अभियोगी भावना
From जैनकोष
(भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या ९२) मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं पउंजदे जो हु। इड्ढिरससादहेदुं अभिओगं भावणं कुणइ ।।१८२।।
= मन्त्र प्रयोग करना, कौतुककारक अकाल वृष्टि आदि करना तथा ऋद्धि, रस व सात गौरवयुक्त अन्य इसी प्रकारके कार्य करना मुनिके लिए अभियोगी भावना कहलाती है।