पारिषद
From जैनकोष
- पारिषद देवों का लक्षण
स.सि./४/४/२३९/४ वयस्यपीठमर्दसदृशाः परिषदि भवाः पारिषदाः। = जो सभा में मित्र और प्रेमी जनों के समान होते हैं वे पारिषद कहलाते हैं। (रा.वा./४/४/४/२१२/२६); (म.पु./२२/२६)।
ति.प./३/६७ बाहिरमज्झब्भंतरतंडयसरिसा हवंति तिप्परिसा। ६७। = राजा की बाह्य, मध्य और अभ्यन्तर समिति के समान देवों में भी तीन प्रकार की परिषद् होती हैं। इन परिषदों में बैठने योग्य देव क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्यम पारिषद और अभ्यन्तर पारिषद कहलाते हैं। (त्रि.सा./२२४); (ज.प./११/२७०)।
ज.प./११/२७१-३८२ सविदा चंदा य जदू परिसाणंतिण्णि होंति णामाणि। अब्भंतरमज्झिमबाहिरा य कमसो मुणेयव्वा। २७१। बाहिर-परिसा णेया अइरुंदा णिट्ठुरा पयंडा य। बंठा उज्जुदसत्था अवसारं तत्थ घोसंति। २८०। वेत्तलदागहियकरा मज्झिम आरूढवेसधारी य। कंचुइकद अंतेउरमहदरा बहुधा। २८१। वव्वरिचिलादिखुज्जाकम्मंतियदासिचेडिवग्गो य। अंतेउराभिओगा करंति णाणाविधे वेसे। २८२। = अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य, इन तीन परिषदों के, क्रमशः समिता, चन्दा व जतु ये तीन नाम जानना चाहिए। २७१। (ति.सा./२२९) बाह्य पारिषद देव अत्यन्त स्थूल, निष्ठुर, क्रोधी, अविवाहित और शस्त्रों से उद्युक्त जानना चाहिए। वे वहाँ ‘अपसर’ (दूर हटो) की घोषणा करते हैं। २८०। वेत रूपी लता को हाथ में ग्रहण करनेवाले, आरूढ़ वेष के धारक तथा कंचुकी की पोषाक पहने हुए मध्यम (पारिषद) बहुधा अन्तःपुर के महत्तर होते हैं। २८१। वर्वरो, किराती, कुब्जा, कर्मान्तिका, दासी और चेटी इनका समुदाय (अभ्यन्तर पारिषद) नाना प्रकार के वेष में अन्तःपुर के अभियोग को करता है। २८२।
- भवनवासी आदि इन्द्रों के परिवार में पारिषदों का प्रमाण- देखें - भवनवासी आदि भेद।
- कल्पवासी इन्द्रों के पारिषदों की देवियों का प्रमाण
ति.प./८/३२४-३२७ आदिमदो जुगलेसुं बम्हादिसु चउसु आणदचउक्केण पुह पुह सव्विंदाणं अब्भंतरपरिसदेवीओ। ३२४। पंचसयचउसयाणिं तिसया दोसयाणि एक्कसयं। पण्णासं पुव्वोदिदठाणेसुं मज्झिमपरिसाए देवीओ। ३२॥ सत्तच्छपंचचउतियदुगएक्कसयाणि पुव्वठाणेसुं। सव्विदाणं होंति हु बाहिरपरिसाए देवीओ। ३२७। = आदि के दो युगल, ब्रह्मादिक चार युगल और आनतादिक चार में सब इन्द्रों की अभ्यन्तर पारिषद देवियाँ क्रमशः पृथक्-पृथक् ५००, ४००, ३००, २००, १००, ५० और पच्चीस जाननी चाहिए। ३२४-३२५। पूर्वोक्त स्थानों में मध्यम पारिषद देवियाँ क्रम से ६००, ५००, ४००, ३००, २००, १०० और ५० हैं। ३२६। पूर्वोक्त स्थानों में सब इन्द्रों के बाह्य पारिषद देवियाँ क्रम से ७००, ६००, ५००, ४००, ३००, २०० और १०० हैं। ३२७।