प्रकीर्णक
From जैनकोष
त्रि.सा./४७५ सेढीणं विच्चाले पुप्फपइण्णय इव ट्ठियविमाणा। होंति पइण्णइणामा सेढिंदयहीणरासिसमा। ४७५। = श्रेणी बद्ध विमानों के अन्तराल में बिखेरे हुए पुष्पों की भाँति पंक्ति रहित जहाँ-तहाँ स्थित हों उन विमानों (वा बिलों) को प्रकीर्णक कहते हैं।....। ४७५। (त्रि.सा./१६६)।
द्र.सं./टी./३५/११६/२ दिग्विदिगष्टकान्तरेषु पङ्क्तिरहितत्वेन पुष्पप्रकरवत्... यानि तिष्ठन्ति तेषां प्रकीर्णकसंज्ञा। = चारों दिशा और विदिशाओं के बीच में, पंक्ति के बिना, बिखरे हुए पुष्पों के समान... जो बिले हैं, उनकी ‘प्रकीर्णक’ संज्ञा है।