पिंडस्थध्यान
From जैनकोष
पिण्डस्थ ध्यान की विधि में जीव अनेक प्रकार की धारणाओं द्वारा अपने उपयोग को एकाग्र करने का उद्यम करता है। उसी का परिचय इस अधिकार में दिया गया है।
- पिंडस्थध्यान का लक्षण व विधि सामान्य
- पिंडस्थं स्वात्मचिन्तनम्
द्र.सं./टी./४८/२०५ पर उद्धृत- पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम्। = निजात्मा का चिन्तवन पिण्डस्थ ध्यान है। (प.प्र./टी./१/६/६ पर उद्धृत); (भा.पा./टी./८६/२३६ पर उद्धृत)।
- अर्हंत के तुल्य निजात्मा का ध्यान
वसु.श्रा./४५९ सियकिरणविप्फुरंतं अट्ठमहापाडिहेरपरियरियं। झाइज्जइ जं णिययं पिंडत्थं जाण तं झाणं। ४५९। = श्वेत किरणों से विस्फरायमान और अष्ट महा प्रातिहार्यों से परिवृत (संयुक्त) जो निज रूप अर्थात् केवली तुल्य आत्मस्वरूप का ध्यान किया जाता है उसे पिण्डस्थ ध्यान जानना चाहिए। ४५९। (ज्ञा./३७/२८,३२); (गुण.श्रा./२२८)।
ज्ञानसार/१९-२१ निजनाभिकमलमध्ये परिस्थितं विस्फुरद्रवितेजः। ध्यायते अर्हद्रूपं ध्यानं तत् मन्यस्व पिण्डस्थं। १९। ध्यायत निजकरमध्ये भालतले हृदयकन्ददेशे। जिनरूपं रवितेजः पिण्डस्थं मन्यस्व ध्यानमिदं। २०। = अपनी नाभि में, हाथ में, मस्तक में, अथवा हृदय में कमल की कल्पना करके उसमें स्थित सूर्यतेजवत् स्फुरायमान अर्हन्त के रूप का ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान है। १९-२०।
- तीन लोक की कल्पना युक्त निजदेह
वसु.श्रा./४६०-४६३ अहवा णाहिं च वियप्पिऊण मेरुं अहोविहायम्मि। झाइज्ज अहोलोयं तिरियम्मं तिरियम्मं तिरियए वीए। ४६०। उड्ढम्मि उड्ढलोयं कप्पविमाणाणि संधपरियंते। गोविज्जमयागीवं अणुद्दिसं अणुपएसम्मि। ४६१। विजयं च वइजयंतं जयंतमवराजियं च सव्वत्थं। झाइज्ज मुहपए से णिलाडदेसम्मि सिद्धसिला। ४६२। तस्सुवरि सिद्धणिलयं जह सिहरं जाण उत्तमंगम्मि। एवं जं णियदेहं झाइज्जइ तं पि पिंडत्थं। ४६३। = अथवा अपने नाभि स्थान में मेरु पर्वत की कल्पना करके उसके अधोविभाग में अधोलोक का ध्यान करे, नाभि पार्श्ववर्ती द्वितीय तिर्यग्विभाग में तिर्यग्लोक का ध्यान करे। नाभि से ऊर्ध्व भाग में ऊर्ध्वलोक का चिन्तवन करे। स्कन्ध पर्यन्त भाग में कल्प विमानों का, ग्रीवा स्थान पर नवग्रैवेयकों का, हनुप्रदेश अर्थात् ठोड़ी के स्थान पर नव अनुदिशों का, मुख प्रदेश पर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, और सर्वार्थसिद्धि का ध्यान करे। ललाटदेश में सिद्धशिला, उसके ऊपर उत्तमांग में लोक शिखर के तुल्य सिद्ध क्षेत्र को जानना चाहिए। इस प्रकार जो निज देह का ध्यान किया जाता है, उसे भी पिंडस्थध्यान जानना चाहिए। ४६०-४६३। (गुण.श्रा./२२९-२३१); (ज्ञा./३७/३०)।
- द्रव्य रूप ध्येय का ध्यान करना
त.अनु./१३४ ध्यातुः पिण्डे स्थितश्चैव ध्येयोऽर्थो ध्यायते यतः। ध्येयं पिण्डस्थमित्याहुरतएव च केचन। १३४। = ध्येय पदार्थ चूँकि ध्याता के शरीर में स्थित रूप से ही ध्यान का विषय किया जाता है, इसलिए कुछ आचार्य उसे पिण्डस्थ ध्येय कहते हैं।
नोट - ध्येय के लिए - देखें - ध्येय।
- पिंडस्थं स्वात्मचिन्तनम्
- पिंडस्थ ध्यान की पाँच धारणाएँ
- पिंडस्थ ध्यान की विधि में पाँच धारणाओं का निर्देश
ज्ञा./३७/२-३ पिण्डस्थं पञ्च विज्ञेया धारणा वीरवर्णिताः। संयमी यास्वसंमूढ़ो जन्मपाशान्निकृन्तति। २। पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसना वाथ वारुणी। तत्त्वरूपवती चेति विज्ञेयास्ता यथाक्रमम्। ३। = पिंडस्थ ध्यान में श्री वर्धमान स्वामी से कही हुई जो पाँच धारणाएँ हैं, उनमें संयमी मुनि ज्ञानी होकर संसाररूपी पाशको काटता है। ॥ वे धारणाएँ पार्थिवी, आग्नेयी तथा श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती ऐसे यथाक्रम से होती है। २-३। (त.अनु.१८३)।
- पाँचों धारणाओं का संक्षिप्त परिचय
त.अनु./१८४-१८७ आकारं मरुता पूर्य कुम्भित्वा रेफवह्निना। दग्ध्वा स्ववपुषा कर्म, स्वती भस्म विरेच्य च। १८४। ह मंत्रो नभसि ध्येयः क्षरन्नमृतमात्मनि। तेनाऽन्यत्तद्विनिर्माय पीयूषमयमुज्ज्वलम्। १८५। ततः पञ्चनमस्कारैः पञ्चपिण्डाक्षरान्वितैः। पञ्चस्थानेषु विन्यस्तैर्विधाय सकलां क्रियाम्। १८६। पश्चादात्मानमर्हन्तं ध्यायेन्निर्दिष्टलक्षणम्। सिद्धं वा ध्वस्तकर्माणममूर्तं ज्ञानभास्वरम्। १८७। = (नाभिकमल की कर्णिका में स्थित) अर्हं मन्त्र के ‘अ’ अक्षर को पूरक पवन के द्वारा पूरित और (कुम्भक पवन के द्वारा) कुम्भित करके, रेफ (᳤) की अग्नि से (हृदयस्थ) कर्मचक्र को अपने शरीर सहित भस्म करके और फिर भस्म को (रेचक पवन द्वारा) स्वयं विरेचित करके ‘ह’ मन्त्र को आकाश में ऐसे ध्याना चाहिए कि उससे आत्मा में अमृत झर रहा है और उस अमृत से अन्य शरीर का निर्वाण होकर वह अमृतमय और उज्ज्वल बन रहा है। तत्पश्चात् पंच पिंडाक्षरों (ह्राँ, ह्रीं, ह्रूं, ह्रौं, ह्रः), से (यथाक्रम) युक्त और शरीर के पाँच स्थानों में विन्यस्त हुए पंच नमस्कार मन्त्रों से - (णमो अरहताणं आदि पाँच पदों से) सकल क्रिया करके तदनन्तर आत्मा को निर्दिष्ट लक्षण अर्हन्त रूप ध्यावे अथवा सकलकर्म-रहित अमूर्तिक और ज्ञानभास्कर ऐसे सिद्ध स्वरूप ध्यावे। १८४-१८७। - विशेष दे. वह वह नाम।
- तत्त्ववती धारणा का परिचय
ज्ञा./३७/२९-३० मृगेन्द्रविष्टरारूढं दिव्यातिशयसंयुतम्। कल्याणमहिमोपेतं देवदैत्योरगार्चितम्। २९। विलीनाशेषकर्माणं स्फुरन्तमतिनिर्मलम्। स्वं ततः पुरुषाकारं स्वाङ्गागर्भगतं स्मरेत्। ३०। = तत्पश्चात् (वारुणी धारणा के पश्चात्) अपने आत्मा के अतिशय युक्त, सिंहासन पर आरूढ़, कल्याण की महिमा सहित, देव दानव धरणेन्द्रादि से पूजित है ऐसा चिन्तवन करै। २९। तत्पश्चात् विलय हो गये हैं आठ कर्म जिसके ऐसा स्फुरायमान अति निर्मल पुरुषाकार अपने शरीर में प्राप्त हुए अपने आत्मा का चिन्तवन करै। इस प्रकार तत्त्वरूपवती धारणा कही गयी। ३०। (ज्ञा./३७/२८)।
- अर्हन्त चिन्तवन पदस्थ आदि तीनों ध्यानों में होता है- देखें - ध्येय।
- पिण्डस्थ ध्यान का फल
ज्ञा./३७/३१ इत्यविरत स योगी पिण्डस्थे जातनिश्चलाभ्यासः। शिवसुखमनन्यसाध्यं प्राप्नोत्यचिरेण कालेन। ३॥ = इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान में जिसका निश्चल अभ्यास हो गया है, वह ध्यानी मुनि अन्य प्रकार से साधने में न आवे ऐसे मोक्ष के सुख को शीघ्र ही प्राप्त होता है। ३१।
- पिंडस्थ ध्यान की विधि में पाँच धारणाओं का निर्देश