परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा
From जैनकोष
- परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा
- परिग्रह त्याग अणुव्रत का लक्षण
र.क.श्रा./६१ धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता। परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि। ६१। = धन धान्यादि दश प्रकार के परिग्रह को परिमित अर्थात् उसका परिमाण करके कि ‘इतना रखेंगे’ उससे अधिक में इच्छा नहीं रखना सो परिग्रह परिमाण व्रत है। तथा यही इच्छा परिमाण वाला व्रत भी कहा जाता है। ६१। (स.सि./७/२०/३५८/११), (स.सि./७/२९/३६८/११)।
का.अ./मू./३३९-३४० जो लोहं णिहणित्ता संतोस-रसायणेण संतुट्ठो। णिहणदि तिण्हा दुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं सव्वं। ३३९। जो परिमाणं कुव्वदि धण-धण्ण-सुवण्ण-खित्तमाईणं। उवओगं जाणित्ता अणुव्वदं पंचमं तस्स। ३४०। = जो लोभ कषाय को कम करके, सन्तोष रूपी रसायन से सन्तुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर दुष्ट तृष्णा का घात करता है। और अपनी आवश्यकता को जानकर धन, धान्य, सुवर्ण और क्षेत्र वगैरह का परिमाण करता है उसके पाँचवाँ अणुव्रत होता है। ३३९-३४०।
- परिग्रह त्याग महाव्रत का लक्षण
मू.आ./९, २९३ जीव णिबद्धा बद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव। तेसिं सक्क्च्चाओ इयरम्हि य णिम्मओऽसंगो। ९। गामं णगरं रण्णं थूलं सच्च्ति बहु सपडिवक्खं। अव्यत्थं बाहिरत्थं तिविहेण परिग्गहं बज्जे। २९३। = जीव के आश्रित अन्तरंग परिग्रह तथा चेतन परिग्रह, व अचेतन परिग्रह इत्यादि का शक्ति प्रगट करके त्याग, तथा इनसे इतर जो संयम, ज्ञान, शौच के उपकरण इनमें ममत्व का न होना परिग्रह त्याग महाव्रत है। ९। ग्राम, नगर, वन, क्षेत्र इत्यादि बहुत प्रकार के अथवा सूक्ष्म अचेतन एकरूप वस्त्र सुवर्ण आदि बाह्य परिग्रह और मिथ्यात्वादि अन्तरंग परिग्रह - इन सबका मन, वचन, काय कृत कारित अनुमोदना से मुनि को त्याग करना चाहिए। यह परिग्रह त्याग व्रत है। २९३।
नि.सा./मू./६० सव्वेसिं गंथाणं तागोणिखेक्खं भावणापुव्वं। पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स। ६०। = निरपेक्ष भावनापूर्वक सर्व परिग्रहों का त्याग उस चारित्र भार वहन करनेवालों को पाँचवाँ व्रत कहा है। ६०।
- परिग्रह त्याग प्रतिमा का लक्षण
र.क.श्रा./१४५ बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निममत्वरतः। स्वस्थः संतोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः। १४५। = जो बाह्य के दश प्रकार के परिग्रहों में ममता को छोड़कर निर्ममता में रत होता हुआ मायादि रहित स्थिर और संतोषं वृत्ति धारण करने में तत्पर है वह संचित परिग्रह से विरक्त अर्थात् परिग्रहत्याग प्रतिमा का धारक है। १४५। (चा.सा./३८/६)
वसु.श्रा./२९९ मोत्तूणं वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं। तत्थ वि मुच्छं ण करेइ जाणइ सो सावओ णवमो। २९९। = जो वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर शेष सब परिग्रह को छोड़ देता है और स्वीकृत वस्त्रमात्र परिग्रह में भी मूर्च्छा नहीं करता, उसे नवमां श्रावक जानो। २९९। (गुण श्रा./१८१) (द्र.सं.टी./४५/१९५/९)।
का.अ./३८६ जो परिवज्जइ गंथं अब्भंतर-बाहिरं च साणंदो। पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी। ३८६। = जो ज्ञानी पुरुष पाप मानकर अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रह को आनन्दपूर्वक छोड़ देता है, उसे निर्ग्रन्थ (परिग्रह त्यागी) कहते हैं। ३८६।
सा.ध./४/२३-२९ सग्रन्थविरतो यः, प्राग्व्रतव्रातस्फुरद्धृतिः। नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान्। २३। एवं व्युत्सृज्य सर्वस्वं, मोहाभिभवहानये। किंचित्कालं गृहे तिष्ठेदौदास्यं भावयन्सुधीः। २९। = पूर्वोक्त आठ प्रतिमा विषयक व्रतों के समूह से स्फुरायमान है सन्तोष जिसके ऐसा जो श्रावक ‘ये वास्तु क्षेत्रादिक पदार्थ मेरे नहीं हैं, और मैं इनका नहीं हूँ’ - ऐसा संकल्प करके वास्तु और क्षेत्र आदि दश प्रकार के परिग्रहों को छोड़ देता है वह श्रावक परिग्रह त्याग प्रतिमावान कहलाता है। २३। तत्त्वज्ञानी श्रावक इस प्रकार सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर मोह के द्वारा होनेवाले आक्रमण को नष्ट करने के लिए उपेक्षा को विचारता हुआ कुछ काल तक घर में रहे। २९।
ला.सं./७/३९-४२ ‘नवमप्रतिमास्थानं व्रतं चास्ति गृहाश्रये। यत्र स्वर्णादिद्रव्यस्य सर्वतस्त्यजनं स्मृतम्। ३९। अस्त्यात्मैकशरीरार्थं वस्त्रवेश्मादि स्वीकृतम्। धर्मसाधनमात्रं वा शेषं निःशेषणीयताम्। ४१। स्यात्पुरस्तादितो यावत्स्वामित्व सद्मयोषिताम्। तत्सर्वं सर्वस्त्याज्यं निःशल्यो जीवनावधि। ४२। = व्रती श्रावक की नवम प्रतिमा का नाम परिग्रह त्यागप्रतिमा है। इस प्रतिमा को धारण करनेवाला श्रावक सोना चाँदी आदि समस्त द्रव्यमात्र का त्याग कर देता है। ३९। तथा केवल अपने शरीर के लिए वस्त्र घर आदि आवश्यक पदार्थों को स्वीकार करता है अथवा धर्म साधन के लिए जिन-जिन पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है, उनका ग्रहण करता है। शेष सबका त्याग कर देता है। भावार्थ - अपनी रक्षा के लिए वस्त्र, घर वा स्थान, अथवा अभिषेक पूजादि के वर्तन, स्वाध्याय आदि के लिए ग्रन्थ वा दान देने के साधन रखता है। शेष का त्याग कर देता है। ४१। इस प्रतिमा को धारण करने से पूर्व वह घर व स्त्री आदि का स्वामी गिना जाता था परन्तु अब सबका जन्मपर्यन्त के लिए त्याग करके निःशल्य हो जाना पड़ता है। ४२।
- परिग्रह त्याग व्रत की पाँच भावनाएँ
त.सू./७/८ मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च। ८। = मनोज्ञ और अमनोज्ञ इन्द्रियों के विषयों में क्रम से राग और द्वेष का त्याग करना ये अपरिग्रहव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। ८। (भ.आ./मू./१२११) (चा.पा./मू./३६)।
मू.आ./३४१ अपरिग्गहस्स मुणिणो सद्दप्फरिसरसरूवगंधेसु। रागद्दोसादीणं परिहारो भावणा पंच। ३४१। = परिग्रहरहित मुनि के शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, इन पाँच विषयों में राग-द्वेष न होना - ये पाँच भावना परिग्रह त्याग महाव्रत की हैं। ३४१।
स.सि./७/९/३४९/४ परिग्रहवान् शकुनिरिव गृहीतमांसखण्डोऽन्येषां तदर्थिनां पतत्त्रिणामिहैव तस्करादीनामभिभवनीयो भवति तदर्जनरक्षणप्रक्षयाकृतांश्च दोषान् बहूनवाप्नोति न चास्य तृप्तिर्भवति इन्धनैरिवाग्नेः लोभाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानपेक्षो भवति प्रेत्य चाशुभां गतिमास्कन्दते लुब्धोऽमिति गर्हितश्च भवतीति तद्विरमणश्रेयः। एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम्।’’ = जिस प्रकार पक्षी मांस के टुकड़े को प्राप्त करके उसको चाहनेवाले दूसरे पक्षियों के द्वारा पराभूत होता है उसी प्रकार परिग्रहवाला भी इसी लोक में उसको चाहनेवाले चोर आदि के द्वारा पराभूत होता है। तथा उसके अर्जन, रक्षण और नाश से होनेवाले अनेक दोषों को प्राप्त होता है, जैसे ईंधन से अग्नि की तृप्ति नहीं होती। यह लोभातिरेक के कारण कार्य और अकार्य का विवेक नहीं करता, परलोक में अशुभ गति को प्राप्त होता है। तथा ‘यह लोभी है’ इस प्रकार से इसका तिरस्कार भी होता है इसलिए परिग्रह का त्याग श्रेयस्कर है। इस प्रकार हिंसा आदि दोषों में अपाय और अवद्य के दर्शन की भावना करनी चाहिए।
- परिग्रह प्रमाणानुव्रत के पाँच अतिचार
त.सू./७/२९ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः। २९। = क्षेत्र और वास्तु के; हिरण्य और सुवर्ण के, धन और धान्य के, दासी और दास के, तथा कुप्य के प्रमाण का अतिक्रम ये परिग्रह प्रमाण अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं। २९। (सा.ध./४/६४ में उद्धृत श्री सोमदेवकृत श्लोक)।
र.क.श्रा./६२ अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि। परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पञ्च लक्ष्यन्ते। ६२। = प्रयोजन से अधिक सवारी रखना, आवश्यकीय वस्तुओं का अतिशय संग्रह करना, पर का विभव देखकर आश्चर्य करना, बहुत लोभ करना, और किसी पर बहुत भार लादना ये पाँच परिग्रहव्रत के अतिचार कहे जाते हैं। ६२।
सा.ध./४/६४ वास्तुक्षेत्रे योगाद् धनधान्ये बन्धनात् कनकरूप्ये। दानात्कुप्ये भावान् - न गवादौ गर्भतो मितीमतीयात्। ६४। = परिग्रह-परिमाणाणुव्रत का पालक श्रावक मकान और खेत के विषय में अन्य मकान और अन्य खेत के सम्बन्ध से, धन और धान्य के विषय में व्याना बाँधने से, स्वर्ण और चाँदी के विषय में भिन्नधातु वगैरह के विषय में मिश्रण या परिवर्तन से तथा गाय बैल आदि के विषय में गर्भ से मर्यादा को उल्लङ्घन नहीं करे। ६४।
- परिग्रह परिमाण व्रत व प्रतिमा में अन्तर
ला.सं./७/४०-४२ इतः पूर्व सुवर्णादि संख्यामात्रापकर्षणः। इतः प्रवृत्तिवित्तस्य मूलादुन्मूलनं व्रतम्। ४०। = परिग्रह त्याग प्रतिमा को स्वीकार करनेवाले के पहले सोना चाँदी आदि द्रव्यों का परिमाण कर रखा था, परन्तु अब इस प्रतिमा को धारण कर लेने पर श्रावक सोना चाँदी आदि धन का त्याग कर देता है। ४०।
- परिग्रह त्याग की महिमा
भ.आ./मू./११८३ रागविवागसतण्णादिगिद्धि अवतित्ति चक्कवट्ठिसुहं। णिस्संग णिव्वुइसुहस्स कहं अवघइ अणंतभागं पि। ११८३। = चक्रवर्तिका सुख राग भाव को बढ़ानेवाला तथा तृष्णा को बढ़ानेवाला है। इसलिए परिग्रह का त्याग करने पर रागद्वेषरहित मुनि को जो सुख होता है, चक्रवर्ती का सुख उसके अनन्त भाग की बराबरी नहीं कर सकता। ११८३। (भ.आ./मू./११७४-११८२)।
ज्ञा./१६/३३/१८१ सर्वसंगविर्निर्मुक्तः संवृताक्षः स्थिराशयः। धत्ते ध्यान-धुरां धीरः संयमी वीरवर्णितां। ३३। = समस्त परिग्रहों से जो रहित हो और इन्द्रियों को संवररूप करनेवाला हो ऐसा स्थिरचित्त संयमी मुनि ही वर्धमान भगवान् की कही हुई धुरा को धारण कर सकता है। ३३।
- परिग्रह त्याग अणुव्रत का लक्षण