पैशुन्य
From जैनकोष
रा.वा./१/२०/१२/७३/१३ पृष्ठतो दोषाविष्करणं पैशुन्यम्। = पीछे से दोष प्रकट करने को पैशुन्य वचन कहते हैं। (ध.१/१,१,२/११६/१२); (ध. ९/४/१,४५/२१७/३)।
ध. ९/४,२,८,१०/२८५/५ परेषां क्रोधादिना दोषोद्भावनं पैशुन्यम्। = क्रोधादि के कारण दूसरों के दोषों को प्रकट करना पैशुन्य कहा जाता है। (गो.जी./जी.प्र./३६५/७७८/२०)।
नि.सा./ता.वृ./६२ कर्णेजपमुखविनिर्गतं नृपतिकर्णाभ्यर्णगतं चैकपुरुषस्य एककुटुम्बस्य एकग्रामस्य वा महद्विपत्कारणं वचःपैशुन्यम्। = चुगलखोर मनुष्य के मुँह से निकले हुए और राजा के कान तक पहुँचे हुए, किसी एक पुरुष, किसी एक कुटुम्ब अथवा किसी एक ग्राम को महाविपत्ति के कारणभूत ऐसे वचन वह पैशुन्य है।
रा.वा.हिं./६/११/५०० पैशुन्य कहिये पर तै अदेख सका भावकरि खोटी कहना।