प्रतिज्ञा हानि
From जैनकोष
न्या. सू./मू. व टी. /५/२/१२३०९ प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः ।२। ... ऐन्द्रियकत्वादनित्यः शब्दो घटवदिति कृते अपर आह । दृष्टमैन्द्रियकत्वं सामान्ये नित्ये कस्मान्न तथा शब्द इति प्रत्यवस्थिते इदमाह यद्यैन्द्रियकं सामान्यं नित्यं कामं घटो नित्योऽस्त्विति । = साध्यधर्म के विरुद्ध धर्म से प्रतिषेध करने पर प्रति दृष्टान्त में मानने वाला प्रतिज्ञा छोड़ता है इसको ‘प्रतिज्ञाहानि’ कहते हैं । जैसे - ‘इन्द्रिय के विषय होने से घटकी नाईंशब्द अनित्य है’ ऐसी प्रतिज्ञा करने पर दूसरा कहता है कि ‘नित्य जाति में इन्द्रिय विषयत्व है तो वैसे ही शब्द भी क्यों नहीं’ । ऐसे निषेध पर कहता है कि ‘जो इन्द्रिय विषय जाति नित्य है तो घट भी नित्य हो’, ऐसा मानने वाला साधक दृष्टान्त का नित्यत्व मानकर ‘निगमन’ पर्यन्त ही पक्ष को छोड़ता है । पक्ष का छोड़ना प्रतिज्ञा का छोड़ना है, क्योंकि पक्ष प्रतिज्ञा के आश्रय है । (श्लो. वा./४/न्या./१०२/३४५/९ में इस पर चर्चा) ।