प्रकुर्वी
From जैनकोष
भ.आ./४५५,४५७ जो णिक्खवणपवेसे सेज्जासंथार उवधि-संभोगे। ठाणणिसेज्जागासे अगदूण विकिंचणाहारे। ४५५। इय अप्प-परिस्सममगणित्ताखवयस्स सव्वपडिचरणे। वट्टंतो आयरिओ पकुव्वओ णाम सो होइ। ४५७। = क्षपक जब वस्तिका में प्रवेश करता है अथवा बाहर आता है उस समय में, वस्तिका, संस्तर और उपकरण इनके शोधन करने में, खड़े रहना, बैठना, सोना, शरीर मल दूर करना, आहार पानी लाना आदि कार्य में जो आचार्य क्षपक के ऊपर अनुग्रह करते हैं। सर्व प्रकार क्षपक की शुश्रूषा करते हैं, उसमें बहुत परिश्रम पड़ने पर भी वे खिन्न नहीं होते हैं ऐसे आचार्य को प्रकुर्वी आचार्य कहते हैं।