परिणाम
From जैनकोष
Result (ध.५/प्र.२७)
जीव के परिणाम ही संसार के या मोक्ष के कारण हैं। वस्तु के भाव को परिणाम कहते हैं, और वह दो प्रकार का है - गुण व पर्याय। गुण अप्रवर्तमान या अक्रमवर्ती है और पर्याय प्रवर्तमान व क्रमवर्ती। पर्यायरूप परिणाम तीन प्रकार के हैं - शुभ, अशुभ और शुद्ध। तहाँ शुद्धपरिणाम ही मोक्ष का कारण है।
- परिणाम सामान्य का लक्षण
- स्वभाव के अर्थ में
प्र.सा./मू./९९ सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो। अत्थेसु सो सहावो ट्ठिदिसंभवणाससंबद्धो। ९९।
प्र.सा./त.प्र./१०९ स्वभावस्तु द्रव्यपरिणामोऽभिहितः। ...द्रव्यवृत्तेर्हि त्रिकोटिसमयस्पर्शिन्याः प्रतिक्षणं तेन तेन स्वभावेन परिणमनाद् द्रव्यस्वभावभूत एव तावत्परिणामः। = स्वभाव में अवस्थित (होने से) द्रव्य सत् है; द्रव्य का जो उत्पादव्यय ध्रौव्य सहित परिणाम है; वह पदार्थों का स्वभाव है। ९९। (प्र.सा./मू./१०९) द्रव्य का स्वभाव परिणाम कहा गया है। ...द्रव्य की वृत्ति तीन प्रकार के समय को (भूत, भविष्यत् वर्तमान काल को) स्पर्शित करती है, इसलिए (वह वृत्ति अस्तित्व) प्रतिक्षण उस उस स्वभावरूप परिणमित होने के कारण द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम है।
गो.जी./जी./८/१५ उदयादिनिरपेक्षः परिणामः। = उदयादि की अपेक्षा से रहित सो परिणाम है।
- भाव के अर्थ में
त.सू./५/४२ तद्भावः परिणामः। ४२।
स.सि./५/४२/३१७/५ धर्मादीनि द्रव्याणि येनात्मना भवन्ति स तद्भावस्तत्त्वं परिणाम इति आख्यायते। = धर्मादिक द्रव्य जिस रूप से होते हैं वह तद्भाव या तत्त्व है और इसे ही परिणाम कहते हैं। (रा.वा./५/४२/१/५०३/५)।
ध.१५/१७२/७ को परिणामी। मिच्छतासंजम-कसायादो। = मिथ्यात्व, असंयम और कषायादि को परिणाम कहा जाता है।
- आत्मलाभ हेतु के अर्थ में
रा.वा./२/१/५/१००/२१ यस्य भावस्य द्रव्यात्मलाभमात्रमेव हेतुर्भवति नान्यन्निमित्तमस्ति सपरिणाम इति परिभाष्यते। = जिसके होने में द्रव्य का स्वरूप लाभ मात्र कारण है, अन्य कोई निमित्त नहीं है, उसको परिणाम कहा जाता है। (स.सि./२/१/१४९/९); (प.का./त.प्र./५६)।
- पर्याय के अर्थ में
स.सि./५/२२/२९२/६ द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवृत्तिधर्मान्तरोपजनरूपः अपरिस्पन्दात्मकः परिणामः। = एक धर्म की निवृत्ति करके दूसरे धर्म के पैदा करने रूप और परिस्पन्द से रहित द्रव्य की जो पर्याय है उसे परिणाम कहते हैं। (रा.वा./५/२२/२१/४८१/१९); (स.म./२७/३०४/१६)।
रा.वा./५/२२/१०/४७७/३० द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोगविस्रसालक्षणो विकारः परिणामः। १०। द्रव्यस्य चेतनस्येतरस्य वाद्रव्यार्थिकनयस्य अविवक्षातो न्यग्भूतां स्वां द्रव्यजातिमजहतः पर्यायार्थिकनयार्पणात् प्राधान्यं विभ्रता केनचित् पर्यायेण प्रादुर्भावः पूर्वपर्यायनिवृत्तिपूर्वक को विकारः प्रयोगविस्रसालक्षणः परिणाम इति प्रतिपत्तव्यः। = द्रव्य का अपनी स्व द्रव्यत्व जाति को नहीं छोड़ते हुए जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है उसे परिणाम कहते हैं। द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्य से भिन्न नहीं है फिर भी द्रव्यार्थिक की अविवक्षा और पर्यायार्थिक को प्रधानता में उसका पृथक् व्यवहार हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अपनी मौलिक सत्ता को न छोड़ते हुए पूर्व पर्याय की निवृत्तिपूर्वक जो उत्तरपर्याय का उत्पन्न होना है वही परिणाम है। (न.च.वृ./१७); (त.सा./३/४६)।
सि.वि./टी./११/५/७०२/१० व्यक्तेन च तादात्म्यं परिणामलक्षणम्। = व्यक्तरूप से तो तादात्म्य रखता हो, अर्थात् द्रव्य या गुणों की व्यक्तियों अथवा पर्यायों के साथ तादात्म्य रूप से रहनेवाला परिणमन, परिणाम का लक्षण है।
न्या.वि./टी./१/१०/१७८/११ परिणामो विवर्तः। = उसी में से उत्पन्न हो होकर उसी में लीन हो जाना रूप विवर्त या परिवर्तन परिणाम है।
प.ध./पू./११७ स च परिणामोऽवस्था। = गुणों को अवस्था का नाम परिणमन है। और भी दे. ‘पर्याय’
- स्वभाव के अर्थ में
- परिणाम के भेद
प्र.सा./मू./१८१ सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पाव त्ति भणियमण्णेसु। परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये। = पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है, ऐसा कहा है। (और भी देखो प्रणिधान) जो दूसरों के प्रति प्रवर्तमान नहीं है, ऐसा परिणाम (शुद्ध परिणाम) समय पर दुःख क्षय का कारण है।
रा.वा./५/२२/१०/४७७/३४ परिणामो द्विविधः - अनादिरादिमांश्च। ...आदिमान् प्रयोगजो वैस्रसिकश्च। = परिणाम दो प्रकार का होता है - एक अनादि और दूसरा आदिमान्। (स.सि./४/४२/३१७/६), (रा.वा./५/४२/३/५०३/९) आदिमान् दो प्रकार के हैं - एक प्रयोगजन्य और दूसरा स्वाभाविक।
ध./१२/४,२,७,३२/२७/९ अपरियत्तमाणा... परिणामा परियत्तमाणा णाम। ....तत्थ उक्कस्सा मज्झिमा जहण्णा त्ति तिविहा परिणामा। = अपरिवर्तमान और परिवर्तमान दो प्रकार के परिणाम होते हैं। उनमें उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य के भेद से वे परिणाम तीन प्रकार के हैं। (गो.क./जी.प्र./१७७/२०७/१०)।
पं.ध./पू./३२७,३२८ का भावार्थ - परिणाम दो प्रकार के होते हैं - सदृश और विसदृश।
- परिणाम विशेषों के लक्षण
- आदिमान् व अनादिमान् परिणाम
रा.वा./५/२२/१०/४७७/४ अनादिर्लोकसंस्थानमन्दराकारादिः। आदिमान् प्रयोगजो वैस्रसिकश्च। तत्र चेतनस्य द्रव्यौपशमिकादिभावः कर्मोपशमाद्यपेक्षोऽपौरुषेयत्वाद् वैस्रसिक इत्युच्यते। ज्ञानशीलभावनादिलक्षणः आचार्यादिपुरुषप्रयोगनिमित्तत्वात्प्रयोगजः। अचेतनस्य च मृदादेः घटसंस्थानादिपरिणामः कुलालादिपुरुषप्रयोगनिमित्तत्वात् प्रयोगजः। इन्द्रधनुरादिनानापरिणामो वैस्रसिकः। तथा धर्मादेरपि योज्यः।
रा.वा./५/४२/३/५०३/१० तत्रानादिर्धर्मादीनां गत्युपग्रहादिः। न ह्येतदस्ति धर्मादीनि द्रव्याणि प्राक् पश्चाद्गत्युपग्रहादिः, प्राग्वा गत्युपग्रहादिः पश्चाद्धर्मादीनि इति। किं तर्हि। अनादिरेषां संबन्धः। आदिमांश्च बाह्यप्रत्यापादितोत्पादः। = लोक की रचना, सुमेरुपर्वत आदि के आकार इत्यादि अनादि परिणाम हैं। अनादिमान् दो प्रकार के हैं - एक प्रयोगजन्य और दूसरे स्वाभाविक। चेतन द्रव्य के औपशमिकादिभाव जो मात्र कर्मों के उपशम आदि की अपेक्षा से होते हैं पुरुष प्रयत्न की जिनमें आवश्यकता नहीं होती वे वैस्रसिक परिणाम हैं। ज्ञान, शील, भावना आदि गुरु उपदेश के निमित्त से होते हैं, अतः वे प्रयोगज हैं। अचेतन मिट्टी आदि का कुम्हार आदि के प्रयोग से होनेवाला घट आदि परिणमन प्रयोगज है और इन्द्रधनुष मेघ आदि रूप से परिणमन वैस्रसिक है।
धर्मादि द्रव्यों के गत्युपग्रह आदि परिणाम अनादि हैं, जब से ये द्रव्य हैं तभी से उनके ये परिणाम हैं। धर्मादि पहले और गत्युपग्रहादि बाद में किसी समय हुए हों ऐसा नहीं है। बाह्य प्रत्ययों के अधीन उत्पाद आदि धर्मादि द्रव्यों के आदिमान् परिणाम हैं।
- अपरिवर्तन व परिवर्तमान परिणाम
ध.१२/४, २,७,३२/२७/८ अणुसमयं वड्ढमाणा होयमाणा च जे संकिलेस-विसोहियपरिणामा ते अपरियत्तमाणा णाम। जत्थ पुण ट्ठाइदूण परिणामांतरं गंतूण एग-दो आदिसमएहिं आगमणं संभवदि ते परिणामा परियत्तमाणा णाम। = प्रति समय बढ़नेवाले या हीन होनेवाले जो संक्लेश या विशुद्धिरूप परिणाम होते हैं वे अपरिवर्तनमान परिणाम कहे जाते हैं किन्तु जिन परिणामों में स्थित होकर तथा परिणामान्तर को प्राप्त हो पुनः एक दो आदि समयों द्वारा उन्हीं परिणामों में आगमन सम्भव होता है उन्हें परिवर्तमान परिणाम कहते हैं। (गो.क./जी.प्र./१७७/२०७/१०)
- सदृश व विसदृश परिणाम
पं.ध./पू./१८२ सदृशोत्पादो हि यथा स्यादुष्णः परिणमन् यथा वह्निः। स्यादित्यसदृशजन्मा हरितात्पीतं यथा रसालफलम्। १८२। = सदृश उत्पाद यह है कि जैसे परिणमन करती हुई अग्नि उष्ण की उष्ण ही रहती है, और आम का फल हरितवर्ण से पीतवर्ण रूप हो जाता है यह असदृश उत्पाद है। १८२।
पं./ध./पू./३२७-३३० जीवस्य यथा ज्ञानं परिणामः परिणमंस्तदेवेति। सदृशस्योदाहृतिरिति जातेरततिक्रमत्वतो वाच्या। ३२७। यदि वा तदिह ज्ञानं परिणामः परिणमन्न तदिति यतः। स्वावसरे यत्सत्त्वं तद्सत्त्वं परत्र नययोगात्। ३२८। अत्रापि च संदृष्टिः सन्ति चपरिणामतोऽपि कालांशाः। जातेरनतिक्रमतः सदृशत्वनिबन्धना एव। ३२९। अपि नययोगाद्विसदृशसाधनसिद्धयै त एव कालांशाः। समयः समयः समयः सोऽपीति बहुप्रतीतित्वात्। ३३०। = जैसे जीव का ज्ञानरूप परिणाम परिणमन करता हुआ प्रति समय ज्ञानरूप ही रहता है यही ज्ञानत्वरूप जाति का उल्लंघन नहीं करने से सदृश का उदाहरण है। ३२७। तथा यहाँ पर वही ज्ञानरूप परिणाम परिणमन करता हुआ यह वह नहीं है ‘अर्थात् पूर्वज्ञानरूप नहीं है’ यह विसदृश का उदाहरण है, क्योंकि विवक्षित परिणाम का अपने समय में जो सत्त्व है, दूसरे समय में पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से वह उसका सत्त्व नहीं माना जाता है। ३२८। और इस विषय में भी खुलासा यह है कि परिणाम से जितने भी ऊर्ध्वांश कल्पनारूप स्वकाल के अंश हैं वे सब अपनी-अपनी द्रव्यत्व जाति को उल्लंघन नहीं करने के कारण से सदृशपने के द्योतक हैं। ३२९। तथा वे ही काल के अंश ‘वह भी समय है, वह भी समय है, वह भी समय है’ इस प्रकार समयों में बहुत ही प्रतीति होने से पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से विसदृशता की सिद्धि के लिए भी समर्थ है। ३३०।
- तीव्र व मन्द परिणाम
स.सि./६/६/३२३/१० बाह्याभ्यन्तरहेतूदीरणवशादुद्रिवतः परिणामस्तीव्रः। तद्विपरीतो मन्दः। = बाह्य और उदीरणा वश प्राप्त होने के कारणं जो उत्कृष्ट परिणाम होता है, वह तीव्रभाव है। मन्दभाव इससे उलटा है। (रा.वा./६/६/१/५११/३२)।
- आदिमान् व अनादिमान् परिणाम
- सल्लेखना सम्बन्धी परिणमन निर्देश
भ.आ./वि./६७/१९४/१० तद्भावः परिणामः इति वचनात्तस्य जीवादेर्द्रव्यस्य क्रोधादिना दर्शनादिना वा भवनं परिणाम इति यद्यपि सामान्येनोक्तं तथापि यतेः स्वेन कर्तव्यस्य कार्यस्यालोचनमिह परिणाम इति गृहीतम्। = ‘तद्भावः परिणामः’ ऐसा पूर्वाचार्य का वचन है अर्थात् जीवादिक पदार्थ क्रोधादिक विकारों से अथवा सम्यग्दर्शनादिक पर्यायों से परिणत होना यह परिणामशब्द का सामान्य अर्थ है। तथापि यहाँ यति को अपने कर्तव्य का हमेशा ख्याल रहना परिणाम शब्द के प्रकरण संगत अर्थ समझना चाहिए।
- परिणाम ही बन्ध या मोक्ष का कारण
यो.सा.यो./१४ परिणामैं बंधु जि कहिउ मोक्ख वि तह जि वियाणि। इउ जाणेविणु जीव तहुं तह भाव हु परियाणि। १४। = परिणाम से ही जीव को बन्ध कहा है और परिणाम से ही मोक्ष कहा है। - यह समझ कर, हे जीव! तू निश्चय से उन भावों को जान। १४।
- माला के दानोंवत् सत् का परिणमन
प्र.सा./त.प्र./९९ स्वभावानतिक्रमात्त्रिलक्षणमेव सत्त्वमनुमोदनीयम् मुक्ताफलदामवत्। यथैव हि परिगृहीतद्राधिम्नि प्रलम्बमाने मुक्ताफलदामनि समस्तेष्वपि स्वधामसूच्चकासत्सु मुक्ताफलेषूत्तरोत्तरेषु धामसूत्तरोत्तरमुक्ताफलानामुदयनात्पूर्वपूर्वमुक्ताफलानामनुदयनात् सर्व त्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य सूत्रकस्यावस्थानात्त्रैलक्षण्यं प्रसिद्धि मवतरित, तथैव हि परिगृहीतनित्यवृत्ति निवर्तमाने द्रव्ये समस्तेष्वपि स्वावसरेपूच्चकासत्सु परिणामेषूत्तरोत्तरेष्वसरेषूत्तरोत्तरपरिणामा नामुदयनात्पूर्वपूर्वपरिणामानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूति सूत्रकस्य प्रवाहस्यावस्थानात्त्रैलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति। = स्वभाव से ही त्रिलक्षण परिणाम पद्धति में (परिणामों की परम्परा से) प्रवर्तमान द्रव्य स्वभाव का अतिक्रम नहीं करता इसलिए सत् को त्रिलक्षण ही अनुमोदित करना चाहिए। मोतियों के हार की भाँति। जैसे - जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐसे लटकते हुए मोतियों के हार में, अपने-अपने स्थानों में प्रकाशित होते हुए समस्त मोतियों में, पीछे-पीछे के स्थानामें पीछे-पीछे के मोती प्रगट होते हैं इसलिए और पहले-पहले के मोती प्रगट नहीं होते इसलिए, तथा सर्वत्र परस्पर अनूस्यूति का रचयिता सूत्र अवस्थित होने से त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धि को प्राप्त होता है। इसी प्रकार जिसने नित्य वृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिणमित) होते हुए द्रव्य में, अपने-अपने अवसरों में प्रकाशित होते हुए समस्त परिणामों में पीछे-पीछे के अवसरों पर पीछे-पीछे के परिणाम प्रगट होते हैं इसलिए और पहले-पहले के परिणाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिए, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचनेवाला प्रवाह अवस्थित होने से त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धि को प्राप्त होता है। (प्र.सा./त.प्र./२३), (प्र.सा./त.प्र./८०), (पं.ध./पू./४७२-४७३)।
पं.का./त.प्र./१९ का भावार्थ-माला के दानों के स्थान पर बाँस के पर्व से सत् के परिणमन की सिद्धि।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- उपयोग अर्थ में परिणाम। - देखें - उपयोग / II ।
- शुभ व अशुभ परिणाम। - देखें - उपयोग / II ।
- अन्य व्यक्ति के गुप्त परिणाम भी जान लेने सम्भव हैं। - देखें - विनय / ५ ।
- परिणामों की विचित्रता। निगोद से निकलकर मोक्ष। - देखें - जन्य / ५ ।
- अप्रमत्त गुणस्थान से पहिले के सर्व परिणाम अधः प्रवृत्तकरणरूप होते हैं। - देखें - करण / ४ ।