पुलाक
From जैनकोष
स.सि./९/४६/४६०/५ उत्तरगुणभावनापेतमनसो व्रतेष्वपि क्वचित्कदाचित्परिपूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तोऽविशुद्धपुलाक-सादृश्यात्पुलाका इत्युच्यन्ते।
स.सि./९/४७/४६१/११ प्रतिसेवना-पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनवर्जनस्य च पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति। =
- जिनका मन उत्तर गुणों की भावना से रहित है, जो कहीं पर और कदाचित् व्रतों में भी परिपूर्णता को नहीं प्राप्त होते हैं वे अविशुद्ध पुलाक के समान होने से पुलाक कहे जाते हैं। (रा.वा./९/४६/१/६३६/१९), (चा.सा./१०१/१)।
- प्रतिसेवना - दूसरों के दबाववश जबर्दस्ती से पाँच मूल गुण और रात्रिभोजनवर्जन व्रत में से किसी एक की प्रतिसेवना करनेवाला पुलाक होता है (रा.वा./९/४७/६३८/४) (चा.सा./१०४/१)
रा.वा.हि./९/४६/७६३ मूलगुणानि विषैं कोइ क्षेत्र काल के वशतैं विराधना होय हैं तातै मूलगुण में अन्यमिलाप भया, केवल न भये। तातै परालसहित शाली उपमा दे संज्ञा कही है।
- पुलाकादि पाँचों साधु सम्बन्धी विषय- देखें - साधु / ५ ।