव्यपना भी सिद्ध होता है।
- आदि मध्य अन्तहीन भी उसका अस्तित्व है
रा.वा./५/११/५/४५४/९ आदिमध्यान्तरव्यपदेशः परमाणोः स्याद्वा, न वा। यद्यस्तिः प्रदेशवत्त्वं प्राप्नोति। अथ नास्ति, खरविषाणवदस्याभावः स्यादिति। तन्न, किं कारणम्। विज्ञानवत्। यथा विज्ञानमादि-मध्यान्तव्यपदेशाभावेऽप्यस्ति तथाणुरपि इति। उत्तरत्र च तस्यास्तित्वं वक्ष्यते। = प्रश्न - परमाणु क्या आदि, मध्य, अन्त सहित है। यदि सहित है तो उसको प्रदेशीपना प्राप्त हो जायेगा और यदि रहित है तो उसका खरविषाण की तरह अभाव सिद्ध होता है। उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे - विज्ञान का आदि, मध्य व अन्त व्यपदेश न होने पर भी अस्तित्व है उसी तरह परमाणु में आदि, मध्य और अन्त व्यवहार न होने पर भी उसका अस्तित्व है।
- परमाणु में स्पर्शादि गुणों की सिद्धि
रा.वा./२/२०/१/१३३/१ सूक्ष्मेषु परमाण्वादिषु स्पर्शादिव्यवहारो न प्राप्नोति। नैष दोषः, सूक्ष्मेष्वपि ते स्पर्शादयः सन्ति तत्कार्येषु स्थूलेषु दर्शनानुमीयमानाः, न ह्यत्यन्तमसतां प्रादुर्भावोऽस्तीति।
ध. १/१,१,३३/२३८/६ किंतु इन्द्रियग्रहणयोग्या न भवन्ति। ग्रहणायोग्यानां कथं स व्यपदेश इति चेन्न, तस्य सर्वदायोग्यत्वाभावात्। परमाणुगतः सर्वदा न ग्रहणयोग्यश्चेन्न, तस्यैव स्थूलकार्याकारेण परिणतौ योग्यत्वोपलम्भात्। = प्रश्न - सूक्ष्म परमाणुओं में स्पर्शादि का व्यवहार नहीं बन सकता (क्योंकि उसमें स्पर्शन रूप क्रिया का अभाव है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म परमाणु आदि में भी स्पर्शादि हैं, क्योंकि परमाणुओं के कार्यरूप स्थूल पदार्थों में स्पर्शादि उपलब्धि देखी जाती है। तथा अनुमान भी किया जाता है, क्योंकि जो अत्यन्त असत् होते हैं, उनकी उत्पत्ति नहीं होती है। (ध.१/१,१,३३/२३८/४)। प्रश्न - जबकि परमाणुओं में रहनेवाला स्पर्श इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता तो फिर उसे स्पर्श संज्ञा कैसे दी जा सकती है? उत्तर - नहीं, क्योंकि परमाणुगत स्पर्श के इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने की योग्यता का सदैव अभाव नहीं है। प्रश्न - परमाणु में रहनेवाला स्पर्श इन्द्रियों द्वारा कभी भी ग्रहण करने योग्य नहीं है? उत्तर - नहीं, क्योंकि, जब परमाणु स्थूल रूप से परिणत होते हैं, तब तद्गत धर्मों की इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने की योग्यता पायी जाती है। (अथवा उनमें रूढ़ि के वश से स्पर्शादि का व्यवहार होता है। (रा.वा./२/२०)
पं. का./त.प्र./७८ द्रव्यगुणयोरविभक्तप्रदेशत्वात् य एव परमाणोः प्रदेशः, स एव स्पर्शस्य, स एव रसस्य, स एव गन्धस्य, स एव रूपस्येति। ततः क्वचित्परमाणौ गन्धगुणे, क्वचित् गन्धरसगुणयोः क्वचित् गन्धरस-रूपगुणेषु अपकृष्यमाणेषु अविभक्तप्रदेशः परमाणुरेव विनश्यतीति। न तदपकर्षो युक्तः। ततः पृथिव्यप्तेजोवायुरूपस्य धातुचतुष्कस्यैक एव परमाणुः कारणम्। = द्रव्य और गुण के अभिन्न होने से जो परमाणु का प्रदेश है वही स्पर्श का है, वही रस का है, वही गन्ध का है, वही रूप का है। इसलिए किसी परमाणु में गन्ध गुण कम हो, किसी परमाणु में गन्धगुण और रसगुण कम हो, किसी परमाणु में गन्धगुण, रसगुण और रूपगुण कम हो, तो उस गुण से अभिन्न अप्रदेशी परमाणु ही विनष्ट हो जायेगा। इसलिए उस गुण की न्यूनता युक्त नहीं हैं। इसलिए धातु चतुष्क का एक परमाणु ही कारण है।
- परमार्थ परमाणु सामान्य का लक्षण
- परमाणु निर्देश
- वास्तव में परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है
ति.प./१/९९-१०० पूरंति गलंति जदो पूरणगलणेहिं पोग्गला तेण। परमाणुच्चिय जादा इय दिट्ठं दिट्ठिवादम्हि।९९। वण्णरसगंधफासे पूरणगलणाइ सव्वकालम्हि। खंदं पिप व कुणमाणा परमाणू पुग्गला तम्हा।१००। = क्योंकि स्कन्धों के समान परमाणु भी पूरते हैं, और गलते हैं, इसलिए पूरण गलन क्रियाओं के रहने से वे भी पुद्गल के अन्तर्गत हैं, ऐसा दृष्टिवाद अंग में निर्दिष्ट है।९९। परमाणु स्कन्ध की तरह सर्वकाल में वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श, इन गुणों में पूरण-गलन को किया करते हैं, इसलिए वे पुद्गल ही हैं। (ह.पु./७/३६), (पं.का./त.प्र./७६)।
रा.वा./५/१/२५/२६/४३४/१६ स्यान्मतम्-अणूनां निरवयवत्वात् पूरणगलन क्रियाभावात् पुद्गलव्यपदेशाभावप्रसङ्ग इतिः तन्नः किं कारणम्। गुणापेक्षया तत्सिद्धेः। रूपरसगन्धस्पर्शयुक्ता हि परमाणवः एकगुणरूपादिपरिणताः द्वित्रिचतुः-संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तगुणत्वेन वर्धन्ते, तथैव हानिमपि उपयान्तीति गुणापेक्षया पूरणगलनक्रियोपपत्तेः परमाणुष्वपि पुद्गलत्वमविरुद्धम्। अथवा गुण उपचारकल्पनम् पूरणगलनयोः भावित्वात् भूतत्वाच्च शक्त्यपेक्षया परमाणुषु पुद्गलत्वोपचारः। ...अथवा पुमांसो जीवाः, तैः शरीराहारविषयकरणोपकरणादिभावेन गिल्यन्त इति पुद्गलाः। अण्वादिषु तद्भावादपुद्गलत्वमिति चेत्ः उक्तोत्तरमेतत्। = प्रश्न - अणुओं के निरवयव होने से तथा उनमें पूरण गलन क्रिया का अभाव होने से पुद्गल व्यपदेश के अभाव का प्रसंग आता है? उत्तर - ऐसा नहीं है क्योंकि, गुणों की अपेक्षा उसमें पुद्गलपने की सिद्धि होती है। परमाणु रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श से युक्त होते हैं, और उनमें एक, दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त गुणरूप से हानि-वृद्धि होती रहती है। अतः उनमें भी पूरण-गलन व्यवहार मानने में कोई बाधा नहीं है। अथवा पुरुष यानी जीव जिनको शरीर, आहार, विषय और इन्द्रिय उपकरण आदि के रूप में निगलें - ग्रहण करें वे पुद्गल हैं। परमाणु भी स्कन्ध दशा में जीवों के द्वारा निगले जाते ही हैं, (अतः परमाणु पुद्गल है।)
न.च.वृ./१०१ मुत्तो एयपदेसी कारणरूवोणु कज्जरूवो वा। तं खलु पोग्गलदव्वं खंधा ववहारदो भणिया।१०१। = जो मूर्त है, एक प्रदेशी है, कारणरूप है तथा कार्यरूप भी है ऐसा अणु ही वास्तव में पुद्गल द्रव्य कहा गया है। स्कन्ध को तो व्यवहार से पुद्गल द्रव्य कहा है। (नि.सा./ता.वृ./२९)।
- परमाणु में जातिभेद नहीं है
स.सि./५/३/२६९/८ सर्वेषां परमाणूनां सर्वरूपादिमत्कायत्वप्राप्तियोग्यत्वाभ्युपगमात्। न च केचित्पार्थिवादिजातिविशेषयुक्ताः परमाणवः सन्तिः जातिसंकरेणारम्भदर्शनात्। = सब परमाणुओं में सब रूपादि गुणवाले कार्यों के होने की योग्यता मानी है। कोई पार्थिव आदि भिन्न-भिन्न जाति के अलग-अलग परमाणु हैं यह बात नहीं है; क्योंकि जाति का संकर होकर सब कार्यों का आरम्भ देखा जाता है।
- सिद्धोंवत् परमाणु निष्क्रिय नहीं
पं.का./त.प्र./९८ जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं कर्मनोकर्मोपचयरूपाः पुद्गला इति ते पुद्गलकरणाः। तदभावान्नि:क्रियत्वं सिद्धानाम्। पुद्ग्लानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं परिणामनिर्वर्तकः काल इति ते कालकरणाः। न च कर्मादीनामिव कालस्याभावः। ततो न सिद्धानामिव निष्क्रियत्वं पुद्गलानामिति। = जीवों को सक्रियपने का बहिरंग साधन कर्म-नोकर्म के संचय रूप पुद्गल है; इसलिए जीव पुद्गलकरण वाले हैं। उसके अभाव के कारण सिद्धों को निष्क्रियपना है। पुद्गल को सक्रियपने का बहिरंग साधन परिणाम निष्पादक काल है; इसलिए पुद्गल कालकरण वाले हैं। कर्मादिक की भाँति काल (द्रव्य) का अभाव नहीं होता; इसलिए सिद्धों की भाँति पुद्गलों को निष्क्रियपना नहीं होता।
- परमाणु अशब्द है
ति.प./१/९७... सद्दकारणमसद्दं। खंदंतरिदं दव्वं तं परमाणु भणंति बुधा।९७। = जो स्वयं शब्द रूप न होकर भी शब्द का कारण हो एवं स्कन्ध के अन्तर्गत हो ऐसे द्रव्य को परमाणु कहते हैं। (ह.पु./७/३३), ( देखें - मूर्त / २ / १ )।
पं.का./त.प्र./७८ यथा च तस्य (परमाणोः) परिणामवशादव्यक्तो गन्धादिगुणोऽस्तीति प्रतिज्ञायते, न तथा शब्दोऽप्यव्यक्तोऽस्तीति ज्ञातुं शक्यते तस्यैकप्रदेशस्यानेकप्रदेशात्मकेन शब्देन सहैकत्वविरोधादिति। = जिस प्रकार परमाणु को परिणाम के कारण अव्यक्त गन्धादि गुण हैं ऐसा ज्ञात होता है उसी प्रकार शब्द भी अव्यक्त है ऐसा नहीं जाना जा सकता, क्योंकि एक प्रदेशी परमाणु को अनेकप्रदेशात्मक शब्द के साथ एकत्व होने में विरोध है।
- परमाणु की उत्पत्ति का कारण
ध. १४/५,६/सू. ९८-९९/१२० वग्गणणिरुवणिदाए इमा एयपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम किं भेदेण किं संघादेण किं भेदसंघादेण।९८। उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण।९९। = प्रश्न - वर्गणा निरूपण की अपेक्षा एकप्रदेशी परमाणु पुद्गल-द्रव्य-वर्गणा क्या भेद से उत्पन्न होती हैं, क्या संघात से होती हैं, या क्या भेद संघात से होती हैं।९८। उत्तर = ऊपर के द्रव्यों के (अर्थात् स्कन्धों के) भेद से उत्पन्न होती हैं। (त.सू./५/२७), (स.सि./५/२७/२९९/२), (रा.वा./५/२७/१/४९४/१०)।
- परमाणु का लोक में अवस्थान क्रम
त.सू./५/१४ एकप्रदेशादिषु भाज्य: पुद्गलानाम्।१४।
रा.वा./५/१४/२/४५६/३२ तद्यथा - एकस्य परमाणोरेकत्रैव आकाशप्रदेशेऽवगाहः, द्वयोरेकत्रोभयत्र च बद्धयोरबद्धयोश्च, त्रयाणामेकत्र द्वयोस्त्रिषु च बद्धानामबद्धानां च। एवं संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशानां स्कन्धानामेकसंख्येयासंख्येयप्रदेशेषु लोकाकाशे अवस्थानं प्रत्येतव्यम्। = पुद्गलों का अवगाह लोकाकाश के एकप्रदेश आदि में विकल्प से होता है।१४। यथा - एक परमाणु का एक ही आकाश प्रदेश में अवगाह होता है, दो परमाणु यदि बद्ध हैं तो एक प्रदेश में, यदि अबद्ध हैं तो दो प्रदेशों में, तथा तीन का बद्ध और अबद्ध अवस्था में एक दो और तीन प्रदेशों में अवगाह होता है। इसी प्रकार बन्धविशेष से संख्यात-असंख्यात और अनन्त प्रदेशी स्कन्धों का लोकाकाश के एक, संख्यात और असंख्यात प्रदेशों में अवगाह समझना चाहिए। (प्र.सा./त.प्र./१३६)।
- लोकस्थित परमाणुओं में कुछ चलित हैं कुछ अचलित
गो.जी./मू./५९३/१०३२ पोग्गलदव्वम्हि अणू संखेज्जादि हवंति चलिदा हु। चरिममहक्खंधम्मि य चलाचला होंति पदेसा। = पुद्गल द्रव्य-विषैं परमाणु अर द्वयणुक आदि संख्यात-असंख्यात अनन्त परमाणु के स्कन्ध ते चलित हैं। बहुरि अन्त का महास्कन्धविषैं केइ परमाणु अचलित हैं, बहुरि केइ परमाणु चलित हैं ते यथायोग्य चंचल हो हैं।
- अनन्तों परमाणु आज तक अवस्थित
ध.६/१,९-१,२६/४९/६ एग-बे-तिण्णि समयाइं काऊण उक्कस्सेण मेरुपव्वदादिसु अणादि-अपज्जवसिदसरूवेण संट्ठाणावट्ठाणुवलंभा। = पुद्गलों का एक, दो, तीन समयों को आदि करके उत्कर्षतः मेरु पर्वत आदि में अनादि-अनन्त स्वरूप से एक ही आकार का अवस्थान पाया जाता है।
ध.४/१,५,४/गा.१९/३२७ वंधइ जहुत्तहेदू सादियमध णादियं चावि।१९। अदीदकाले वि सव्वजीवेहि सव्वपोग्गलणमणंतिभागो सव्वजीवरासीदो अणंतगुणो, सव्वजीवरासिउवरिमवग्गादो अणंतगुणहीणो, पोग्गलपुंजो भुत्तुज्झिदो। (ध.४/१,५,४/३२६/३)। = पुद्गल परमाणु सादि भी होते हैं, अनादि भी होते हैं और उभयरूप भी होते हैं।१९। अतीत काल में भी सर्व जीवों के द्वारा सर्वपुद्गलों का अनन्तवाँ भाग, सर्व जीवराशि से अनन्तगुणा, और सर्वजीवराशि के उपरिम वर्ग से अनन्तगुणहीन प्रमाणवाला पुद्गलपुंज भोगकर छोड़ा गया है। (अर्थात् शेष का पुद्गल पुंज अनुपयुक्त है।)
श्लो.वा./२/भाषा./१/३/१२/८४ ऐसे परमाणु अनन्त, पड़े हुए हैं जो आज-तक स्कन्धरूप नहीं हुए और आगे भी न होवेंगे। (श्लो.वा.२/भाषा/१/५/८-१०/१७३/१०)।
- नित्य अवस्थित परमाणुओं का कथंचित् निषेध
रा.वा./५/२५/१०/४९२/११ न चानादिपरमाणुर्नाम कश्चिदस्ति भेदादणुः (त.स./५/२७) इति वचनात्। = अनादि काल से अब तक परमाणु की अवस्था में ही रहनेवाला कोई अणु नहीं है। क्योंकि सूत्र में स्कन्ध भेदपूर्व परमाणुओं की उत्पत्ति बतायी है।
- परमाणु में चार गुणों की पाँच पर्याय होती हैं
पं.का./मू. ८१ एयरसवण्णगंध दो फासं...। खंधंतरिदं दव्वं परमाणं तं वियाणाहि।८१। = वह परमाणु एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक गन्धवाला तथा दो स्पर्शवाला है। स्कन्ध के भीतर हो तथापि द्रव्य है - ऐसा जानो। (ति.प./१/९७); (न.च.वृ./१०२); (रा.वा./३/३८/६/२०७/२६); (ह.पु./७/३३); (म.पु./२४/१४८)।
रा.वा./५/२५/१३-१४/४९५/१८ एकरसवर्णगन्धोऽणुः....।१। द्विस्पर्शो...।१४। ....कौ पुनः द्वौ स्पर्शो। शीतोष्णस्पर्शयोरन्यतरः स्निग्धरूक्षयोरन्यतरश्च। एकप्रदेशत्वाद्विरोधिनोः युगपदनवस्थानम्। गुरुलघुमृदुकठिनस्पर्शानां परमाणुष्वभावः, स्कन्धविषयत्वात्। = परमाणु में एक रस, एक गन्ध, और एक वर्ण है। तथा उसमें शीत और उष्ण में से कोई एक तथा स्निग्ध और रूक्ष में से कोई एक, इस तरह दो अविरोधी स्पर्श होते हैं। गुरु-लघु और मृदु व कठिन स्पर्श परमाणु में नहीं पाये जाते, क्योंकि वे स्कन्ध के विषय हैं। (नि.सा./ता.वृ./२७)।
- वास्तव में परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है
- परमाणुओं में कथंचित् सावयव निरवयवपना
- परमाणु आदि, मध्य व अन्त हीन होता है
नि.सा./मू./३६ अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदिए गेज्झं। अविभागी जं दव्वं परमाणू जं वियाणाहि।२६।
नि.सा./ता.वृ./२६ यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोदादिसिद्धक्षेत्रपर्यन्तस्थितानां सहजपरमपारिणामिकभावसमाश्रयेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनवत्त्वमुक्तम्, तथा परमाणुद्रव्याणां पञ्चमभावेन परमस्वभावत्वादात्म-परिणतेरात्मैवादि परमाणुः। = स्वयं ही जिसका आदि है, स्वयं ही जिसका अन्त है (अर्थात् जिसके आदि में, अन्त में और मध्य में परमाणु का निज स्वरूप ही है) जो इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है और जो अविभागी है, वह परमाणु द्रव्य जान।२६। (स.सि./५/२५/२९७ पर उद्धृत); (ति.प./१/९८); (रा.वा./३/३८/६/२०७/२५); (रा.वा./५/२५/१/४९१/१४ में उद्धृत); (ज.प./१३/१६); (गो.जी./जी.प्र./५६४/१००९ पर उद्धृत)जिस प्रकार सहज परम पारिणामिक भाव की विवक्षा का आश्रय करनेवाले सहज निश्चय नय की अपेक्षा से नित्य और अनित्य निगोद से लेकर सिद्धक्षेत्र पर्यन्त विद्यमान जीवों को निजस्वरूप से अच्युतपना कहा गयाहै, उसी प्रकार पंचम भाव की अपेक्षा से परमाणु द्रव्य का परम स्वभाव होने से परमाणु स्वयं ही अपनी परिणति का आदि है, स्वयं ही अपनी परिणति का मध्य है, और स्वयं ही अपनी परिणति का अन्त भी है।
पं.क./त.प्र./७८ परमाणोर्हि मूर्तत्वनिबन्धनभूताः स्पर्शरसगन्धवर्णा आदेशमात्रेणैव भिद्यन्तेः वस्तुतस्तु यथा तस्य स एव प्रदेश आदिः, स एव मध्यं, स एवान्तः इति। = मूर्तत्व के कारणभूत स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण का, परमाणु से आदेश मात्र द्वारा ही भेद किया जाता है; वस्तुतः परमाणु का वही प्रदेश आदि है वही मध्य, और वही प्रदेश अन्त है।
- परमाणु अविभागी व एकप्रदेशी होता है
त.सू./५/११ नाणोः। ११। = परमाणु के प्रदेश नहीं होते। ११।
प्र.सा./मू.१३७... अपदेसो परमाणू तेण पदेसुब्भवो भणिदो। १३७। = परमाणु अप्रदेशी है; उसके द्वारा प्रदेशोद्भव कहा है। (ति.प./१/९८)
पं.का./मू./७७ सव्वेंसिं खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू। सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो। ७७। = सर्व स्कंधों का अन्तिम भाग उसे परमाणु जानो। वह अविभागी, एक, शाश्वत, मूर्तिप्रभव और अशब्द है। (नि.सा./मू./२६); (ति.प./१/९८(); (ह.पु./७/३२)
पं.का./मू. ७५......परमाणू चेव अविभागी। ७५। = अविभागी वह सचमुच परमाणु है। (मू.आ./२३१(); (ति.प./१/९५); (ध.१३/५,१,१३/गा.३/१३)।
- अप्रदेशी या निरवयवपने में हेतु
सं.सि./५/११/२७६/६ अणोः ‘प्रदेशा न सन्ति’ इति वाक्यशेषः। कुतो न सन्तीति चेत्। प्रदेशमात्रत्वात्। यथा आकाशप्रदेशस्यैकस्य प्रदेशभेदाभावादप्रदेशत्वमेवमणोरपि प्रदेशमात्रत्वात्प्रदेशभेदाभावः। किं च ततोऽल्पपरिणामाभावात्। न ह्यणोरल्पीयानन्योऽस्ति, यतोऽस्य प्रदेशा भिद्येरन्। (अतः स्वयमेवाद्यन्तपरिणामत्वादप्रदेशोऽणुः... यदि ह्यणोरपि प्रदेशाः स्युः, अणुत्वमस्य न स्यात् प्रदेशप्रचयरूपत्वात्, तत्प्रदेशानामेवाणुत्वं प्रसज्येत (रा.वा.) = परमाणु के प्रदेश नहीं होते, यहाँ सन्ति यह वाक्य शेष है। प्रश्न - परमाणु के प्रदेश क्यों नहीं होते? उत्तर - क्योंकि वह स्वयं एक प्रदेश मात्र है। जिस प्रकार एक आकाश प्रदेश में प्रदेशभेद न होने से वह अप्रदेशी माना गया है। उसी प्रकार अणु स्वयं एक प्रदेश रूप है इसलिए उसमें प्रदेश भेद नहीं होता। दूसरे अणु से अल्प परिणाम नहीं पाया जाता। ऐसी कोई अन्य वस्तु नहीं जो परमाणु से छोटी हो जिससे इसके प्रदेश भेद को प्राप्त होवें। (अतः स्वयमेव आदि और अन्त होने से परमाणु अप्रदेशी है। यदि अणु के भी प्रदेशप्रचय हों तो फिर वह अणु ही नहीं कहा जायेगा, किन्तु उसके प्रदेश अणु कहे जायेंगे। (रा.वा./५/११/१-३/४५४/३१)।
ह.पु./७/३४-३५ नाशङ्कयानार्थतत्त्वज्ञैर्नभोंऽशानां समन्ततः। षट्केन युगपद्योगात्परमाणोः षडंशता। ३४। स्वल्पाकाशषडंशाश्च परमाणुश्च संहताः। सप्तांशाःस्युः कुतस्तु स्यात्परमाणोः षडंशता। ३५। = तत्त्वज्ञों के द्वारा यह आशंका नहीं होनी चाहिए कि सब ओर से आकाश के छह अंशों के साथ सम्बन्ध होने से परमाणु में षडंशता है। ३४। क्योंकि ऐसा मानने पर आकाश के छोटे-छोटे छह अंश और एक परमाणु सब मिलकर सप्तमांश हो जाते हैं। अब परमाणु में षडंशता कैसे हो सकती है। ३५।
ध.१३/५,३,३२/२३/२ ण ताव सावयवो, परमाणुसद्दाहिहेयादो पुघभूदअवयवाणुवलंभादो। उवलंभे वा ण सो परमाणु, अपत्तभिज्जमाणभेदपरंतत्तादो। ण च अवयवी चेव अवयवो होदि, अण्णपदत्थेण विणा बहुब्बीहिसमासाणुववत्तीदो संबंधेण विणा संबंधणिबंधण-इं-पच्चयाणुववेत्तीदो वा। ण च परमाणुस्स उद्धाधोमज्झभागाणवयवत्तमत्थि, तेहिंतो पुधभूदपरमाणुस्स अवयविसण्णिदस्स अभावादो। एदम्हि णए अवलंबिज्जमाणे सिद्धं परमाणुस्स णिरवयवत्तं। =- परमाणु सावयव तो हो नहीं सकता, क्योंकि परमाणु शब्द के वाच्यरूप उसके अवयव पृथक् पृथक् नहीं पाये जाते।
- यदि उसके पृथक् पृथक् अवयव माने जाते हैं तो वह परमाणु नहीं ठहरता, क्योंकि जितने भेद होने चाहिए उनके अन्त को वह अभी प्राप्त नहीं हुआ है।
- यदि कहा जाय कि अवयवी को ही हम अवयव मान लेंगे। सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक तो बहुब्रीहि समास अन्यपदार्थ प्रधान होता है, कारण कि उसके बिना वह बन नहीं सकता। दूसरे सम्बन्ध के बिना सम्बन्ध का कारणभूत ‘णिनि’ प्रत्यय भी नहीं बन सकता।
- यदि कहा जाय कि परमाणु के ऊर्ध्व भाग अधोभाग और मध्य भाग रूप से अवयव बन जायेंगे। सो भी बात नहीं है, क्योंकि इन भागों के अतिरिक्त अवयवी संज्ञावाले परमाणु का अभाव है। इस प्रकार इस नय के अवलम्बन करने पर परमाणु निरवयव है, यह बात सिद्ध होती है।
ध. १४/५,६,७७/५६/१ (परमाणुः) णिरवयवत्तादो (जे जस्स कज्जस्स आरंभया परमाणू ते तस्स अवयवा होंति। तदारद्धकज्जं पि अवयवी होदि। ण च परमाणू अण्णेहिंतो णिप्पज्जदि, तस्स आरंभयाणमण्णेसिमभावादो। भावे वा ण एसो परमाणूः एत्तो सुहुमाणमण्णेसिं संभवादो। ण च एगसंखंकियम्मि परमाणुम्मि विदियादिसंखा अत्थि; एक्कस्स दुब्भावविरोहादो। किं च जदि परमाणुस्स अवयवो अत्थि तो परमाणुणा अवयविणा अभावप्पसंगादो। ण च कप्पियसरूवा अवयवा होंति; अव्ववत्थापसंगादो। तम्हा परमाणुणा णिरवयवेण होदव्वं।... ण च णिरवयवपरमाणूहिंतो थूलकज्जस्स अणुप्पत्ती; णिरवयवाणं पि परमाणूणं सव्वप्पणा समागमेण थूलकज्जुप्पत्तीए विरोहासिद्धीदो। = - परमाणु निरवयव होता है। जो परमाणु जिस कार्य के आरम्भक होते हैं वे उसके अवयव हैं, उनके द्वारा आरम्भ किया गया कार्य अवयवी है।
- परमाणु अन्य से उत्पन्न होता है यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि उसके आरम्भक अन्य पदार्थ नहीं पाये जाते। और यदि उसके आरम्भक अन्य पदार्थ होते हैं ऐसा माना जाता है तो वह परमाणु नहीं ठहरता, क्योंकि इस तरह इससे भी सूक्ष्म अन्य पदार्थों का सद्भाव सिद्ध होता है।
- एक संख्यावाले परमाणु में द्वितीयादि संख्या होती है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक को दो रूप मानने में विरोध आता है।
- यदि परमाणु के अवयव होते हैं ऐसा माना जाय तो परमाणु को अवयवी होना चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि अवयव के विभाग द्वारा अवयवी के संयोग का विनाश होने पर परमाणु का अभाव प्राप्त होता है। पर ऐसा है नहीं, क्योंकि कारण का अभाव होने से सब स्थूल कार्यों का भी अभाव प्राप्त होता है।
- परमाणु के कल्पित रूप अवयव होते हैं, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह मानने पर अव्यवस्था प्राप्त होती है। इसलिए परमाणु को निरवयव होना चाहिए।
- निरवयव परमाणुओं से स्थूल कार्यों की उत्पत्ति नहीं बनेगी यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि निरवयव परमाणुओं के सर्वात्मना समागम से स्थूल कार्य की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता।
- परमाणु का आकार
म.पु./२४/१४८ अणवः.... परिमण्डलाः। १४८। = वे परमाणु गोल होते हैं।
आचारसार/३/१३,२४ अणुश्च पुद्गलोऽभेद्यावयवः प्रचयशक्तिः। कायश्च स्कन्धभेदोत्थचतुरस्रस्त्वतीन्द्रियः। १३। व्योमामूर्ते स्थितं नित्यं चतुरस्र समन्धनम्। भावावगाहहेतुश्चानन्तानन्तप्रदेशकम्। २४। = अणु पुद्गल है, अभेद्य है, निरवयव है, बन्धने की शक्ति से युक्त होने के कारण कायवान है, स्कन्ध के भेद से होता है। चौकोर और अतीन्द्रिय है। १३। आकाश अमूर्त है, नित्य अवस्थित है, चौकोर अवगाह देने में हेतु है, और अनन्तानन्त प्रदेशी है। २४। (तात्पर्य यह है कि सर्वतः महान् आकाश और सर्वतः लघु परमाणु इन दोनों का आकार चौकोर रूप से समान है।)
- सावयवपने में हेतु
प्र.सा./मू./१४४ जस्स ण संति पदेसा पदेसमेत्तं व तच्चदवे णादुं। सुण्ण जाण तमत्थं अत्थंतरभूदमत्थीदो। १४४। = जिस पदार्थ के प्रदेश अथवा एक प्रदेश भी परमार्थतः ज्ञात नहीं होते, उस पदार्थ को शून्य जानो, क्योंकि वह अस्तित्व से अर्थान्तर है। १४४।
न्या.वि./मू./१/९०/३६६ तत्र दिग्भागभेदेन षडंशाः परमाणवः। नो चेत्पिण्डोऽणुमात्रः स्यात् [न च ते बुद्धिगोचराः]। ४०। = दिशाओं के भेद से छः दिशाओंवाला परमाणु होता है, वह अणुमात्र ही नहीं है। यदि तुम यह कहो कि अणुमात्र ही है, सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वह बुद्धिगोचर नहीं है।
ध.१३/५,३,१८/१८/८ परमाणूणं णिरवयवत्तासिद्धीदो। ‘अपदेसं णेव इंदिए गेज्झं इदि परमाणूणं णिरवयवत्तं परियम्मे वुत्तमिदि णासंकणिज्जं, पदेसो णाम परमाणू, सो जम्हि परमाणुम्हि समवेदभावेण णत्थि सो परमाणू अपदेसओ त्तिपरियम्मे वुत्तो तेण ण णिरवयवत्तं तत्तो गम्मदे। परमाणू सावयवो त्ति कत्तो प्पव्वदे। खंधभावण्ण-हाणुववत्तीदो। जदि परमाणू णिरवयवो होज्ज तो क्खंधाणमणुप्पत्ती जायदे, अवयवाभावेण देसफासेण विणा सव्वफासमुवगएहिंतो खंधुप्पत्तिविरोहादो। ण च एवं, उप्पण्णखंधुवलंभादो। तम्हा सावयवो परमाणू त्ति घेत्तव्वो। = परमाणु निरवयव होते हैं। यह बात असिद्ध है। ‘परमाणु अप्रदेशी होता है और उसका इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता’ इस प्रकार परमाणुओं का निरवयवपना परिकर्म में कहा है। यदि कोई ऐसी आशंका करे सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘प्रदेश का अर्थ परमाणु है। वह जिस परमाणु में समवेत भाव से नहीं है, वह परमाणू अप्रदेशी है, इस प्रकार परिकर्म में कहा है। इसलिए परमाणु निरवयव होता है, यह बात परिकर्म से नहीं जानी जाती। प्रश्न - परमाणु सावयव होता है, यह किस प्रमाण से जाना जाता है? उत्तर - स्कन्ध भाव को अन्यथा वह प्राप्त नहीं हो सकता, इसी से जाना जाता है कि परमाणु सावयव होता है। यदि परमाणु निरवयव होते तो स्कन्धों की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब परमाणुओं के अवयव नहीं होंगे तो उनका एक देश स्पर्श नहीं बनेगा और एक देश स्पर्श के बिना सर्व स्पर्श मानना पड़ेगा जिससे स्कन्धों की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि उत्पन्न हुए स्कन्धों की उपलब्धि है। इसलिए परमाणु सावयव है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। (ध.१३/५,३,२२/२३/१०)।
ध.१४/५,६,७६/५४/१३ एगपदेसं मोत्तूणं विदियादिपदेसाणं तत्थ पडिसेहकरणादो। न विद्यन्ते द्वितीयादयः प्रदेशाः यस्मिन् सोऽप्रदेशः परमाणुरिति। अन्यथा खरविषाणवत् परमाणोरसत्त्वप्रसङ्गात्।
ध.१४/५,६,७७/५६/११ पज्जवट्ठियणए अवलंविज्जमाणे सिया एगदेसेण समागमो। ण च परमाणूणमवयवा णत्थि, उवरिमहेट्ठिममज्झिमोव-रिमोवरिमभागाणमभावे परमाणुस्स वि अभावप्पसंगादो। ण च एदे भागा संकप्पियसरूवा; उड्ढाधोमज्झिमभागाणं उवरिमोवरिमभागाणं च कप्पणाए विणा अवलंभादो। ण च अवयवाणं सव्वत्थविभागेण होदव्वमेवेत्ति णियमो, सयलवत्थूणमभावप्पसंगादो। ण च भिण्णपमाणगेज्झाणं भिण्णदिसाणं च एयत्तमत्थि, विरोहादो (ण च अवयवेहि परमाणू णारद्धो, अवयवसमूहस्सेव परमाणुत्तदंसणादो। ण च अवयवाणं संजोगविणासेण होदव्वमेवेत्ति णियमो, अणादि-संजोगे तदभावादो। तदो सिद्धा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा। =- परमाणु के एक प्रदेश को छोड़कर द्वितीयादि प्रदेश नहीं होते इस बात का परिकर्म में निषेध किया है। जिसमें द्वितीयादि प्रदेश नहीं है वह अप्रदेश परमाणु हैं यह उसकी व्युत्पत्ति है। (‘अप्रदेश’ पद का यह अर्थ न किया जाये तो जिस प्रकार गधे के सींगों का असत्त्व है, उसी प्रकार परमाणु के भी असत्त्व का प्रसङ्ग आता है।
- पर्यायार्थिकनय का अवलम्बन करने पर कथंचित् एकदेशेन समागम होता है। परमाणु के अवयव नहीं होते यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि उसके उपरिम, अधस्तन, मध्यम और उपरिमोपरिम भाग न हों तो परमाणु का ही अभाव प्राप्त होता है।
- ये भाग कल्पित रूप होते हैं, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणु में ऊर्ध्वभाग, अधोभाग, मध्यमभाग तथा उपरिमोपरमि भाग कल्पना के बिना भी उपलब्ध होते हैं। तथा परमाणु के अवयव हैं इसलिए उनका सर्वत्र विभाग ही होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि इस तरह मानने पर तो सब वस्तुओं के अभाव का प्रसंग प्राप्त हेाता है।
- जिनका भिन्न-भिन्न प्रमाणों से ग्रहण होता है और जो भिन्न-भिन्न दिशा वाले हैं, वे एक हैं यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है।
- अवयवों से परमाणु नहीं बना है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अवयवों के समूहरूप ही परमाणु दिखाई देता है। तथा -
- अवयवों के संयोग का नाश होना चाहिए यह भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अनादि-संयोग के होने पर उसका विनाश नहीं होता। इसलिए द्विप्रदेशी परमाणु पुद्गल वर्गणा सिद्ध होती हैं।
- निरवयव व सावयवपने का समन्वय
गो.जी./जी.प्र./५६४/१००९ पर उद्धृत ‘‘षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता। षण्णां समानदेशित्वे पिण्डं स्यादणुमात्रकं॥ सत्यं, द्रव्यार्थिकनयेन निरंशत्वेऽपि परमाणोः पर्यायार्थिकनयेन षडंशत्वे दोषाभावात्। = प्रश्न - छह कोण का समुदाय होने से परमाणु के छह अंशपना संभवै है। छहों को समानरूप कहने से परमाणु मात्र पिण्ड होता है? उत्तर - परमाणु के द्रव्यार्थिक नय से निरंशपना है परन्तु पर्यायार्थिक नय से छह अंश कहने में दोष नहीं है।
ध.१४/५,६,७७/५७ पर विशेषार्थ ‘यहाँ - परमाणु सावयव है कि निरवयव इस बात का विचार किया गया है। परमाणु एक और अखण्ड है, इसलिए तो वह निरवयव माना गया है, और उसमें ऊर्ध्वादिभाग होते हैं इसलिए वह सावयव माना गया है। द्रव्यार्थिकनय अखण्ड द्रव्य को स्वीकार करता है और पर्यायार्थिकनय उसके भेदों को स्वीकार करता है। यही कारण है कि द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा परमाणु को निरवयव कहा है और पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा सावयव कहा है। परमाणु का यह विश्लेषण वास्तविक है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
- परमाणु आदि, मध्य व अन्त हीन होता है