प्रत्यय
From जैनकोष
वैसे तो प्रत्यय शब्द का अर्थ कारण होता है, पर रूढिवश आगम में यह शब्द प्रधानतः कर्मों के आस्रव व बन्ध के निमित्तों के लिए प्रयुक्त हुआ है । ऐसे वे मिथ्यात्व अविरति आदि प्रत्यय हैं, जिनके अनेक उत्तर भेद हो जाते हैं ।
- भेद व लक्षण
- प्रत्यय सामान्य का लक्षण ।
- प्रत्यय के भेद-प्रभेद
बाह्य-अभ्यन्तर; मोह-राग-द्वेष, मिथ्यात्वादि ४ वा ५; प्राणातिपातादि २८; चार के ५७ भेद ।
- प्रमाद का कषाय में अन्तर्भाव करके पाँच प्रत्यय ही चार बन जाते हैं ।
- प्राणातिपातादि अन्य प्रत्ययों का परस्पर में अन्तर्भाव नहीं होता ।
- अविरति व प्रमाद में अन्तर;
- कषाय व अविरति में अन्तर ।
- प्रत्यय सामान्य का लक्षण ।
- प्रत्यय विषयक प्ररूपणाएँ
- सारिणी में प्रयुक्तसंकेतों का अर्थ ।
- प्रत्ययों की उदय व्युच्छित्ति (सामान्य व विशेष) ओघ प्ररूपणा ।
- प्रत्ययों की उदय व्युच्छित्ति आदेशप्ररूपणा ।
- प्रत्यय स्थान व भंग प्ररूपणा ।
- एक समय में उदय आने योग्य प्रत्ययों सम्बन्धी सामान्य नियम ।
- उक्त नियम के अनुसार प्रत्ययों के सामान्य भंग ।
- उक्त नियम के अनुसार भंग निकालने का उपाय ।
- गुणस्थानों की अपेक्षा स्थान व भंग ।
- एक समय में उदय आने योग्य प्रत्ययों सम्बन्धी सामान्य नियम ।
- किस प्रकृति के अनुभाग बंध में कौन प्रत्यय निमित्त हैं ?
- कर्मबंध के रूप में प्रत्ययों सम्बन्धी शंकाएँ - देखें - बंध / ५ ।
- सारिणी में प्रयुक्तसंकेतों का अर्थ ।
- प्रत्यय के भेद व लक्षण
- प्रत्यय सामान्य का लक्षण
रा.वा./१/२१/२/७९/८ अयं प्रत्ययशब्दोऽनेकार्थः । क्वचिज्ज्ञाने वर्तते, यथा ‘अर्थाभिधानप्रत्योय:’ इति . क्वचिच्छपथे वर्तते, यथा परद्रव्यहरणादिषु सत्युपालम्भे ‘प्रत्ययोऽनेन कृतः’ इति । क्वचिद्धेतौ वर्तते, यथा ‘अविद्याप्रत्ययाः संस्काराः’ इति । = प्रत्यय शब्द के अनेक अर्थ हैं । कहीं पर ज्ञान के अर्थ में वर्तता है जैसे - अर्थ, शब्द, प्रत्यय (ज्ञान) । कहीं पर कसम शब्द के अर्थ में वर्तता है जैसे - पर आदि के चुराये जाने के प्रसंग में दूसरे के द्वारा उलाहना मिलने पर ‘प्रत्योऽनेन कृतः’ अर्थात् उसके द्वारा कसम खायी गयी । कहीं पर हेतु के अर्थ में वर्तता है जैसे - अविद्याप्रत्ययाः संस्काराः । अर्थात् अविद्या के हेतु संस्कार हैं ।
ध.१/१,१,११/१६६/७ दृष्टिः श्रद्धा रुचिः प्रत्यय इति यावत् । = दृष्टि, श्रद्धा,रुचि और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम हैं ।
भ.आ./वि./८२/२१२/३ प्रत्ययशब्दोऽनेकार्थः । क्वचिज्ज्ञाने वर्तते यथा घटस्य प्रत्ययो घटज्ञानं इति यावत् । तथा कारणवचनोऽपि ‘मिथ्यात्वप्रत्ययोऽनन्तः संसार’ इति गदिते मिथ्यात्वहेतुक इति प्रतीयते । तथा श्रद्धावचनोऽपि ‘अयं अत्रास्य प्रत्ययः’ श्रद्धेतिगम्यते । = प्रत्यय शब्द के अनेक अर्थ हैं जैसे ‘घटस्य प्रत्ययः’ घटका ज्ञान, यहां प्रत्यय शब्द का ज्ञान ऐसा अर्थ है । प्रत्यय शब्द कारण वाचक भी है । जैसे - ‘मिथ्यात्वप्रत्यय अनन्तसंसारः’ अर्थात् इस अनंत संसार का मिथ्यात्व कारण है । प्रत्यय शब्द का श्रद्धा ऐसा भी अर्थ होता है जैसे ‘अयं अत्रास्य प्रत्ययः’ इस मनुष्य की इसके ऊपर श्रद्धा है ।
- प्रत्यय के भेद-प्रभेद
- बाह्य व अभ्यन्तर रूप दो भेद
क.पा.१/१,१३-१४/२८४/१ तथ्थ अव्भंतरों कोधादिदव्वकम्मक्खंधा... बाहिरो कोधादिभावकसायसमुप्पत्तिकारणं जीवाजीवप्पयं बज्झदव्वं । = क्रोधादिरूप द्रव्यकर्मों के स्कन्ध को अभ्यन्तर प्रत्यय कहते हैं । तथा क्रोधादिरूप भाव कषाय की उत्पत्ति का कारण भूत जो जीव और अजीवरूप बाह्य द्रव्य है वह बाह्य प्रत्यय है ।
- मोह, राग, द्वेष तीन प्रत्यय
न.च.वृ./३०१ पच्चयवंतो रागा दोसामोहे य आसव तेसिं ।...।३०१। = राग, द्वेष और मोह ये तीन प्रत्यय हैं, इनसे कर्मों का आस्रव होता है ।३०१।
- मिथ्यात्वादि चार प्रत्यय
स.सा./मू.१०९-११० सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगाय बोद्धव्वा ।१०९। तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरस वियप्पो । मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ।११०। = चार सामान्य प्रत्यय निश्चय से बन्ध के कर्ता कहे जाते हैं, वे मिथ्यात्व अविरमण तथा कषाय और योग जानना ।१०९। (पं.सं./प्रा./४/७७) (ध. ७/२,१,७,गा./२/९)(ध.८/३/६/१९/१२) (न.च.वृ./३०२) (यो.सा./३/२) (पं.का./त.प्र./१४९) और फिर उनका यह तेरह प्रकार का भेद कहा गया है जो कि - मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली (गुणस्थान) पर्यंत है ।११०।
- मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्यय
त.सू./८/१ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ।१। = मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के हेतु हैं ।१। (मू.आ./१२१९) ।
- प्राणातिपात आदि २८ प्रत्यय
ष.खं./१२/४,२,८/सू.२-११/२७५ णेगम-ववहार-संगहाणं णाणावरणीयवेयणा पाणादिवादपच्चए ।२। मुसावादपच्चए ।३। अदत्तादाणपच्चए ।४। मेहुणपच्चए ।५। परिग्गहपच्चए ।६। रादिभोयणपच्चए ।७। एवं कोह-माण-माया-लोह-राग-दोस-मोह-पेम्मपच्चए ।८। णिदाणपच्चए ।९। एवं सत्तणं कम्माणं ।१०। एवं सत्तण्णं कम्माणं ।११। = नैगम, व्यवहार और संग्रह नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना— प्राणातिपात प्रत्यय से; मृषावाद प्रत्यय से; अदत्तादान प्रत्यय से; मैथुन प्रत्यय से; परिग्रह प्रत्यय से; रात्रि भोजन प्रत्यय से ;, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह और प्रेम प्रत्ययों से; निदान प्रत्ययसे; अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, माया, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, और प्रयोग इन प्रत्ययों से होती है ।२-१०। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के प्रत्ययों की प्ररूपणा करनी चाहिए ।११।
- चार प्रत्ययों के कुल ५७ भेद
पं.सं./प्रा./४/७७ मिच्छासंजम हुंति हु कसाय जोगा य बंधहेऊ ते । पंच दुवालस भेया कमेण पणुवीस पण्णस्सं ।७७। = मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये चार कर्मबन्ध के मूल कारण हैं । इनके उत्तर भेद क्रम से पाँच, बारह, पच्चीस और पन्द्रह हैं । इस प्रकार सब मिलकर कर्म बन्ध के सत्तावन उत्तर प्रत्यय होते हैं ।७७। (ध.८/३,६/२१/१) (गो.क./मू./७८६/९५०)
- बाह्य व अभ्यन्तर रूप दो भेद
- प्रमाद का कषाय में अन्तर्भाव करके पाँच प्रत्यय ही चार बन जाते हैं
ध./७/२,७/११/११ चदुण्हं बंधकारणाणं मज्झे कत्थ पमादस्संतब्भावो । कसायेसु, कसायवदिरित्तपमादावणुवलंभादो । = प्रश्न -पूर्वोक्त (मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय, और योग) चार बन्ध के कारणों में प्रमाद का कहाँ अन्तर्भाव होता है ? उत्तर - कषायों में प्रमाद का अन्तर्भाव होता है, क्योंकि कषायों से पृथक् प्रमाद पाया नहीं जाता ।ध.१२/४,२,८,१०/२८६/१०)।
- प्राणातिपात आदि अन्य प्रत्ययों का परस्पर में अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता
ध. १२/४,२,८-९/पृ./पं. ण च पाणदिवाद-मुसावाद-अदत्तादाणाणमंत-रंगाणं कोधादिपच्चएसु अंतब्भावो, कंधचि तत्तो तेसिं भेदुवलंभादो (२८२/८) । ण च मेहुणं अंतरंगरागे णिपददि, तत्तो कंधचि एदस्स भेदुवलंभादो ।२८२/७) मोहपच्चयो कोहादिस पविसदि त्ति किण्णावणिज्जदे । ण, अवयवावयवीणं वदिरेगण्णयसरूवाणमणेगेगसंखाणं कारणकज्जाणं एगाणेगसहावावाणमेगत्तविरोहादो (२८५/१०) पेम्मपच्चयो लोह-राग-पच्चएसु पविसदि त्ति पुणरुत्तो किण्ण जायदे । ण, तेहिंतो एदस्स कधंचि भेदुवलंभादो । तं जहा बज्झत्थेसु ममेदं भावो लोभो । ण सो पेम्मं, ममेदं बुद्धीए अपडिग्गहिदे वि दक्खाहले परदारे वा पेम्मुवलंभादो । ण रागो पेम्मं, माया-लोभ-हस्स-रदि-पेम्म-समूहस्स रागस्स अवयविणो अवयवसरूवपेम्मत्त-विरोहादो (२८४/३)। ... ण च एसो पच्चओ मिच्छत्तपच्चए पविसदि, मिच्छत्तसहचारिस्स मिच्छत्तेण एयत्तविरोहादो । ण पेम्मपच्चए पविसदि, संपयासंपयविसयम्मि पेम्मम्मि संपयविसयम्मि णिदा-णस्स पवेसविरोहादो । =- प्राणातिपात, मृषावाद और अदत्तादान इन अंतरंग प्रत्ययों का क्रोधादिक प्रत्ययों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि, उनसे इनका कथंचित् भेद पाया जाता है ।
- मैथुन अन्तरंग राग में गर्भित नहीं होता, क्योंकि, उससे इसमें कथंचित् भेद पाया जाता है । (२८२/७) ।
- प्रश्न- मोह प्रत्यय चूँकि क्रोधादिक में प्रविष्ट है अतएव उसे कम क्यों नहीं किया जाता है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि क्रमशः व्यतिरेक व अन्वय स्वरूप, अनेक व एक संख्या वाले, कारण व कार्य रूप तथा एक व अनेक स्वभाव से संयुक्त अवयव अवयवी के एक होने का विरोध है (२८३/१०) ।
- प्रश्न- चूँकि प्रेम प्रत्यय लोभ व राग प्रत्ययों में प्रविष्ट है अतः वह पुनरुक्त क्योंन होगा ? उत्तर- नहीं, क्योंकि उनसे इसका कथंचित् भेद पाया जाता है । वह इस प्रकार से - बाह्य पदार्थों में ‘यह मेरा है’ इस प्रकार के भाव को लोभ कहा जाता है । वह प्रेम नहीं हो सकता, क्योंकि, ‘यह मेरा है’ ऐसी बुद्धि के अविषयभूत भी द्राक्षाफल अथवा परस्त्री के विषय में प्रेम पाया जाता है । राग भी प्रेम नहीं हो सकता, क्योंकि, माया, लोभ, हास्य, रति और प्रेम के समूह रूप अवयवी कहलाने वाले राग के अवयव स्वरूप प्रेम रूप होने का विरोध है । (२८४/३) ।
- यह (निदान) प्रत्यय मिथ्यात्व प्रत्यय में प्रविष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि वह मिथ्यात्व का सहचारी है, अतः मिथ्यात्व के साथ उसकी एकता का विरोध है । वह प्रेम प्रत्यय में भी प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि, प्रेम सम्पत्ति एवं असंपत्ति दोनों को विषय करने वाला है, परन्तु निदान केवल सम्पत्ति को ही विषय करता है, अतएव उसका प्रेम में प्रविष्ट होना विरुद्ध है ।
- अविरति व प्रमाद में अन्तर
रा.वा./८/१/३२/५६५/४ अविरते प्रमादस्य चाविशेष इति चेत्; न; विरतस्यापि प्रमाददर्शनात् ।३२। ... विरतस्यापि पञ्चदश प्रमादाः संभवन्ति- विकथाकषायेन्द्रियनिद्राप्रणयलक्षणा- । = प्रश्न - अविरति और प्रमाद में कोई भेद नहीं है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि विरतके भी विकथा, कषाय, इन्द्रिय, निद्रा और प्रणय ये पन्द्रह प्रमाद स्थान देखे जाते हैं, अतः प्रमाद और अविरति पृथक्-पृथक् हैं ।
- कषाय व अविरति में अन्तर
रा.वा./८/१/३३/५६५/७ स्यादेतत्-कषायाविरत्योर्नास्ति भेदः उभयोरपि हिंसादिपरिणामरूपत्वादिति; तन्नः किं कारणम् । कार्यकारण भेदोपपत्तेः । कारणभूता हि कषायाः कार्यात्मिकाया हिंसाद्यविरतेरर्थान्तरभूता इति । =प्रश्न -हिंसा परिणाम रूप होने के कारण कषाय और अविरति में कोई भेद नहीं है ? उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योंकि इनमें कार्य कारण की दृष्टि से भेद है । कषाय कारण हैं और हिंसादि अविरति कार्य ।
ध. ७/२,१,७/१३/७ असंजमो जदि कसाएसु चेव पददि तो पुध तदुवदेसो किमट्ठं कीरदे । ण एस दोसो, ववहारणयं पडुच्च तदुवदेसादो । =प्रश्न-यदि असंयम कषायों में ही अन्तर्भूत होता है तो फिर उसका पृथक् उपदेश किस लिए किया जाता है । उत्तर - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि व्यवहार नयकी अपेक्षा से उसका पृथक् उपदेश किया गया है ।
देखें - प्रत्यय / ४ (प्राणातिपातादि अन्तरंग प्रत्ययों का क्रोधादि प्रत्ययों से कथंचित् भेद है)।
- प्रत्यय सामान्य का लक्षण
- प्रत्यय विषयक प्ररूपणाएँ
- सारिणी में प्रयुक्त संकेतों का अर्थ
अनं. चतु.अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ
अनु. मन. वच.
अनुभय मन व अनुभय वचन
वच.
भय वचन
अवि.
अविरति
आ. द्वि.
आहारक व आहारक मिश्र
आ. मि.
आहार मिश्र
औ. द्वि.
औदारिक व औदारिक मिश्र
उ. मन. वच.
उभय मन व वचन
नपुं.
नपुंसक वेद
पु.
पुरुषवेद
प्रत्या. चतु.
प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ
मन. 4
सत्य, असत्य, उभय व अनुभव मनोयोग
मि. पंचक
पाँचों प्रकार का मिथ्यात्व
वचन. 4
चार प्रकार का वचन योग
वै. द्वि.
वैक्रियक व वैक्रियक मिश्र
सं. क्रोध
संज्वलन क्रोध
हास्यादि 6
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा
- प्रत्ययों की उदय व्युच्छित्ति ओघ प्ररूपणा
- सामान्य ४ वा ५ प्रत्ययों की अपेक्षा
कुल बन्ध योग्य प्रत्ययः- १ स.सि./८/१/३७६/५ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग = ५ ; २. पं.सं./प्रा./४/७८-७९ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग = ४, (ध. ८/३, ६/गा. २०-२१/२४);(पं. सं./सं./४/१८-२१) (गो.क./मू. /७८७-७८८)
- सामान्य ४ वा ५ प्रत्ययों की अपेक्षा
गुणस्थानपाँचप्रत्ययों की अपेक्षा
(स.सि.)चार प्रत्ययों की अपेक्षा
(पं.सं.)व्युच्छित्ति प्र.
कुल
बन्धव्यु.
शेष
व्युच्छित्ति
प्र.कुल बन्ध
व्यु.
शेष
१.
मिथ्यात्व
५
१
४
मिथ्यात्व
४
१
३
२-४
त्रसअविरति
४
×
४
त्रस अविरति
३
×
३
५
अविरति
४
१
३
अविरति
३
१
२
६
प्रमाद
३
१
२
×
२
२
७-१०
कषाय
२
१
१
कषाय
२
१
१
११-१३
योग
१
१
×
योग
१
१
×
१४
×
×
×
×
×
×
×
×
- विशेष ५७ प्रत्ययों की अपेक्षा
प्रमाण - (पं.सं./प्रा./८०-८३); (ध. ८/३, ६/२२-२४/१); (गो.क./मू./७८९-७९०/९५२)
कुल बन्ध योग्य प्रत्यय - मिथ्यात्व ५; अविरति १२; कषाय २५; योग १५=५७ ।
गुणस्थानव्युच्छित्ति
अनुदय
पुनः उदय
कुल उदय योग्य
अनुदय
पुनः उदय
उदय
व्युच्छित्ति
शेष उदय योग्य
१
मि.पंचक
आ. द्वि.
५७
२
५५
५
५०
२
अनन्ता. चतु.
५०
५०
४
४६
३
औ.वै.मि. व कार्मण
४६
३
४३
४३
४
अप्रत्या. चतु. त्रसहिंसा, वै. द्वि. = ७
औ.वै. मिश्र व
कार्मण४३
३
४६
७
३९
५
प्रत्या. चतु.शेष ११ अविरति=१५
औ.मि. कार्मण
३९
२
३७
१५
२२
६
आ.द्वि.
आ.द्वि
२२
२
२४
२
२२
७
२२
२२
२२
८
हास्यादि ६
२२
२२
६
१६
९/i
नपुं.
१६
१६
१
१५
९/ii
स्त्री वेद
१५
१५
१
१४
९/iii
पुरुष वेद
१४
१४
१
१३
९/iv
सं. क्रोध
१३
१३
१
१२
९/v
सं. मान
१२
१२
१
११
९/vi
सं.माया
११
११
१
1०
९/vii
बादर लोभ
१०
१०
१०
१०
सूक्ष्म लोभ
१०
१०
१
९
११
९
९
९
१२
असत्य व उ. मन व वचन
९
९
४
५
१३
सत्य. अनु. मन वचनऔ.द्वि. व कार्मण
औ.मि व कार्मण
५
२
७
७
१४
- प्रत्ययों की उदय व्युच्छित्ति आदेश प्ररूपणा
पं.सं./प्रा./४/८४-१०० कुल उदय योग्य प्रत्यय = ५७
नोट - यहाँ प्रत्येक मार्गणा में केवल उदय योग्य प्रत्ययों के निर्देशरूप सामान्य प्ररूपणा की गयी है । गुणस्थानों की अपेक्षा उनकी प्ररूपणा तथा यथायोग्य ओघ प्ररूपणाके आधार पर जानी जा सकती है ।
नं.मार्गणा
गुणस्थान
उदय के अयोग्य प्रत्ययों के नाम
उदय योग्य
१.
गति-—
१ नरक
४
औ.द्वि, आ.द्विक, स्त्री, पुरुष वेद =६
५१
२ तिर्यंच
५
वै.द्वि, आ.द्वि. =४
५३
३ मनुष्य
१४
वै.द्विक =२
५५
४ देव
४
औ.द्विक, आ.द्वि.नपुं. =५
५२
२
इन्द्रिय —
१ एकेन्द्रिय
२
वै.द्वि, आ.द्विक., वच. ४, मन.४,स्पर्श से अतिरिक्त ५ अविरति, स्त्री, पुरुषवेद =१९
३८
२ द्ववीन्द्रिय
२
उपरोक्त १९-रसनेन्द्रिय+अनुभय वचन =१७
४०
३ त्रीन्द्रिय
२
उपरोक्त १७-घ्राणेन्द्रिय =१६
४१
५ पंचेन्द्रिय
१४
×
५७
३
काय —
१ स्थावर
१
वै.द्वि., आ.द्वि, मन ४, वच.४, स्पर्श रहित ५, अविरति, स्त्री, पुरुष =१९
३८
२. त्रस
१४
×
५७
४
योग—
१ आहारक द्विक के बिना शेष १३ योग—
१-१३
स्व-स्व के उदय योग्य के बिना शेष १४=१४ (विशेष देखें - उदय )
४३
५
वेद—
१. पुरुष
९
स्त्री, व नपुं. वेद =२
५५
२. स्त्री
आहारक द्विक, स्त्री व नपुं. वेद =४
५३
३. नपुंसक
=४
५३
६
कषाय —
कुल कषाय १६
९
अनन्तानु. क्रोधादि कषायों में अपने-अपने चार के बिना शेष १२=१२
४५
७
ज्ञान —
१. कुमति व कुश्रुत
२
आ.द्वि. =२
५५
२. विभंग
औ. मि., वै.मि., कार्मण, आ.द्वि. =५
५२
३. मति, श्रुत व अवधि
४-१२
मिथ्यात्व पंचक, अनंतानु. चतु. =९
४८
४. मन: पर्यय
६-१२
मि. पंचक, अविरति १२, संज्व.चतु के बिना १२ कषाय, स्त्री व नपुं. वेद, औ. मिश्र, आ.द्वि., वै.द्वि. कार्मण ५+१२+१२+२+६=३७
२०
५. केवलज्ञानी
१३,१४
मि.पंचक, १२अविरति, २५ कषाय, वै.द्विक, आ.द्विक, असत्य व अनु. मन व वचन ४५+१२+२५+४+४=५०
७
८
संयम
१ सामायिक व छेदोपस्थापना
६-९
मि. पंचक, १२ अविरति, सं.चतु. के बिना १२ कषाय, औ. मि., वै.द्वि., कार्मण ५+१२+१२+१+२+१=३३
२४
२ परिहार विशुद्धि
६-७
उपरोक्त ३३, स्त्री व नपुं., आद्वि् =३७
२०
३ सूक्ष्म साम्पराय
१० वाँ
मि.पंचक, १२ अविरति, कषाय २५ सूक्ष्म लोभ २४, औ. मि., वै.द्वि., आ.द्विक., कार्मण ५+१२५२४+१+२+२+१=४७
१०
४ यथाख्यात
११-१४
मि.पंचक, अविरति, २५कषाय, वै.द्वि., आ.द्वि.
=४६११
५ असंयमी
१-४
आ.द्वि. =२
५५
६ देशसंयमी
५
अनन्ता.व अप्रत्या.चतु., मि.पंचक, वै.द्वि., औ.मि., आ.द्वि., कार्मण ८+५+२+१+२+१=२०
३७
९
दर्शन—
१ चक्षु व अचक्षु
१२
×
५७
२ अवधि द.
४-१२
मिथ्यात्व पंचक, अनन्तानु.चतु. =९
४८
३ केवलदर्शन
१३-१४
मि.पंचक, १२ अविरति, २५ कषाय, वै.द्वि., आ.द्वि. असत्य व अनु. मन वच. ४=५०
१०
लेश्या —
१ कृष्णादि ३
१-४
आ.द्वि. =२
५५
२ पीतादि ३
१-७
×
५७
११
भव्य —
१ भव्य
१४
×
५७
२ अभव्य
१
आ.द्वि. =२
५५
१२
सम्यक्त्व —
१ उपशम
४-७
अनन्तानु.चतु., मिथ्यात्व पंचक, आ.द्वि.=११
४६
२ वेदक, क्षायिक
मिथ्या.पंचक, अनन्तानु.चतु. =९
४८
३ सासादन
२ रा
मिथ्या.पंचक, आ.द्वि. =७
५०
४ मिथ्यादर्शन
१
आ.द्वि. =२
५५
५ मिश्र
३ रा
मिथ्या.पंचक, अनन्तानु., चतु., आ.द्वि., औ.मि., वै.मि., कार्मण =१४
४३
१३
संज्ञी —
१ असंज्ञी
२
मन सम्बन्धी अविरति, ४ मन., अनुभय के बिना ३ वचन., वै.द्वि., आ.द्वि.
१+४+३+२+२=१२५७
२ संज्ञी
१२
×
५७
१४
आहारक —
१ आहारक
१३
कार्मण =१
५६
२ अनाहारक
कुल योग १५– कार्मण =१४
४३
- प्रत्यय स्थान व भंग प्ररूपणा
- एक समय में उदय आने योग्य प्रत्ययों सम्बन्धी सामान्य नियम
- पाँच मिथ्यात्वों में से एक काल अन्यतम एक ही मिथ्यात्व का उदय सम्भव है ।
- छः इन्द्रियों की अविरति में से एक काल कोई एक ही इन्द्रिय का उदय सम्भव है । छः कायकी अविरति में से एक काल एक का, दोका, तीन का, चार का, पाँच का या छहों का युगपत् उदय सम्भव है ।
- कषायों में क्रोध, मान माया, व लोभ में से ऐक काल किसी एक कषाय का ही उदय सम्भव है । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इन चारों में गुणस्थानों के अनुसार एक काल अन्तता. आदि चारों का अथवा अप्रत्या. आदि तीन का, अथवा प्रत्या. व संज्जवलन दो का अथवा केवल संज्वलन एक का उदय सम्भव है । हास्य-रति अथवा शोक-अरति इन दोनों युगलों में से एक काल एक युगल का ही उदय सम्भव है । भय व जुगुप्सा में एक काल दोनों का अथवा किसी एक का अथवा दोनों का ही नहीं, ऐसे तीन प्रकार उदय सम्भव है ।
- पन्द्रह योगों में गुणस्थानानुसार किसी एक का ही उदय सम्भव है ।
- उक्त नियम के अनुसार प्रत्ययों के सामान्य भंग
नोट -बटा में दर्शाया गया ऊपर का अंक एक काल उदय आने योग्य प्रत्ययों की गणना और नीचे वाला अंक उस विकल्प सम्बन्धी भंगों की गणना सूचित करता है ।
मूल प्रत्ययसंकेत
विवरण
एककालिक प्रत्यय
भंग
मिथ्या.
मि.१/५
पाँचों मिथ्यात्वों में से अन्यतम एक का उदय
१
५
इं. १/६
छहों इन्द्रियों की अविरति में सेअन्यतम एक का उदय
१
६
का १/१
पृथ्वीकाय सम्बन्धी अविरति
१
१
का २/१
पृथ्वी व अप्काय सम्बन्धी अविरति
२
१
का ३/१
पृथ्वी, अप् व तेज काय सम्बन्धी अविरति
३
१
का ४/१
पृथ्वी,अप्, तेज व वायु काय सम्बन्धी अविरति
४
१
का ५/१
पाँचों स्थावर काय सम्बन्धी अविरति
५
१
का ६/१
छहों काय सम्बन्धी अविरति
६
१
कषाय
अनन्त ४/४
अनन्तानु. आदि चारों सम्बन्धीक्रोध, या मान, या माया, या लोभ
४
४
अप्रा.३/४
अप्रत्याख्यान आदि तीनों सम्बन्धीक्रोध, या मान, या माया, या लोभ
३
४
प्रत्या.२/४
प्रत्याख्यान व संज्वलन सम्बन्धी क्रोध, या मान, या माया, या लोभ
२
४
सं. १/४
संज्वलन क्रोध, या मान, या माया,या लोभ
१
४
यु. २/२
हास्य-रति, या शोक-अरति, इन दोनों युगलों में से किसी एक युगल का उदय
२
२
वे. १/३
तीनों वेदों में से किसी एक का उदय
१
३
भय १/२
भय व जुगुप्सा में से किसी एक का उदय
१
३
भय २/१
भय व जुगुप्सा दोनों का उदय
२
१
योग
यो.१/१३
४ मन, ४ वचन, औदारिक, औदारिक
मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र व
कार्मण इन तेरह में से किसी एक का उदय
१
१३
यो. १/२
आहारक व आहारक मिश्र में से एक
१
११
यो. १/१०
४ मन, ४ वचन औदारिक व वैक्रियकइन दोनों में से किसी एक का उदय
१
१०
यो. १/९
४ मन, ४ वचन, औदारिक इन नौ में से एक
१
९
यो. १/७
सत्य व अनुभय मन, सत्य व अनुभय,
औदारिक, औदारिक, मिश्र व कार्मण इन
सात में से एक योग
- उक्त नियम के अनुसार भंग निकालने का उपाय
कुछ प्रत्यय ध्रुव हैं और कुछ अध्रुव । विवक्षित गुणस्थान के सर्व स्थानों में उदय आने योग्य प्रत्यय ध्रुव हैं और स्थान प्रति-स्थान परिवर्तित किये जाने वाले अध्रुव हैं । तहाँ मिथ्यात्व, इन्द्रिय, अविरति, वेद, हास्यादि दोनों युगल, अनन्तानुबन्धी आदि क्रोध, मान, माया, लोभ और योग ये ध्रुव हैं । क्योंकि सर्व स्थानों में इनका एक-एक ही विकल्प रहता है । काय अविरति और भय व जुगुप्सा अध्रुव हैं क्योंकि प्रत्येक स्थान में इनके विकल्प घट या बढ़ जाते हैं । कहीं एक कायकी हिंसा रूप अविरति है और कहीं दो आदि कायों की । कहीं भय का उदय है और कहीं नहीं और कहीं भय व जुगुप्सा दोनों का उदय है । विवक्षित गुणस्थान के आगे तहाँ उदय आने योग्य ध्रुव प्रत्ययों का निर्देश कर दिया गया है । उन ध्रुवोदयी प्रत्ययो की गणना में क्रम से निम्न प्रकार ध्रुवोदयी प्रत्ययों को जोड़ने से उस उस स्थान के भंग निकल आते हैं ।
स्थान नं.भंगविवरण
- गुणस्थान की अपेक्षा स्थान व भंग
प्रमाण :- (पं.सं./प्रा./४/१०१-२०३) ( गो.क./मू.व.टी./७९२-७९४/९५७-९६८) ।
गुणस्थानप्रत्यय स्थान
कुल भंग
विवरण
गुण स्थानप्रत्यय स्थानकुल भंगविवरण
- एक समय में उदय आने योग्य प्रत्ययों सम्बन्धी सामान्य नियम
- किस प्रकृति के अनुभाग बन्ध में कौन प्रत्यय निमित्त है?
पं.सं./प्रा./४/४८८-४८९ सायं च उपपच्चइयो मिच्छो सोलहदुपच्चया पणुतीसं । सेसा तिपच्चया खलु तित्थयराहार वज्जा दु ।४८८। सम्मत्तगुणणिमित्तं तित्थयरं संजमेण आहारं । बज्झंति सेसियाओ मिच्छत्ताई हेअहिं ।४८९। = साता वेदनीय का अनुभाग बन्ध चतुर्थ (योग) प्रत्यय से होता है । मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध से व्युच्छिन्न होने वाली ( देखें - प्रकृतिबन्ध / ७ / ४ ) सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्व प्रत्ययक हैं । दूसरे गुणस्थान में बन्ध से व्युच्छिन्न होने वाली पच्चीस और चौथे में बन्ध से व्युच्छिन्न होने वाली दस; ( देखें - प्रकृति बन्ध / ७ / ४ ) ये पैंतीस प्रकृतियाँ द्विप्रत्ययक हैं क्योंकि इनका पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व की प्रधानता से, और दूसरे से चौथे तक असंयम की प्रधानता से बन्ध होता है । तीर्थंकर और आहारकद्विक के बिना शेष सर्व प्रकृतियाँ ( देखें - प्रकृतिबन्ध / ७ / ४ ) त्रिप्रत्ययक हैं क्योंकि उनका पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व की प्रधानता से, और दूसरे से चौथे तक असंयम की प्रधानता से, और आगे कषाय की प्रधानता से बन्ध होता है ।४८८। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध सम्यक्त्व गुण के निमित्त से और आहारक का द्विक का संयम के निमित्त से होता है ।४८९।