परिषह
From जैनकोष
गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास, मच्छर आदि की बाधाएँ आने पर आर्त परिणामों का न होना अथवा ध्यान से चिगना परिषह जय है। यद्यपि अल्प भूमिकाओं में साधक को उनमें पीड़ा का अनुभव होता है, परन्तु वैराग्य भावनाओं आदि के द्वारा वह परमार्थ से चलित नहीं होता।
- भेद व लक्षण
- परिषह का लक्षण
त.सू./९/८ मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः। ८। = मार्ग से च्युत न होने के लिए और कमो की निर्जरा के लिए जो सहन करने योग्य हों, वे परिषह हैं। ८।
स.सि./९/२/४०९/८ क्षुदादिवेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थ सहनं परिषहः। = क्षुधादि वेदना के होने पर कमो की निर्जरा करने के लिए उसे सह लेना परिषह है। (रा.वा./९/२/६/५९२/५)
रा.वा./९/२/६/५९२/२ परिषह्यत इति परीषहः। ६। = जो सही जाय वह परिषह हैं।
- परिषह जय का लक्षण
स.सि./९/२/४०९/९ परिषहस्य जयः परिषहजयः। = परिषह का जीतना परिषहजय है। (रा.वा./९/२/६/५९२/५)।
भ.आ./वि./११७१/११५९/१८ ‘‘दुःखोपनिपाते संक्लेशरहिता परीषह-जयः।’’ = दुःख आने पर भी संक्लेश परिणाम न होना ही परिषहजय है।
का.अ./मू./९८ सो विपरिसह-विजओ छुहादि-पीडाण अइरउद्दाणं। सवणाणं च मुणीणं उवसम-भावेण जं सहणं। = अत्यन्त भयानक भूख आदि की वेदना को ज्ञानी मुनि जो शान्तभाव से सहन करते हैं, उसे परिषहजय कहते हैं। ९८।
द्र.सं./टी./३५/१४६/१० ‘‘क्षुधादिवेदनानां तीव्रोदयेऽपि... समतारूप परमसामायिकेन... निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानन्दलक्षणसुखामृतसंवित्तेरचलनं स परिषहजय इति। = क्षुधादि वेदनाओं के तीव्र उदय होने पर भी... समता रूप परम सामायिक के द्वारा... निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न, विकाररहित, नित्यानन्द रूप सुखामृत अनुभव से, जो नहीं चलना सो परिषहजय है।
- परिषह के भेद
त.सू./९/९ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषेद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कार-पुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि॥ ९॥ = क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन नाम वाले परिषह हैं। ९। (मू.आ./२५४-२५५); (चा.सा./१०८/३); (अन.ध./६/८९-११२); (द्र.सं./टी./३५/१४६/९)।
- परिषह का लक्षण
- परिषहजय विशेष के लक्षण- दे.वह वह नाम।
- परिषह निर्देश
- परिषह के अनुभव का कारण कषाय व दोष होते हैं
स.सि./९/१२/४३१/४ तेषु हि अक्षणीकषायदोषत्वात्सर्वे संभवन्ति। = प्रमत्त आदि गुणस्थानों में कषाय और दोषों के क्षीण न होने से सब परिषह सम्भव हैं।
- परिषह की ओर लक्ष्य न जाना ही वास्तविक परिषहजय है
स.सि./९/९/४२०/१० क्षुद्बाधां प्रत्यचिन्तनं क्षुद्विजयः। = क्षुधाजन्य-बाधा का चिन्तन नहीं करना क्षुधा परिषहजय है।
नोट - इसी प्रकार पिपासादि परिषहों की ओर लक्ष्य न जाना ही वह वह नाम की परिषह जय है। - दे. वह वह नाम।
- मार्गणा की अपेक्षा परिषहों की सम्भावना
चा.सा./१३२/७ नरकतिर्यग्गत्योः सर्वे परिषहाः मनुष्यगतावाद्यभंगा भवन्ति देवगतौ घातिकर्मोत्थपरिषहैः सह वेदनीयोत्पन्नक्षुत्पिपासावधैः सह चतुर्दश भवन्ति। इन्द्रियकायमार्गणयोः सर्वे परिषहाः सन्ति वैक्रियकद्वितयस्य देवगतिभंगा तिर्यग्मनुष्यापेक्षया द्वाविंशतिः शेषयोगानां वेदादिमार्गणानां च स्वकीयगुणस्थानभङ्गा भवन्ति। = नरक और तिर्यंचगति में सब परिषह होती हैं। मनुष्यगति में ऊपर कहे अनुसार (गुणस्थानवत्) होती हैं। देवगति में घातीकर्म के उदय से होनेवाली सात परिषह और वेदनीयकर्म के उदय से होनेवाला क्षुधा, पिपासा और वध, इस प्रकार चौदह परिषह होती हैं। इन्द्रिय और कायमार्गणा में सब परिषह होती हैं। वैक्रियक और वैक्रियकमिश्र में देवगति की अपेक्षा देवगति के अनुसार और तिर्यंच मनुष्यों की अपेक्षा बाईस होती हैं। शेष योग मार्गणा में तथा वेदादि सब मार्गणओं में अपने-अपने गुणस्थानों की अपेक्षा लगा लेना चाहिए।
- गुणस्थानों की अपेक्षा परिषहों की सम्भावना
(त.सू./९/१०-१२); (स.सि./९/१०-१२/४२८-४३१); (रा.वा./९/१०-१२/६१३-६१४); (चा.सा./१३०-१३२)।
- परिषह के अनुभव का कारण कषाय व दोष होते हैं
गुणस्थान |
गुण की विशेषता |
प्रमाण |
असम्भव |
सम्भव |
गुणस्थान |
गुण की विशेषता |
प्रमाण |
असम्भव |
सम्भव |
1-7 8
9-6 9
’’
9-12 |
सामान्य ’
’’ सवेद
अवेद
मान क0 रहित 9 |
चा.सा. ’’
स.सि. चा.सा.
’’
चा.सा. |
अदर्शन
अदर्शन, अरति ’’ ’’स्त्री ’’ =8 |
22 21
22 20
19
14 |
12
13-14 ’’
|
सामान्य
’’ ’’ |
चा.सा.
स.सि. चा.सा. |
क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल ’’ ’’ |
11
11 11 उपचार से। |
- एक समय में एक जीव को परिषहों का प्रमाण
त.सू./९/१७ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकान्नविंशतेः। १७ । = एक साथ एक आत्मा में उन्नीस तक परिषह विकल्प से हो सकते हैं॥ १७॥
स.सि./९/१७ शीतोष्णपरिषहयोरेकःशय्यानिषद्याचर्याणां चान्यतम एव भवति एकस्मिन्नात्मनि। कुतः। विरोधात्। तत्त्रयाणामपगमे युगपदेकात्मनीतरेषां संभवादेकोनविंशतिविकल्पा बोद्धव्याः। = एक आत्मा में शीत और उष्ण परिषहों में - से एक, शय्या, निषद्या और चर्या इनमें से कोई एक परिषह ही होते हैं, क्योंकि शीत और उष्ण इन दोनों के तथा शय्या, निषद्या और चर्या इन तीनों के एक साथ होने में विरोध आता है। इन तीनों के निकाल देने पर एक साथ एक आत्मा में इतर परिषह सम्भव होने से सब मिलकर उन्नीस परिषह जानना चाहिए। (रा.वा./९/१७/२/६१५/२५)।
- परिषहों के कारणभूत कर्मों का निर्देश
त.सू./९/१३-१६ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने॥ १३॥ दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ॥ १४॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः॥ १५॥ वेदनीये शेषाः॥ १६॥ = ज्ञानावरण के सद्भाव में प्रज्ञा और अज्ञान परिषह होते हैं॥ १३॥ दर्शनमोह और अन्तराय के सद्भाव में क्रम से अदर्शन और अलाभ परिषह होते हैं॥ १४॥ चारित्रमोह के सद्भाव में नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार परिषह होते हैं॥ १५॥ बाकी के सब परिषह वेदनीय के सद्भाव में होते हैं॥ १६॥ (चा.सा./१२९/३)।
- परिषह आने पर वैराग्य भावनाओं का भाना भी कथंचित् परिषहजय है।- देखें - अलोभ , आक्रोश व वध परिषह।
- परिषहजय का कारण व प्रयोजन
त.सू./९/८ मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः।
स.सि./९/८/४१७/१३ जिनोपदिष्टान्मार्गादप्रदच्यवमानास्तन्मार्गपरिक्रमणपरिचयेन कर्मागमद्वारं संवृण्वन्त औपक्रमिकं कर्मफलमनुभवन्तः क्रमेण निर्जीर्णकर्माणो मोक्षमाप्नुवन्ति। = जिनदेव के द्वारा कहे हुए मार्ग से नहीं च्युत होनेवाले, उस मार्ग के सतत् अभ्यासरूप परिचय के द्वारा कर्मागम द्वार को संवृत करनेवाले तथा औपक्रमिक कर्मफल को अनुभव करनेवाले क्रम से कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
अन.ध./६/८३ दुःखे भिक्षुरुपस्थिते शिवपथाद्भ्रस्यत्यदुःखाश्रितात् तत्तन्मार्गपरिग्रहेण दुरितं रोद्धुं मुमुक्षुर्नवम्। भोक्तुं च प्रतपनक्षुदादिवपुषो द्वाविंशतिं वेदनाः, स्वस्थो यत्सहते परीषहजयः साध्यः स धीरैः परम्॥ ८३॥ = संयमी साधु बिना दुःखों का अनुभव किये ही मोक्षमार्ग का सेवन करे तो वह उसमें दुःखों के उपस्थित होते ही भ्रष्ट हो सकता है। जो मुमुक्षु पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करने के लिए आत्म-स्वरूप में स्थित होकर क्षुधादि २२ प्रकार की वेदनाओं को सहता है, उसी को परिषह विजयी कहते हैं।
द्र.सं./टी./५७/२२९/४ परीषहजयश्चेति... ध्यानहेतवः। = परिषहजय ध्यान का कारण है।
- परिषहजय भी संयम का एक अंग है- देखें - कायक्लेश।
- शंका समाधान
- क्षुदादि को परिषह व परिषहजय कहने का कारण
भ.आ./मू. व टी./११७१/११५९ सीदुण्हदंसमसयादियाण दिण्णी परिसहाण उरो। सीदादिणिवारणाए गंथे णिययं जहत्तेण॥ ११७१॥ क्षुदादिजन्यदुःखविषयत्वात् क्षुदादिशब्दानाम्। तेन क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यादीनां परीषहवाचो युक्तिर्न विरुध्यते। = शीत, उष्ण इत्यादि को मिटानेवाला वस्त्रादि परिग्रह जिसने नियम से छोड़ दिया है, उसने शीत, उष्ण, दंश-मशक वगैरह परिषहों को छाती आगे करके शूर पुरुष के समान जीत लिया है, ऐसा समझना चाहिए॥ ११७१॥ क्षुदादिकों से उत्पन्न होनेवाला दुःख क्षुदादि शब्दों का विषय है, इस वास्ते क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य इत्यादिकों को परिषह कहना अनुचित नहीं है।
- केशलोंच को परिषहों में क्यों नहीं गिनते
स.सि./९/९/४२६/८ केशलुञ्चसंस्काराभ्यामुत्पन्नखेदसहनं मलसामान्यसहनेऽन्तर्भवतीति न पृथगुक्तम्। = केश लुञ्चन या केशों का संस्कार न करने से उत्पन्न खेद को सहना होता है, यह मल परिषह सामान्य में ही अन्तर्भूत है। अतः उसको पृथक् नहीं गिनाया है। (रा.वा./९/९/२४/६१२/१)।
- परिषहजय व कायकलेश में अन्तर- देखें - कायक्लेश।
- अवधि आदि दर्शन परिषहों का भी निर्देश क्यों नहीं करते
रा.वा./९/९/३१/३१२/३३ नूनमस्मिंस्तद्योग्या गुणा न सन्तीत्येवमादिवचनसहनमवध्यादिदर्शनपरीषहजयः, तस्योपसंख्यानं कर्तव्यमितिः तन्नः किं कारणम्। अज्ञानपरीषहाविरोधात्। तत्कथमिति चेत्। उच्यते - अवध्यादिज्ञानाभावे तत्सहचरितदर्शनाभावः, आदित्यस्य प्रकाशाभावे प्रतापाभाववत्। तस्मादज्ञानपरीषहेऽवरोधः। = प्रश्न - अवधिदर्शन आदि के न उत्पन्न होने पर भी ‘इसमें वे गुण नहीं हैं’ आदि रूप से अवधिदर्शन आदि सम्बन्धी परिषह हो सकती हैं, अतः उसका निर्देश करना चाहिए था। उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि ये दर्शन अपने-अपने ज्ञानों के सहचारी हैं, अतः अज्ञान परिषह में ही इनका अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे, सूर्य के प्रकाश के अभाव में प्रताप नहीं होता, उसी तरह अवधिज्ञान के अभाव में अवधिदर्शन नहीं होता। अतः अज्ञानपरिषह में ही उन उन अवधिदर्शनाभाव आदि परिषहों का अन्तर्भाव है।
- दसवें आदि गुणस्थानों में परिषहों के निर्देश सम्बन्धी
स.सि./९/१०/४२८/८ आह युक्तं तावद्वीतरागच्छद्मस्थे मोहनीयाभावात् तत्कृतवक्ष्यमाणाष्टपरिषहाभावाच्चतुर्दशनियमवचनम्। सूक्ष्म्साम्पराये तु मोहोदयसद्भावात् ‘चतुर्दश’ इति नियमो नोपपद्यत इति। तद्युक्तम्ः सन्मात्रत्वात्। तत्र हि केवलो लोभसंज्वलनकषायोदयः सोऽप्यतिसूक्ष्मः। ततो वीतरागछद्मस्थकल्पत्वात् चतुर्दशं इति नियमस्तत्रापि युज्यते। ननु मोहोदयसहायाभावान्मन्दोदयत्वाच्च क्षुदादिवेदनाभावात्तत्सहनकृतपरिषहव्यपदेशो न युक्तिमवतरति। तन्न। किं कारणम्। शक्तिमात्रस्य विवक्षितत्वात्। सर्वार्थसिद्धिदेवस्य सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यव्यपदेशवत्। वीतरागछद्मस्थस्य कर्मोदयसद्भावकृतपरीषहव्यपदेशो युक्तिमवतरति। = प्रश्न - वीतराग छद्मस्थ के मोहनीय के अभाव से तत्कृत आगे कहे जानेवाले आठ परिषहों का अभाव होने से चौदह परिषहों के नियम का वचन तो युक्त है, परन्तु सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में मोहनीय का उदय होने से चौदह परिषह होते हैं, यह नियम नहीं बनता? उत्तर - यह कहना अयुक्त है, क्योंकि वहाँ मोहनीय की सत्ता मात्र है। वहाँ पर केवल लोभ संज्वलनकषाय का उदय होता है, और वह भी अतिसूक्ष्म इसलिए वीतराग छद्मस्थ के समान होने से सूक्ष्मसाम्पराय में भी चौदह परिषह होते हैं यह नियम बन जाता है। प्रश्न - इन स्थानों में मोह के उदय की सहायता न होने से और मन्द उदय होने से क्षुधादि वेदना का अभाव है, इसलिए इनके कार्यरूप से ‘परिषह’ संज्ञा युक्ति को प्राप्त नहीं होती? उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ शक्तिमात्र विवक्षित है। जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि के देव के सातवीं पृथ्वी के गमन की सामर्थ्य का निर्देश करते हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। अर्थात् कर्मोदय सद्भावकृत परिषह व्यपदेश हो सकता है। (रा.वा./९/१०/२-३/६१३/१०)
- केवली में परिषहों सम्बन्धी शंकाएँ- देखें - केवली / ४ ।
- क्षुदादि को परिषह व परिषहजय कहने का कारण