परमेष्ठी
From जैनकोष
- स्व. स्तो./टी./३९ परमपदे तिष्ठति इति परमेष्ठी परमात्मा। = जो परमपद में तिष्ठता है, वह परमेष्ठी परमात्मा होते हैं।
भा.पा./टी./१४९/२९३/८ परमे इन्द्रचन्द्रधरणेन्द्रवन्दिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी। = जो इन्द्र, चन्द्र, धरणेन्द्र के द्वारा वन्दित ऐसे परमपद में तिष्ठता है, वह परमेष्ठी होता है। (स.श./टी./६/२२५)।
- निश्चय से पंचपरमेष्ठी एक आत्मा की ही पर्याय है
मो.पा./मू./१०४ अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठी। ते वि हु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हु मे सरणं। १०४। = अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अर साधु ये पंचपरमेष्ठी हैं, ते भी आत्माविषै ही चेष्टा रूप हैं, आत्मा की अवस्था है, इसलिए निश्चय से मेरे आत्मा ही का सरणा है। १०४।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- पाँच परमेष्ठी में कथंचित् देवत्व - देखें - देव / I / १ ।
- अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु - दे. वह वह नाम।
- आचार्य, उपाध्याय, साधु में कथंचित् एकता - देखें - साधु / ६ ।
- सिद्ध से पहले अहत को नमस्कार क्यों - देखें - मंत्र / २ ।